राजेन्द्र शर्मा. गुजरात में सूरत की निचली अदालत ने राहुल गांधी को चार साल पुराने एक मामले में आपराधिक मानहानि के लिए दो साल की सजा सुना दी। इसे संयोग मानने के लिए राजनीतिक रूप से बहुत भोला होना जरूरी है कि उन्हें जिला अदालत ने, आपराधिक मानहानि के अपराध के लिए दी जाने वाली अधिकतम सजा सुनाई है और यह ठीक उतनी ही सजा है, जितनी किसी निर्वाचित सांसद-विधायक को ''अयोग्य'' करार देकर, उसकी सदस्यता खत्म करने के लिए न्यूनतम आवश्यक सजा है!
खैर! अब यहां से आगे घटनाक्रम ठीक-ठीक क्या रूप लेगा? राहुल गांधी की लोकसभा की सदस्यता ताबड़तोड़ खत्म कर दिए जाने के बाद, क्या चुनाव आयोग उनकी वायनाड की लोकसभाई सीट खाली घोषित कर, उसके लिए चुनाव कराने की प्रक्रिया शुरू कर देगा? क्या उच्चतर अपीलीय न्यायालयों द्वारा राहुल गांधी की सजा को भी, खासतौर पर इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए रोक दिया जाएगा कि यह भारत में आपराधिक मानहानि कानून के करीब पौने दो सौ साल के इतिहास में, किसी को इस कानून के अंतर्गत सजा दिए जाने का पहला ही मामला है, या सदस्यता तत्काल खत्म करने के बाद, राहुल गांधी को आठ साल तक चुनाव लड़ने से भी रोक दिया जाएगा. और ऐसा हुआ, तो इसके नतीजे क्या होंगे, इन सब के स्पष्ट होने के लिए अभी इंतजार करना पड़ेगा.
लेकिन, इस पूरे प्रकरण का एक नतीजा तत्काल साफ-साफ दिखाई दे रहा है. कर्नाटक में एक चुनावी सभा में दिए गए भाषण के एक अंश के लिए, राहुल गांधी को दो साल की सजा सुनाए जाने को, उन्हें संसद से ही दूर करने की कोशिश के रूप में लेकर, इस फैसले का खुलकर सबसे पहले विरोध करने वालों में, एक आवाज आम आदमी पार्टी के सुप्रीमो अरविंद केजरीवाल की थी. और समाजवादी पार्टी के सुप्रीमो अखिलेश यादव ने भी कम-से-कम इस मामले में विपक्ष के साथ आवाज मिलाने में कमोबेश ऐसी ही तत्परता दिखाई है.
लेकिन, वह तो शुरुआत थी. इस सत्ता-प्रायोजित तानाशाहीपूर्ण मनमानी के खिलाफ देशभर में उठी नाराजगी की लहर के दबाव में भारत राष्ट्र समिति के शीर्ष नेता केसीआर ही नहीं, चुनावों के ताजा चक्र के बाद से कांग्रेस से बढ़कर राहुल गांधी के खिलाफ खासतौर पर हमलावर ममता बनर्जी और काफी किंतु-परंतु के साथ ही सही, बसपा सुप्रीमो मायावती ने भी विरोध की आवाज उठाई है. यहां तक कि सप्ताहांत के बाद सोमवार को संसद बैठने पर विपक्षी पार्टियों के सांसदों ने काले कपड़ों के साथ जो विरोध प्रदर्शन निकाला, उसमें बजट सत्र का उत्तरार्द्ध शुरू होने के बाद, पहली बार तृणमूल कांग्रेस और बीआरएस के सांसद भी शामिल हुए.
जाहिर है कि संसद में और संसद के बाहर भी, अडानी प्रकरण समेत मौजूदा निजाम के विरोध के मुद्दों पर अक्सर साथ दिखाई देने वाली 14-15 विपक्षी पार्टियां तो इस ''सजा'' को, विपक्ष की आवाज दबाने के लिए, मोदी निजाम के एक और हमले की ही तरह देखती ही हैं। बहरहाल, उनके अलावा ममता बनर्जी तथा केसीआर जैसे नेताओं का इस मुद्दे पर खुलकर विरोध की आवाज उठाना, इसलिए खास महत्व रखता है कि पूर्वोत्तर के तीन राज्यों में इसी फरवरी में हुए विधानसभाई चुनाव के नतीजों के बाद गुजरे हफ्तों में, इन पार्टियों के ही कदमों से और उससे बढ़कर उनके बयानों से, 2024 के आम चुनाव के लिए विपक्ष की एकजुटता के नामुमकिन होने के दावों को काफी बढ़ावा मिल रहा था. कांग्रेस तो खैर, आर-पार की लड़ाई का बिगुल फूंकने के मूड में नजर आ ही रही है.
