(आलेख: राजेंद्र शर्मा)
हैरानी की बात नहीं है कि एक्जिट पोल के बाद, शेयर बाजार ने भी नरेंद्र मोदी के तीसरी बार प्रधानमंत्री बनने के पक्ष में, दोनों हाथों से मतदान किया था. आखिरी चरण के मतदान की शाम ही, एक्जिट पोलों ने करीब एक राय से मोदी का पुन: राज्याभिषेक कर दिया था. और उसके तीन दिन बाद, छुट्टटी के बाद शेयर बाजार एक जबर्दस्त धमाके के साथ खुला. लेकिन, एक्जिट पोलों में मोदी को लगभग चार सौ पार करा दिए जाने पर शेयर बाजार खुशी से उछल नहीं पड़ा होता, तो ही हैरानी की बात होती. आखिरकार, मोदी राज ने अपने दस साल में शेयर बाजार को खुश करने में अपनी ओर से तो कोई कसर छोड़ी नहीं है.
उसने एक ओर तो शेयर बाजार के असली खिलाड़ियों यानी कारपोरेटों के हाथ मजबूत करने के लिए, नोटबंदी तथा जीएसटी के हमलों के जरिए, छोटे या अनौपचारिक क्षेत्र को कमजोर करने तथा उसकी कीमत पर औपचारिक क्षेत्र को मजबूत करने का काम किया है. और दूसरी ओर, कॉरपोरेट करों में कमी कर के सीधे-सीधे कारपोरेटों की तिजोरियां भरने का काम किया है. और यह सब मोदी राज में दरबारी पूंजीवाद को फलने-फूलने के लिए आम तौर पर खुला तथा सुरक्षित मैदान मुहैया कराए जाने के ऊपर से है.
वास्तव में पिछले दस साल में मोदी राज और कारपोरेट पूंजी का जैसा अटूट और आक्रामक गठजोड़ देखने को मिला है, उसका और भी सघन प्रदर्शन इस बार के लोकसभा चुनाव के लंबे प्रचार अभियान के दौरान हो रहा था. यह कोई संयोग ही नहीं था कि विपक्षी गठबंधन द्वारा अपने प्रचार के दौरान, जिसमें कांग्रेस तथा कमयुनिस्ट पार्टियों समेत विपक्षी गठबंधन के चुनाव घोषणापत्र भी शामिल थे, मोदी राज में असमानता में पहले कभी के मुकाबले ज्यादा तेजी से बढ़ोतरी होने के सवाल उठाए गए थे.
और विपक्ष द्वारा दस वर्षों में कारपोरेटों के 16 लाख करोड़ रुपए से ज्यादा के ऋण माफ किए जाने, जबकि आम किसानों के ऋण माफ करने से इंकार ही कर दिए जाने के भी सवाल उठाए गए थे, जिन सब का जवाब, मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने, ध्यान बंटाने की तिकड़मों का सहारा लेते हुए भी, बड़े हमलावर अंदाज में देने की कोशिश की थी.
असमानता में बढ़ोतरी के सवाल का सीधे जवाब देने या खंडन ही करने के बजाय, मोदी की भाजपा ने इस तरह के सारे सवालों को ही संपत्ति पर हमला बना देने की कोशिश की. इसके लिए, कांग्रेस के घोषणापत्र में जातिगत जनगणना के पूरक के रूप में आर्थिक स्थिति का सर्वे कराने की जो बात कही गयी थी, उसे पूरी तरह से सिर के बल खड़ा करते हुए, आम लोगों की संपत्ति पर हमले में ही तब्दील कर दिया गया. और वैचारिक सुविधा के लिए इसे वामपंथ के साथ जोड़ते हुए, कांग्रेस के घोषणापत्र को एक ओर मुस्लिम लीग और दूसरी ओर अर्बन नक्सल के विचारों से संचालित करार दे दिया गया.
साधारण लोगों की संपत्ति पर विपक्ष के हमले का सरासर ऊटपटांग हौवा खड़ा करते हुए और इस थीम को लगातार आगे बढ़ाते हुए, खुद प्रधानमंत्री मोदी ने गरीबों की आर्थिक स्थिति के सर्वे को, जाहिर है कि सोची-समझी तोड़-मरोड़ में, मंगलसूत्र पर हमले, घर के सोने तथा जमापूंजी की जांच व जब्ती, दो घर हों तो एक घर की और घर में चार कमरे हों, तो दो कमरों की जब्ती तक पहुंचा दिया. चुनाव प्रचार के आखिर तक आते-आते तो यह सिलसिला विपक्षी सरकार आ गयी, तो पानी के नल की टोंटी ले जाएंगे, घर की चाभी छीन लेंगे, बिजली वापस कटवा देंगे आदि तक पहुंच गयी. इस सब का मकसद, अपने कारपोरेट तथा धन्नासेठ चाहने वालों को इसकी याद दिलाना भी था कि उनकी सबसे बड़ी हितैषी, मोदी की भाजपा ही है.
