साझा सुख!
जीवन के आंगन में परिवार की जिम्मेदारी उठाने वाले अक्सर इस तरह की बातें सुनने को मिलती हैं- ‘बच्चों से अच्छे परिणाम की अपेक्षा करने में कोई बुराई नहीं. उन पर दवाब डाले बिना बात बनती नहीं. बच्चों को इस तरह केवल लापरवाह बनाया जा सकता है.’ मजेदार बात यह है कि इस तरह के वक्तव्य ऐसी नई पीढ़ी के माता-पिता की ओर से आ रहे हैं, जिनके ऊपर परिणाम की तलवार इस तरह नहीं लटकती थी. आज से बीस-पच्चीस साल पहले तक हमारी सामाजिक डोर और दुनिया दूसरे रंग की थी. अब यह दूसरे नजरिए में रंग चुकी है.
पहले अच्छे नंबर लाने वाले बच्चे को अधिक दुलार तो मिलता था लेकिन पीछे रहने वालों के लिए परिवार, समाज के दरवाजे़ इस तरह बंद नहीं दिखते थे. हमारे बीच उम्मीद और प्रेम कम हो रहा है. होड़ गहरी हुई है. एक दूसरे का साथ, हाथ कमजोर पड़ने से हम अकेले हुए हैं. दर्द साझा करने वाले सबको चाहिए. अगर अपने दर्द को हम ठीक नहीं करेंगे तो तय है कि उसे दूसरों को देंगे.
इस समय पूरी दुनिया में परवरिश को लेकर असमंजस है. परिवार में कलह बढ़ रही है. घर टूट रहे हैं, जिम्मेदारी उठाने का भाव कम हो रहा है. सुख अब अकेले का हो गया है, साझा वाला कहीं खो गया. पहले हम अपनों के विवेक, दूसरों के दिखाए रास्ते पर चलते थे लेकिन अब हम बाजा़र के रास्ते चलते हैं. बच्चों और माता-पिता के बीच सबसे अधिक तनाव इसी बात को लेकर है कि उनको कौन से रास्ते जाना है. टी20 क्रिकेट के जमाने में सबकुछ तेजी से और जल्दी निपटाने की जीवनशैली से गुणवत्ता और मूल्यों से दूर निकलते जा रहे हैं. अब सब अभी और किसी भी कीमत पर चाहिए. जब सब ओर यही विचार दोहराए जा रहे हों तो यह कैसे संभव है कि बच्चे इससे अप्रभावित रहें.
बड़े, बच्चों के कैनवास में अपने सपने पूरे करना चाहते हैं. बच्चों को आसमां में उड़ने की आजादी उनके पंख बांधकर नहीं दी जा सकती. यहीं से बच्चों और परिवार में तनाव, संघर्ष की शुरुआत होती है.
परवरिश और परिवार के प्रश्नों को सुलझाने में अहम भूमिका निभा रहे मनोवैज्ञानिक जोशुआ कोलमैन एक दंपति का जवाब बताते हैं, आप भावनात्मक दुर्व्यवहार की बात कर रहे हैं? हम तो अपने बच्चे को सबकुछ देते हैं. उसे छुट्टियों पर ले गए हैं, उसके साथ हर तरह का पूरा समय बिताते हैं. हमारी कोई गलती नहीं.’
कोलमैन इसे स्पष्ट करते हुए कहते हैं, इस गलतफहमी का एक कारण यह सच भी है कि हम सभी अपनी खुद की वास्तविकताएं बना लेते हैं. लेकिन समस्या यह है कि दुर्व्यवहार क्या होता है, इसे लेकर पीढ़ी दर पीढ़ी बदलाव आया है. एक पीढ़ी को जो सामान्य पैरेटिंग लगती है, उसे ही दूसरी पीढ़ी दुर्व्यवहारपूर्ण और मनमानीपूर्ण समझती है. बड़ी संख्या में बच्चे महूसस करते हैं कि उन्हें दुर्व्यवहारपूर्ण बचपन की विरासत के साथ ही जीना होगा. वहीं माता-पिता सोचते हैं कि उन्हें उस व्यक्ति ने नकार दिया जिसे वे सबसे ज्यादा प्यार करते हैं, यानी खुद उनके बच्चे ने. दोनों तरफ गुस्सा, दुःख और अवसाद बढ़ता है.
इसकी मिसाल हमारे महानगरों से होते हुए छोटे शहरों में भी दिख रही है. बच्चे नौकरी लगते ही दूसरे शहरों की ओर भागते हैं. जिससे वह अपनी जिंदगी जी सकें. शादी के बाद अधिकांश युवा दंपति अकेले रहने और जिम्मेदारी से दूर रहने वाला जीवन चुन रहे हैं. इससे माता-पिता अकेले पड़ रहे हैं.
इसे निजी संस्कृति नाम दिया जा रहा है. इसमें परिवार चलाने का तरीका बदल गया. कोलमैन कहते हैं, अब इसकी शुरुआत दो लोगों की इच्छापूर्ति से हो रही है. जबकि पहले इसे आपसी सहमति से दायित्व, जिम्मेदारी पालन के रूप में देखा जाता था लेकिन अब इसे अक्सर इच्छाओं की पूर्ति के माध्यम की तरह देखा जाता है. यानी अपनी इच्छाओं को पहले रखना. बच्चों को होशियार बनाने और ज्यादा दबाव वाली सोच भी परिवार में तनाव का बड़ा मुद्दा है. खासतौर पर ज्यादा शिक्षित माता-पिता बच्चों पर जरूरत से ज्यादा समय और प्रयास निवेश कर रहे हैं जबकि बच्चों को लगता है कि उन्हें खुद अपनी जिंदगी जीने का फैसला करना चाहिए.
दादी कहती थीं, परिवार का सबसे बड़ा सूत्रधार साझे सुख का भाव है. एक दूसरे से राजी न होकर भी उसके सुख की परवाह करना, उसमें शामिल होना ही परिवार को बचाए रखने का सबसे आसान तरीका है. बच्चों को पतंग सरीखे पालें, उड़ने दें, अपनी मौज में रहने दें. डोर अपने हाथ में रखें. ढील देते रहें, हवा का रुख बदले तो ध्यान दें, कोई जबरन लड़ने आए तो बचाव करें और अगर सबकुछ अनुकूल है तो पतंग को दूर तक उड़ने दें.
जीवन की शुभकामना सहित...
-दया शंकर मिश्र
(Disclaimer: लेखक देश के वरिष्ठ पत्रकार हैं. ये लेख डिप्रेशन और आत्महत्या के विरुद्ध लेखक की किताब 'जीवन संवाद' से लिया गया है.)
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