टिप्पणी. पत्रकारिता के एक ऐसे अंधकार भरे कालखंड जिसमें एक बड़ी संख्या में अख़बार मालिकों की किडनियां हुकूमतों द्वारा विज्ञापनों की एवज में निकाल लीं गईं हों। कई सम्पादकों की रीढ़ की हड्डियां अपनी जगहों से खिसक चुकीं हों। अपने को उनका शिष्य या शागिर्द बताने का दम्भ भरने वाले कई पत्रकार भयातुर होकर सत्ता की चाकरी के काम में जुट चुके हों। राजेन्द्र माथुर अगर आज हमारे बीच होते तो किस समाचार पत्र के सम्पादक होते, किसके लिए लिख रहे होते और कौन उन्हें छापने का साहस कर रहा होता? भारतीय पत्रकारिता के इस यशस्वी सम्पादक-पत्रकार की नौ अप्रैल को पुण्यतिथि थी।
पत्रकारिता जिस दौर से आज गुज़र रही है, उसमें राजेंद्र माथुर का स्मरण करना भी साहस का काम माना जा सकता है। ऐसा इसलिए कि 09 अप्रैल 1991 के दिन वे तमाम लोग जो दिल्ली में स्वास्थ्य विहार स्थित उनके निवास स्थान पर सैंकड़ों की संख्या में जमा हुए थे। उनमें से अधिकांश पिछले 30 वर्षों के दौरान या तो हमारे बीच से अनुपस्थित हो चुके हैं या उनमें से कई ने राजेंद्र माथुर के शारीरिक चोला त्यागने के बाद अपनी पत्रकारिता के चोले और झोले बदल लिए हैं।
इंदौर से सटे धार ज़िले के छोटे से शहर बदनावर से निकलकर पहले अविभाजित मध्य प्रदेश में अपनी कीर्ति पताका फहराने और फिर निर्मम दिल्ली के कवच को भेद कर, वहां के पत्रकारिता संसार में अपने लिए जगह बनाने वाले राजेंद्र माथुर को याद करना कई कारणों से जरूरी हो गया है। वक्त जैसे-जैसे बीतता जाएगा, उन्हें याद करने के कारणों में भी इज़ाफ़ा होता जाएगा। अपने बीच उनके न होने की कमी और तीव्रता के साथ महसूस की जाएगी। उनके जैसा होना या बन पाना तो आसान काम है ही नहीं, उनके नाम को पत्रकारिता के इस अंधे युग में ईमानदारी के साथ जी पाना भी चुनौतीपूर्ण हो गया है।
सोचने का सवाल यह है कि राजेंद्र माथुर अगर आज होते तो किस ‘नई दुनिया’ या ‘नवभारत टाइम्स’ में अपनी विलक्षण प्रतिभा और अप्रतिम साहस के लिए जगहें तलाश रहे होते? क्या वे अपने इर्द-गिर्द किसी राहुल बारपुते, गिरिलाल जैन, शरद जोशी या विष्णु खरे को खड़ा हुआ पाते? क्या इस बात पर आश्चर्य नहीं व्यक्त किया जाना चाहिए कि इस समय जब छोटी-छोटी जगहों पर साधनहीन पत्रकारों को उनकी साहसपूर्ण पत्रकारिता के लिए असहिष्णु सत्ताओं द्वारा जेलों में डाला जा रहा है। थानों पर कपड़े उतरवाकर उन्हें नंगा किया जा रहा है।
साल 1975 में आपातकाल के ख़िलाफ़ लगातार लिखते रहने वाले राजेंद्र माथुर को इंदिरा गांधी की हुकूमत ने क्यों नहीं सताया, जेल में बंद क्यों नहीं किया? राजेंद्र माथुर आपातकालीन प्रेस सेन्सरशिप की खुलेआम धज्जियाँ उड़ाते रहे पर उनके ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई नहीं हुई, देशद्रोह का मुक़दमा दर्ज नहीं हुआ ! तीन छोटी-छोटी बच्चियों के पिता राजेंद्र माथुर सिर्फ़ चालीस वर्ष के थे, जब वे दिल्ली के मुक़ाबले इंदौर जैसे अपेक्षाकृत छोटे शहर से प्रकाशित होने वाले दैनिक समाचार पत्र ‘नई दुनिया’ में आपातकाल के ख़िलाफ़ लिखते हुए देश की सर्वोच्च तानाशाह हुकूमत को ललकार रहे थे।
माथुर साहब का जब निधन हुआ तो उनके घर पहुंचकर श्रद्धांजलि अर्पित करने वालों में राजीव गांधी भी थे। राजीव गांधी के चेहरे पर एक ईमानदार सम्पादक के असामयिक निधन को लेकर शोक झलक रहा था। राजीव गांधी जानते थे कि माथुर साहब ने उनके भी ख़िलाफ़ खूब लिखा था, जब वे प्रधानमंत्री के पद पर क़ाबिज़ थे। माथुर साहब के निवास स्थान से निगम बोध घाट तक जिस तरह का शोक व्याप्त था, उसका शब्दों में वर्णन नहीं किया जा सकता। माथुर साहब जब गए, उनकी उम्र सिर्फ़ 56 साल की थी, पर लेखन उन्होंने आगे आने वाले 100 सालों का पूरा कर लिया था।
माथुर साहब के मित्र और पाठक उन्हें रज्जू बाबू के प्रिय सम्बोधन से ही जानते थे। ’नई दुनिया’अख़बार के दफ़्तर में भी उनके लिए यही सम्बोधन प्रचलित था। मालिकों से लेकर सेवकों और उनसे मिलने के लिए आने वाले पत्रकार-लेखकों तक। देश भर के लाखों पाठक रज्जू बाबू के नाम से जानते थे।
श्रवण गर्ग, वरिष्ठ पत्रकार
(Disclaimer: लेखक जाने-माने पत्रकार हैं. वे सोशल मीडिया पर बेबाकी से खुले खत व लेख लिखने के लिए भी जानें जाते हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह हैं। इसके लिए Newsbaji किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है।)
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