लेकिन, कारपोरेटों के स्वार्थों की रक्षा का भरोसा, सिर्फ कारपोरेटों के स्वार्थों की रक्षा करने के भरोसे से नहीं दिलाया जा सकता था. उसके लिए तो, मोदी राज जिस कारपोरेट-सांप्रदायिक गठजोड़ का प्रतिनिधित्व करता है, उसके दूसरे जोड़ीदार का भी खेल के मैदान में उतरना जरूरी था. आखिरकार, आम जनता को तो उसी के जरिए भ्रमित किया जाना था. इसलिए, एक्स रे करा के छीन लेंगे, झपट लेंगे के साथ, मुसलमानों को बांट देंगे का झूठ जोड़ दिया गया. इस तरह, इस चुनाव का मोदी की भाजपा के प्रचार का असली हथियार तैयार हो गया, जिसे कम से कम पहले चक्र के मतदान के बाद से लगाकर, आखिरी चरण तक और वास्तव में इस प्रचार अभियान के प्रधानमंत्री के पंजाब के आखिरी भाषण तक, लगातार इस्तेमाल किया जाता रहा था.
बेशक, इस लंबे चुनाव अभियान के दौरान इस हथियार में जरूरत के मुताबिक थोड़ी-बहुत तब्दीलियां भी की गयीं. मिसाल के तौर पर एक तब्दीली तो यही की गयी कि इसकी शुरूआत में नाम लेकर मुसलमानों को बांट देंगे का आरोप लगाने के बाद, प्रधानमंत्री मोदी ने संभवत: चुनाव आयोग को अति से अधिक शर्मिंदा नहीं करने के विचार से, अपने मुंह से मुसलमान शब्द तो बोलना बंद कर दिया, लेकिन जेहादी, वोट जेहादी, जेहादी वोट बैंक, तुष्टीकरण वाला वोट बैंक आदि, तरह-तरह के शब्दों का प्रयोग कर, अपने श्रोताओं के लिए इसमें किसी संदेह की गुंजाइश भी नहीं छोड़ी की उनका आशय, हिंदुओं से छीनकर मुसलमानों को दिए जाने से है. हां! आदिवासी बहुल इलाकों मेें इस हमले का विस्तार कर, ईसाइयों को भी इस दायरे में समेट लिया गया.
इन तकनीकी तब्दीलियों से भिन्न, जो खासतौर पर जनप्रतिनिधित्व कानून के उल्लंघन से तकनीकी तरीके से बचने की कोशिश में की गयी थीं, एक बड़ी तब्दीली यह की गयी कि चूंकि आम तौर पर संपत्ति छीनकर मुसलमानों में बांट दिए जाने का प्रचार, गरीबों के विशाल हिस्से के बीच, जिनके पास खोने के लिए संपत्ति के नाम पर कुछ खास था ही नहीं, खास उत्तेजना पैदा नहीं कर पा रहा था, इसे जल्द ही आरक्षण का अधिकार छीनकर बांट देंगे कर दिया गया.
यह मोदी की भाजपा की नजर में एक साथ दो काम करता था — मुसलमानों को निशाना बनाए रखकर हिंदुओं का ध्रुवीकरण करने का काम और सामाजिक न्याय के विपक्ष के मुद्दे को भोंथरा करने का भी काम. इसलिए, जल्द ही मंगलसूत्र आदि छीन लेंगे के समांतर, आरक्षण छीन लेंगे और मुसलमानों को दे देंगे की थीम का इस्तेमाल शुरू कर दिया गया.
इस चुनाव प्रचार के दौरान ही, ओवरसीज कांग्रेस के नेता रहे सैम पित्रोदा के अमरीका में कई राज्यों में विरासत कर लगा होने के उल्लेख का, मोदी ने विपक्षी गठबंधन के संपत्तियां छीन लेने के अपने झूठे प्रचार के लिए जमकर दोहन किया. लेकिन, पित्रोदा का बयान बाद में भले ही उनके लिए आसान बहाना बन गया हो, संपत्तियां छीन लेंगे का झूठा तथा निराधार प्रचार, खासतौर पर कांग्रेस के घोषणापत्र के जवाब में इससे पहले ही शुरू किया जा चुका था.
विरासत कर के मुद्दे पर मोदी की भाजपा के हमलावर रुख ने, उसकी कारपोरेटपरस्ती को और भी बेनकाब कर दिया, क्योंकि किसी से छुपा हुआ नहीं था कि विरासत कर हर जगह, विरसे में बहुत ज्यादा संपत्ति मिलने के मामलों में ही लागू होता है और इस तरह इस कर का आक्रामक तरीके से विरोध करने वाले, वास्तव में उंगलियों पर गिने जा सकने लायक धनपतियों के स्वार्थ के लिए, बढ़ती असमानता को ही बनाए रखने की कोशिश कर रहे थे.
