बिलासपुर। जोनल स्टेशन बिलासपुर से ट्रेन कटनी रूट पर रवाना होती है तो करगीरोड से आगे आजू—बाजू पेड़—पौधे घने होते चले जाते हैं। साथ ही ऊंची—नीची सतह से पहाड़ियों की मौजूदगी का एहसास होता है। फिर आता है टेंगनमाड़ा और फिर बेलगहना जहां से पहाड़ियों को काटकर बनाए घुमावदार रेलपथ पर घने जंगल के बीच से दौड़ती ट्रेन भनवारटंक होते हुए ऊंचे रेलपुल को पार कर पहाड़ी को छेद कर 331 मीटर ऊंचे टनल को पार करती है। लगता है मानों हम किसी और दुनिया में पहुंच गए हों। ये है भनवारटंक टनल, जिसे लेकर हैं ढेरों किस्से। इंजीनियरिंग के कमाल और इन किस्सों में छिपे रहस्य ही इस पूरे क्षेत्र को कौतुहल का विषय बना चुके हैं। तो आज हम इन्हीं रहस्यों के परतों को आपके सामने खोलने जा रहे हैं कि आखिर इस टनल से गुजरते समय ट्रेनें महज 10 किलोमीटर प्रतिघंटे की रफ्तार से क्यों सरकती हैं। क्या कोई दैवीय प्रकोप का डर है या फिर टनल के भसकने का खतरा। क्या है वो दैवीय घटना जानते हैं विस्तार से।
आपको बता दें कि यहां एक नहीं बल्कि दो रेलवे टनल हैं। एक पुराना है जिसे अंग्रेजों ने 1907 में बनाया था तो दूसरा 1966 में भारतीय रेलवे द्वारा बनवाया गया है। पुराने टनल पर गति जहां 10 की होती है तो नए में 45 किमी प्रति घंटे की। ये जगह जहां भनवारटंक से आगे तो खोडरी स्टेशन के पहले पड़ता है। पूरा इलाका ऊंची—नीची पहाड़ियों और घने जंगल से आबाद है। निर्माण के 116 वर्षों बाद भी इस टनल का उपयोग हो रहा है। लेकिन, ट्रेन की गति ही नियंत्रित की जाती है बाकि इसके इस्तेमाल को लेकर किसी तरह की पाबंदी या अन्य सावधानी की जरूरत रेलवे ने अब तक महसूस नहीं की है। जहां तक इस सुरंग के अंदर की बात करें तो उसकी बनावट अंग्रेजों के इंजीनियरिंग के आधार पर उस समय की जरूरतों और उपलब्ध संसाधनों का उपयोग दिखता है। अंदर छोटे—छोटे अंधेरे कमरेनुमा निर्माण हैं।
उन्हें बनाने का उद्देश्य शायद मरम्मत आदि कार्य के दौरान ट्रेन आने पर उससे बचने के लिए किया गया होगा। चूंकि पूरा निर्माण कार्य पहाड़ी के नीचे किया गया है, जिससे पेड़—पौधों द्वारा अवशोषित पानी जड़ों के जरिए नीचे की ओर होता है तो उसका रिसाव इस टनल तक होने लगता है। इससे यहां शुद्ध पानी का स्रोत हमेशा बना रहता है। यह बेहद ठंडा भी रहता है।
एक हादसा
जैसा कि हमने ऊपर ट्रेनों की धीमी रफ्तार और उसके रहस्य की बात बताई ही है। तो एक कारण पर हमने संभावना जताई है कि निर्माण कार्य पुराना होने के कारण संभव है। दूसरा, दैवीय कारण। तो इसे लेकर एक पुरानी घटना का जिक्र यहां के स्थानीय बुजुर्ग किस्सागो करते हैं। वे बताते हैं कि साल 1981 में टनल से निकलते ही आमानाला के सौ फीट ऊंचे ब्रिज के पास नर्मदा एक्सप्रेस से पीछे से आती हुई मालगाड़ी की टक्कर हुई थी। इस हृदय विदारक घटना में यहां 50 से अधिक लोगों की मौत हो गई थी।
एक स्वप्न
जानकारों का कहना है कि इस जगह पर खाई और सुनसान इलाका होने के कारण शवों को वहां से दो किलोमीटर दूर भनवारटंक के पास एक नीम के पेड़ के नीचे रख दिया गया था ताकि लोग अपने लोगों के शव को पहचानकर ले जा सकें। बाद में वहां के स्टेशन मास्टर को उस जगह का एक सपना आने लगा कि उस नीम के नीचे उन्हें कोई बुलाता है और उस जगह पूजा—अर्चना की बात कहता है। तब भी उस जगह पर आज की ही तरह पहले से ही मरही माई की प्रतिमा स्थापित थी।
और धीमी रफ्तार का संबंध
अब उन्होंने इसके बाद इस जगह को व्यवस्थित कराया और फिर इस जगह की प्रसिद्धि बढ़ती चली गई। साथ ही यहां से गुजरने वाली ट्रेनों के चालक यहां धीमी रफ्तार कर मरही माता का सम्मान करने लगे। ऐसा माना जाता है कि इसीलिए ट्रेनों की गति धीमी की जाती है और इस जगह को लेकर कौतुहल व डर भी इसके पीछे कारण है। बहरहाल मामला चाहे जो हो, इस जगह से गुजरना ही अपने आप में एक अनोखे संसार को देखने जैसा है।
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