देश की स्वतंत्रता के संघर्ष और स्वाभिमान की लड़ाई में दांडी यात्रा की अहमियत कहीं न कहीं नमक की अहमियत को साबित करती है. नमक को मूल आवश्यकता बताकर उसे केंद्र में रखने और आजादी की लड़ाई का एक अहम हिस्सा बनाने का श्रेय गांधीजी को जाता है. ठीक इसी तरह इस मूल जरूरत को अपने जीवन से समूल हटाकर जीवन जीने वाले को नंदकुमार साय कहा जाता है. ऐसे साधक पर किसी पद के लालच का आरोप लगाना सरल तो हो सकता है, लेकिन उसे साबित करना तो असंभव और साय को साधना तो कतई असंभव होगा.
इस बात का जिक्र इसलिए, क्योंकि नंदकुमार साय एक बार फिर प्रासंगिक हो गए हैं. बीजेपी की प्राथमिक सदस्यता से त्यागपत्र देकर फिर चर्चा में आ गए हैं. वरना वे तो बीजेपी के लिए अप्रासंगिक पहले ही हो चुके थे. वैसे ही जैसे अपने पसीने से सींचकर इस पार्टी को हरा-भरा बनाने वाले कई और जमीन से जुड़े नेता इन दिनों हो गए हैं.
साय को मनाने के लिए बीजेपी के दिग्गज नेता आगे आए. उनके घर तक पहुंचे. और साय ने क्या किया. अपने फेसबुक अकाउंट से ये पोस्ट किया. लिखा कि धूमिल नहीं है लक्ष्य मेरा, अम्बर समान यह साफ है। उम्र नहीं है बाधा मेरी, मेरे रक्त में अब भी ताप है। सहस्त्र पाप मेरे नाम हो जाएं, चाहे बिसरे मेरे काम हो जाएं, मेरे तन-मन का हर एक कण, इस माटी को समर्पित है। मेरे जीवन का हर एक क्षण, जन-सेवा में अर्पित है।
ये पंक्तियां किसी के लिए भी कहना और लिखना आसान है. लेकिन, जब ये नंदकुमार साय की हों तो ये सिर्फ कहन और लिखन की बात नहीं है. बल्कि इन पंक्तियों को सहेजना चाहिए, स्वर्णजड़ित कर लेना चाहिए. ये शब्द उस साधक के हैं, जिन्होंने मजाक-मजाक में किसी की कही बात पर नमक जैसी मूल जरूरत की चीज को 53 सालों से हाथ तक नहीं लगाया है. आदिवासियों का सम्मेलन था और साय शराबबंदी की बात कह रहे थे. किसी ने कह दिया कि आप नमक छोड़ दें तो हम शराब छोड़ देंगे. कहने वाले तो कहकर मौन रह गए, लेकिन साय ने जो संकल्प ले लिया सो ले लिया. संकल्प की बात कहने वाले ने शराब छोड़ी या नहीं ये पता नहीं.
वैसे संकल्प लेने वाले हमने कई देखे हैं. राजनीतिज्ञ से लेकर खुद को साधु-महात्मा और साधक कहने वालों को देखा है. लेकिन, किसी को हमने सरयू या नर्मदा में न जल समाधि लेते देख पाया और न किसी को राजनीति छोड़ते. हां.. नमक छोड़ते जरूर देखा है. ऐसे नंदकुमार साय, ऐसे साधक, ऐसे त्यागी के लिए ये कहना कि उन्हें पद का लालच था, आसमान में कीचड़ उछालने की कोशिश करना ही तो है. ऐसे में ये वक्त कीचड़ उछालकर खुद को बदनुमा करने से कहीं अच्छा आत्ममंथन करना होगा.
आत्मचिंतन की जरा भी काबिलियत यदि किसी में है तो उसे आत्मचिंतन अवश्य करना चाहिए. उनके लिए नंदकुमार साय का संकल्प का प्रतिमान है. ठीक वैसे ही जैसे सूरज का पूर्व से उगना, पश्चिम में ढलना है. उनका नया पोस्ट उनके संकल्प को प्रतिबिंबित कर रहा है.
सच है... बेहद कठिन है राजनीति में नंदकुमार साय होना, उससे भी कठिन है ऐसे साधक को साधना...
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