जाहिर है कि यह ताजा घटना विकास, इसकी ओर इशारा करता है कि अगले आम चुनाव में विपक्ष की एकजुटता-विभाजन का मामला, जोड़-घटाव का सरल प्रश्न नहीं, रासायनिक क्रिया का कहीं जटिल मामला होने जा रहा है. ममता बनर्जी का ही नहीं, तेलंगाना के मुख्यमंत्री तथा बीआरएस सुप्रीमो चंद्रशेखर राव और ओडिशा के मुख्यमंत्री तथा बीजद सुप्रीमो नवीन पटनायक का भी आमतौर पर वर्तमान निजाम के खिलाफ विपक्ष के एकजुट कदमों से अलग-अलग हद तक दूरी बनाए रखना, विपक्षी एकता के सवाल की उस जटिलता में ही इजाफा करता है.
फिर भी इस प्रकरण से एक बात एकदम साफ है, जनतंत्र और विपक्ष मात्र के साथ मोदी राज का सलूक, अपने तमाम राजनीतिक-विचारधारात्मक मतभेदों और हितों के टकरावों के बावजूद, विपक्ष को ज्यादा-से-ज्यादा एक स्वर में बोलने की ओर ले जा रहा है. इसी का एक और साक्ष्य है 14 विपक्षी पार्टियों का सुप्रीम कोर्ट के सामने याचिका दायर कर, केंद्र सरकार द्वारा सीबीआई, ईडी आदि केंद्रीय जांच एजेंसियों का विपक्ष को कुचलने के लिए दुरूपयोग का आरोप लगाना. इस मामले में आम आदमी पार्टी और बीआरएस जैसी पार्टियां भी, कांग्रेस के साथ एक मंच पर खड़ी देखी जा सकती हैं.
ऐसा माना जा रहा है कि दिल्ली के उपमुख्यमंत्री, मनीष सिसोदिया की दो अलग-अलग मामलों में सीबीआई तथा ईडी द्वारा गिरफ्तारी और बीआरएस विधान परिषद सदस्य व चंद्रशेखर राव की पुत्री, सुश्री कविता से ईडी की लगातार जारी पूछताछ ने, इस मुद्दे पर विपक्ष की एकजुटता के दायरे को बढ़ाने का काम किया है.
लेकिन, 2024 के आम चुनाव के संदर्भ में विपक्षी एकता की चर्चा में अक्सर, खुद को संघ-भाजपा राज के विरोध में बताने वाली पार्टियों के कई मुद्दों पर अलग-अलग बोलने तथा अलग-अलग चुनाव लड़ने को तो दर्ज किया जाता है, लेकिन विपक्षी स्वरों की बढ़ती एकता की ओर से आंखें ही मूंद ली जाती हैं. बहरहाल, विपक्षी एकता की यह समझ अधूरी है और इसलिए भ्रामक भी. यह समझ विपक्षी एकता को, सत्ताधारी गठजोड़ से बाहर की सभी राजनीतिक पार्टियों के पूरी तरह से एक होकर, सत्ताधारी गठजोड़ के हरेक उम्मीदवार के खिलाफ विपक्ष का एक ही उम्मीदवार उतारने की हद तक एकता में घटा देती है.
जाहिर है कि भारत की वास्तविक राजनीतिक परिस्थितियों में, जिसमें क्षेत्रीय राजनीतिक विविधताएं बहुत ही महत्वपूर्ण हैं, यह एक असंभव-सी मांग है. और इसी मांग के पूरा न होने के आधार पर विपक्षी एकता होने, न होने को लेकर नकारात्मक फैसले सुनाना, सत्ताधारी गठबंधन की तथाकथित अजेयता के पक्ष में हवा बनाने में मदद तो कर सकता है, लेकिन भारतीय राजनीति की वास्तविक दशा-दिशा को समझने के लिए उससे कोई मदद नहीं मिल सकती है.
जाहिर है कि स्वतंत्र भारत की राजनीति का वास्तविक अनुभव, विपक्षी एकता की ऐसी परिभाषा से मेल नहीं खाता है. स्वतंत्रता के बाद के पहले 20 साल में, कांग्रेस की सत्ता पर लगभग इजारेदारी के अनेक राज्यों के टूटने की जब 1967 में शुरुआत हुई थी, कई राज्यों में गठबंधनों ने तथा कुछ राज्यों में क्षेत्रीय पार्टियों ने सत्ता संभाली थी. यह प्रक्रिया, इमरजेंसी के बाद, 1977 के आरंभ में हुए आम चुनाव में नई ऊंचाई पर पहुंची, जब पहली बार केंद्र में सत्ता से कांग्रेस पार्टी की विदाई हुई. वास्तव में इमरजेंसी का उदाहरण ही, भारत में संभव तथा इसलिए भारत के लिए वास्तविक, विपक्षी एकता की संकल्पना का ज्यादा उपयुक्त उदाहरण है.