इस बार के असामान्य रूप से लंबे प्रचार अभियान के दौरान प्रधानमंत्री मोदी ने, अपने राज की दरबारी पूंजीपतिपरस्ती के आरोपों का हमला कर के जवाब देने की कोशिश में, तेलंगाना में एक सभा में प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस पर ही यह आरोप जड़ दिया था कि उसे अडानी-अंबानी से टैंपो में भर-भर कर काला धन मिला था! इस दावे का सरासर बेतुकापन अपनी जगह, विपक्ष पर हमला करने की कोशिश में, उन्होंने जिस तरह अपने शीर्ष दरबारी कारपोरेट घरानों पर कालिख लगा दी थी, उससे मोदी भी एक बार को तो कांप ही गए होंगे.
तभी तो पूरे चुनाव प्रचार के दौरान दोबारा उन्होंने विपक्ष पर प्रचार के लिए, इस हथियार का सहारा लेने की गलती नहीं की. उल्टे जैसे अपने प्रिय कारपारेट मित्रों की नाराजगी दूर करने के लिए भी, प्रधानमंत्री मोदी ने इंडिया टुडे परिवार के साथ एक साक्षात्कार में, बढ़ती असमानता पर एक शाकाहारी से सवाल के जवाब में मजाक उड़ाने की मुद्रा में पूछा था- सब को गरीब बना देना चाहिए क्या?
नरेंद्र मोदी और उनकी भाजपा जिस नवउदारवादी पूंजीवादी व्यवस्था को देश में चला रहे हैं, वह अपने चरित्र में ही असमानता बढ़ाने वाली व्यवस्था है. बहरहाल, इस व्यवस्था के दायरे में, असमानता पर अंकुश लगाने के प्रयास की जो गुंजाइश थी भी, उसके लिए भी मोदी राज ने दरवाजे बंद कर दिए हैं. उसके लिए विकास के लिए सरकार को सिर्फ और सिर्फ एक काम करना है — कारपोरेेटों को प्रोत्साहन देना. विकास कारपोरेटों को ही करना है. और कारपोरेटों को प्रोत्साहन देने में, सस्ते से सस्ता, ज्यादा से ज्यादा अरक्षित श्रम मुहैया कराना भी शामिल है. महंगाई, बेरोजगारी, कृषि तथा लघु उत्पादन क्षेत्र की बर्बादी आदि सब यही सुनिश्चित करने के साधन हैं.
मोदी राज बहुत ही वफादारी से कारपोरेटों के हित में और मेहनत-मजदूरी से गुजारा करने वालों के खिलाफ काम कर रहा है. कारपोरेटों ने भी उसे लगभग पूरी तरह से एकजुट समर्थन देकर इसका प्रतिदान दिया है. इलैक्टोरल बांड तथा अन्य कारपोरेट चंदे के भाजपा की टंकी में खुले पतनाले इसका सबूत हैं. स्वाभाविक रूप से चुनाव के बीच भी मोदी की भाजपा ने कारपोरेटों के हितों की रक्षा के लिए पूरी मुस्तैदी दिखाई है. कारपोरेटों की ओर से भी इसका प्रतिदान, आम तौर पर गोदी मीडिया के पूर्ण समर्पण, तत्काल एक्जिट पोल के तमाशे और अब शेयर बाजार में खुशी के ज्वार के रूप में सामने आया है.
देश और जनता को इस कारपोरेट दुश्चक्र से निकलने के लिए बहुत कठिन लड़ाई की जरूरत होगी. कांग्रेस से उठे रैडीकल सुरों से कुछ आशा तो जगती है, मगर ये सुर क्या नवउदारवादी पूंजीवाद के तर्क को चुनौती देने तक जा सकते हैं, यह कहना मुश्किल है. दूसरी ओर, नरेंद्र मोदी ने कन्याकुमारी की अपनी कथित ध्यान साधना के बाद देश के नाम अपनी संदेशनुमा लंबी चिट्ठी से साफ इशारा कर दिया है कि उनका राज कायम रहा तो सुधार यानी उनके और उनके कारपोरेट मित्रों के रास्ते में आने वालों की खैर नहीं.
कन्याकुमारी में ध्यान से निकले मोदी के ज्ञान का व्यावहारिक निचोड़ है- हमें समाज को पेशेवर निराशावादियों के दबाव से मुक्त कराना होगा! यानी तीसरा कार्यकाल मिला तो आलोचक-मुक्त भारत! चुनाव के नतीजे संघ-भाजपा-मोदी की इन्हीं नीतियों और हिन्दुत्व-कॉरपोरेट गठजोड़ के खिलाफ निर्णायक जनादेश है.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक पत्रिका 'लोकलहर' के संपादक हैं.)
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