लखनऊ। भौतिक जगत की जीवंतता का मूल पंचमहाभूत तत्व है, इन्हीं पंचतत्वों से मनुष्य शरीर का सृजन होता है और शरीर के संचालन तथा इसकी समाप्ति के कारक भी पंचमहाभूत ही है। जब गहराई से इनके गुणों एवं कार्यों का अध्ययन करेंगे तो पाएंगे कि वास्तव में यही पंचमहाभूत अपने जादुई एवं मायारूपी प्रपंच से ही जगत का संचालन करते हैं।
जीव की इच्छा का पूर्ति का साधन है पंचमहाभूत
पंचतत्व सागर में किसी जीव (चेतन) की इच्छा के अनुरूप उसके लिए शरीर का सृजन करते हैं और इस सृजित देह में ही आत्मा के रूप में जीव निवास करता है। यही नहीं, पंचतत्व अपने तत्व तथा उन तत्वों के अधीन पंच ज्ञानेंद्रियों अग्नि तत्व रूपी आंख, पृथ्वी तत्व रूपी नाक, आकाश तत्व रूपी कान, जल तत्व रूपी जीव तथा वायु तत्व रूपी त्वचा के माध्यम से क्रमशः आंख से देख कर, नाक से गंध सूंघकर, कान से सुनकर, जीफ से स्वाद लेकर तथा त्वचा से स्पर्श की अनुभूति कर चेतन रूपी मन के अंदर भौतिक कर्मों हेतु विषय की उत्पत्ति करने में सहायता करते हैं। विषयक ज्ञान प्राप्त होने के उपरांत पंचमहाभूत तत्वों वाले शरीर की पांच कर्मेंद्रियां हाथ, पैर, मुख, गुदा एवं लिंग के माध्यम से इच्छा रूपी विषयक कर्म का कारक बनती है अर्थात जीव की प्रत्येक इच्छा का ज्ञान एवं उसकी उपलब्धि का साधन पंचतत्व ही है।
माया रूपी शरीर
जीव चेतन की इच्छा के अनुरूप उसके लिए देह शरीर के सृजन का कार्य भी पंचतत्व एकदम जादुई एवं माया रूप में प्रत्यक्ष करते हैं जो कि अभी तक मानव ज्ञान की सीमा से परे है। अर्थात इन्हीं पंचमहाभूतों के प्रपंची माया से ही संसार में जन्मित प्रत्येक जीव के शरीर की बनावट, शरीर के अंग, शरीर का भार,लंबाई-चौड़ाई-रंग-रूप, बोली- भाषा, आचरण- सभ्यता एवं प्रकृति आदि सभी एक दूसरे से भिन्न होती हैं।
सृजन एवं क्रियान्वयन के कारक हैं पंचमहाभूत तत्व
संसार में मनुष्य अपने मन में जिस प्रकार के भावों को लेकर कर्म करता है। उन्हीं भावों के अनुरूप मनुष्य के प्रारब्ध कर्म की स्क्रिप्ट पंचतत्व लिखते रहते हैं और इसी स्क्रिप्ट के आधार पर उसके प्रारब्ध के अनुरूप जब जो अच्छा अथवा कष्टप्रद कर्म होना होता है। उसी के अनुरूप ग्रह नक्षत्रों की ऊर्जा मनुष्य के भवसागर के तरंगों के रूप में उस कर्म के लिए भावरूपी इच्छाओं को उत्पन्न करते हैं। उसके प्रभाव में ही मनुष्य अपने प्रारब्ध कर्म के अनुरूप कर्म करने का स्वयं ही माध्यम बनता है। यह सभी प्रक्रिया पंचमहाभूत अपने गोद में स्वयं साधन एवं सुविधा बनकर पूरी करते हैं।
सुख एवं दुख के कारक
प्रत्येक मनुष्य के शरीर में पंच तत्वों, तीन गुणों सत्, रज एवं तम् और तीन विकारों वात्, पित्त एवं कफ् के अलग-अलग अनुपात में गुणों की उपस्थिति होती है। इन्हीं कारणों से प्रत्येक मनुष्य का आचरण, स्वभाव एवं प्रकृति-प्रवृत्ति अलग-अलग प्रकार की होती हैं। भगवान श्रीकृष्ण जी ने महापवित्र ग्रंथ गीता के माध्यम से संदेश दिया है कि मनुष्य को अपनी प्रकृति की पहचान कर उसी प्रकृति के वातावरण एवं गुणों के साथ जीवन यापन करना चाहिए तभी वह वास्तविक सुखों के साथ जीवन जी सकता है। और जब भी वह अपनी मूल प्रकृति से भटकता है तो उसके पंचतत्व, त्रिगुण एवं त्रिविकारों में असंतुलन उत्पन्न होता है जो मनुष्य के दुखों एवं कष्टों का कारण बनता है।
उनका भाव विनम्र
आकाश, अग्नि, वायु, जल एवं पृथ्वी तत्व संसार में सर्वशक्तिमान एवं महाविनाशक तत्व है फिर भी यह अपनी विनम्रता से संसार के हर जीव की इच्छा पूर्ति का निस्वार्थ माध्यम बनकर निरंतर सेवा करते रहते हैं। यह अपने संतुलन से ही संसार में तमाम जीवन उपयोगी वस्तुओं, प्रगति पूर्ण संसाधनों का माध्यम भी बनते हैं जैसे जल एवं वायु से विद्युत तथा विद्युत से अन्य संसाधनों की उत्पत्ति तथा अग्नि अपने स्वभाव से, भोजन से ऊर्जा में परिवर्तन सहित तमाम वस्तुओं के आकार बदलने में सहायक बनती है, परंतु यह सभी अथवा इनमें से कोई एक तत्व ही असंतुलित हो जाए तो ब्रह्मांड में बाढ़, भूकंप, अग्निकांड, अतिजलवृष्टि एवं तूफान आदि तबाही एवं महाविनाश का मंजर भी प्रत्यक्ष होता है।
लखनऊ से एस. वी. सिंह 'प्रहरी' का इनपुट
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