इमरजेंसी के अनुभव के बाद, चंद अपवादों को छोड़कर, लगभग सभी गैर-कांग्रेसी पार्टियां, इमरजेंसी निजाम और उसके लिए जिम्मेदार कांग्रेस का विरोध करने पर एकमत थीं. लेकिन, यह एकता किसी भी प्रकार से, एक के मुकाबले एक उम्मीदवार की, मुकम्मल चुनावी एकता नहीं थी. इसके बावजूद, इस चुनाव में इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस को अभूतपूर्व हार का सामना करना पड़ा था. आगे चलकर, कांग्रेस के शासन के लगभग दो कार्यकालों के बाद, यही 1988 में, बोफोर्स प्रकरण पर केंद्रित भ्रष्टाचार के आरोपों की पृष्ठभूमि में हुए आम चुनाव में भी, कांग्रेस की हार के रूप में दोहराया गया था. और फिर, 2004 में बेशक काफी भिन्न संदर्भ में, सत्ताधारी भाजपाई गठजोड़ की हार के रूप में.
साफ है कि विपक्षी एकता या एकजुटता और विपक्ष का एक के मुकाबले एक उम्मीदवार का मुकाबला सुनिश्चित करने की हद तक एकजुट होना, काफी हद तक अलग-अलग चीजें हैं. वैसे भी एक के मुकाबले एक उम्मीदवार की हद तक विपक्षी एकता, एक ऐसे सत्ताधारी गठजोड़ को हराने की आवश्यक पूर्व-शर्त तो हर्गिज नहीं है, जिसे ऐतिहासिक रूप से अब तक वास्तव में 40 फीसद से ज्यादा वोट नहीं मिला है. फिर भी, दो चीजें हैं, जो सत्ताधारी गठजोड़ को चुनावी मुकाबले में हराने के लिए जरूरी हैं.
पहली, एक वृहत्तर राजनीतिक मुद्दा, को सिर्फ विपक्षी पार्टियों को ही नहीं, आम जनता के उल्लेखनीय रूप से बड़े हिस्सों को भी जोड़ सकता हो. 1977 में इमरजेंसी, तो 1988 में बोफोर्स व आमतौर पर भ्रष्टाचार, ऐसे ही मुद्दे थे. पुन: 2004 में शासन का बढ़ता सांप्रदायीकरण, खासतौर पर 2002 के गुजरात के खून-खराबे की पृष्ठभूमि में ऐसा ही मुद्दा था, जिसने भाजपाई गठजोड़ को, केंद्र में सत्ता से बाहर किया था. 2024 के चुनाव में मोदी राज की बढ़ती अघोषित तानाशाही और जनविरोधी कार्पोरेटपरस्ती, बखूबी ऐसा ही निर्णायक मुद्दा बन सकती है. राहुल गांधी की सदस्यता खत्म कराने के जरिए मौजूदा निजाम ने जाहिर है कि इस प्रक्रिया को और गति दे दी है.
लेकिन, इसका अर्थ यह हर्गिज नहीं है कि विपक्षी कतारों के चुनाव के पहले और चुनाव के लिए भी, एकजुट होने की कोई भी जरूरत या सार्थकता ही नहीं है. 1977, 1988 और 2004 तीनों चुनावों का अनुभव बताता है कि विपक्ष की मुकम्मल एकता भले संभव न हो और देश के एक अच्छे-खासे हिस्से में यानी कई राज्यों में केंद्र की सत्ताधारी पार्टी का असली मुकाबला, राज्य के स्तर पर मजबूत क्षेत्रीय पार्टियों से या उनके नेतृत्व वाले राज्यस्तरीय गठबंधनों/ मोर्चों से ही होने जा रहा हो
फिर भी विपक्ष की राजनीतिक निशाने की एकता के साथ ही साथ, चुनाव से पहले और चुनाव में भी, उसके एक हद तक एकजुट होने की भी जरूरत होती है, ताकि जनता के बीच आमतौर पर इसका भरोसा पैदा हो सके कि सत्ताधारियों को, हराने में समर्थ ताकतें सचमुच मौजूद हैं, कि उन्हें सचमुच हराया जा सकता है. मोदी राज के दुर्भाग्य से, उसकी तमाम तिकड़मों और हथकंडों के बावजूद, हालात उसे हराने की दोनों शर्तें पूरी होने की ओर ही बढ़ते नजर आते हैं. राहुल गांधी के खिलाफ नवीनतम कानूनी प्रहार ने इस प्रक्रिया को और भी तेज कर दिया है.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक पत्रिका "लोक लहर" के संपादक हैं.)
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