-जो छूट गया!
‘कभी जो ख़्वाब था वो पा लिया है
मगर जो खो गई वो चीज़ क्या थी.’- जावेद अख़्तर.
सपनों के पीछे दौड़ते-दौड़ते बहुत कुछ छूट जाता है. यह जो छूट गया है, खो गया है, वह अक्सर ही कई गुना कीमती होता है, उससे जो मिल गया. जिंदगी इस वक्त सबसे अधिक खतरनाक मोड़ पर है. इससे पहले भी खतरे आए होंगे, इसके बाद भी आएंगे. मगर न तब हम थे और ना आगे हम रहेंगे. इसलिए, इस वक्त अपनी आंखों को बंद करके उन चीज़ को याद कर लेना जरूरी है, जो कहीं छूट गईं. हमारे जीवन में 2021 का अप्रैल और मई का महीना सुनामी की तरह आया. अभी नहीं कह सकते कि खतरा पूरी तरह टला है. इतना शायद कहा जा सकता है कि हम खतरे के ठीक बीच में हैं.
मुझे याद है, जब बचपन में हम दादी के साथ यात्रा पर जाया करते थे तो नदी के ठीक बीच में वह कसकर हाथ पकड़ लेतीं. कहतीं, खतरा यहां ज्यादा है. हमें भी एकदूसरे के स्नेह और प्रेम का साथ गहरा कर देना है. हम लहरों के मध्य में हैं, खतरे के बीच में. जब हम नदी पार कर लेते तो वह नदी की और मुड़कर कृतज्ञता से उसका अभिवादन करतीं. अभी अभिवादन का वक्त नहीं है, अभी कस कर हाथ पकड़े रहने का वक्त है. जो छूट गए, लहरों में विलीन हो गए, उनके परिवार के साथ खड़े रहने का वक्त है.
इस समय बच्चों की मानसिक सेहत पर भी ध्यान देना जरूरी है. सारा ध्यान बड़ों पर है. ठीक ऐसे वक्त पर बच्चे अपने जीवन में आए बड़े बदलावों से कई बार अकेले जूझते दिखते हैं. माता-पिता यह मान ले रहे हैं कि लैपटॉप और मोबाइल पर पढ़ाई का इंतजाम कर देने से बच्चे सुखी हो गए हैं. बच्चों की ओर से मिलने वाली प्रतिक्रिया ऐसी नहीं है. बच्चे अपने दोस्तों, साथियों और शिक्षकों की कमी महसूस कर रहे हैं. सबके साथ और समूह की कमी बड़ों जितनी बच्चों को भी खल रही है.
बच्चों को जितना हो सके, ज़्यादा से ज्यादा चीज़ों से जोड़िए. हम जितनी अधिक चीज़ो से उन्हें परिचित कराएंगे, उनके लिए चुनाव करना उतना आसान होता जाएगा. बस बच्चों के चुनाव से हमें अपनी महत्वाकांक्षा और सपनों को पर्याप्त दूरी पर रखना है. हम अक्सर अपने अधूरे सपने बच्चों की ओर धकेलने की कोशिश करते हैं. बच्चों का जीवन उनका जीवन है, हमारा नहीं, यह बात हमें जितनी जल्दी समझ में आएगी, बच्चों का जीवन हम उतना बेहतर कर पाएंगे.
हमसे जो छूट गया, उसकी ओर हमें खुद लौटना होगा. बच्चों की आंखों में उनके अपने सपनों को सजने दें. दूसरे के बाग में अपने पौधे नहीं लगाया करते. बच्चों के मामले में माता-पिता की भूमिका उस नाविक की तरह होनी चाहिए, जो कभी यात्री को मझधार में नहीं छोड़ता. बस के ड्राइवर जान बचाने के लिए कभी-कभी यात्रियों को छोड़कर कूद जाया करते हैं. नाविक कभी ऐसा नहीं करते. इससे अधिक बच्चों पर अधिकार का भाव जीवन में संघर्ष को बढ़ाने के अतिरिक्त कुछ नहीं करेगा. अपने अधूरे सपनों की ओर हमें खुद लौटना चाहिए. जो छूट गया है, उसमें हमारे होने की खुशबू कहीं ज्यादा है. उस खुशबू की ओर चलिए. जीवन की ओर लौटिए. अपने उस प्रेम की ओर मुड़कर देखिए जो नौकरी की भागदौड़ में पीछे छूट गया. जो छूट गया निश्चित रूप से वह कीमती है. उसकी और बढ़ने से बच्चों के सपने में दखलंदाजी तेज़ी से कम होती जाएगी.
जीवन की शुभकामना सहित...
-दया शंकर मिश्र
(Disclaimer: लेखक देश के वरिष्ठ पत्रकार हैं. ये लेख डिप्रेशन और आत्महत्या के विरुद्ध लेखक की किताब 'जीवन संवाद' से लिया गया है.)
भिलाई की स्मृति नगर चौकी पर पथराव, पुलिस ने 14 लोगों पर दर्ज किया मामला
शबरी पार छत्तीसगढ़ दाखिल हो रहे नक्सली का एनकाउंटर, एक जवान भी घायल
Copyright © 2021 Newsbaji || Website Design by Ayodhya Webosoft