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चलो बुलावा आया है, जरा बाद में बुलाया है!

 Newsbaji  |  Jan 14, 2024 11:36 AM  | 
Last Updated : Jan 14, 2024 11:36 AM
मंदिर प्राण-प्रतिष्ठा के लिए आमंत्रण भेजा जा रहा है.
मंदिर प्राण-प्रतिष्ठा के लिए आमंत्रण भेजा जा रहा है.

(व्यंग्य: राजेंद्र शर्मा)
भाई ये तो अति ही हो रही है. जाने वालों का शोर तो समझ में आता है. खुशी का मौका है. खुशी भी मामूली नहीं, कभी-कभी ही आने वाली. सुना है कि रामलला आ रहे हैं. जाने वाले उनका स्वागत करने जा रहे हैं. दर्जनों निजी विमानों से और सैकड़ों चार्टर्ड उड़ानों से जा रहे हैं. बाद-बाकी के गाड़ियों वगैरह से पहुंच रहे हैं. न्यौता पाकर पहुंचने वालों का शोर मचाना तो बनता है. वैसे कुछ शोर मचाना उनका भी बनता है, जिनको न्यौता तो मिला है, पर फिलहाल नहीं आने के अनुरोध के साथ. जैसे पहले आडवाणी जी को, जोशी जी वगैरह को मिला था; उनकी उम्र का ख्याल करते हुए. जाना बाद में है, फिर भी अभी खुशी मनाने का न्यौता है. शोर करना उनका भी बनता है. यहां तक कि यूपी में जहां मस्जिदों वगैरह से लाउडस्पीकर उतरवा दिए गए, गली-मोहल्लों में, बाजारों में, गाडिय़ों में, म्यूजिक सिस्टम पर रामधुन, भजन वगैरह बजाना भी बनता है. सिर्फ बनता नहीं है, कंपल्सरी है. पर ये न जाने वालों का शोर! ये तो कोई बात नहीं हुई.

सबसे पहले कम्युनिस्टों ने कहा और दबे-छुपे नहीं, ढोल पीटकर कहा कि अयोध्या नहीं जा रहे. मोदी जी उद्घाटन करेंगे, हम क्यों जाने लगे, हम अयोध्या नहीं जाएंगे. फिर क्या था, खरबूजे को देखकर दूसरे खरबूजों ने भी रंग बदलना शुरू कर दिया. कांग्रेस वालों ने भी कह दिया कि अयोध्या में जो मोदी जी कर रहे हैं, वह धार्मिक आयोजन तो है नहीं; खालिस राजनीतिक, बल्कि चुनावी खेला है. हम क्यों जाएं मोदी जी का खेला देखने. हम मोदी जी का चुनावी खेला देखने नहीं जाएंगे. दिल करेगा तो दर्शन के लिए पहले चले जाएंगे या बाद में कभी चले जाएंगे, पर इनके बुलावे पर नहीं जाएंगे.

हद्द तो यह कि अब शंकराचार्यों ने भी यह बायकॉट गैंग जाॅइन कर लिया है. चार के चार शंकराचार्य कह रहे हैं और बाकायदा बयान देकर कह रहे हैं कि मोदी जी वाले उद्घाटन में नहीं जा रहे हैं. अरे नहीं जाना है, तो मत जाओ. नहीं जाने का शोर मचाने की क्या जरूरत है? पर भाई लोग तो उद्घाटन को ही गलत बता रहे हैं. कह रहे हैं कि उद्घाटन चुनाव के हिसाब से ठीक होगा तो होगा, पर धार्मिक विधि-विधान के हिसाब से ठीक नहीं है.

नहीं जाने का शोर मचाने तक तो फिर भी भक्तों ने बर्दाश्त कर लिया, पर शंकराचार्यों का धार्मिक विधि-विधान में खोट निकालना बर्दाश्त नहीं किया जा सकता. आखिरकार, शंकराचार्य होते कौन हैं, विधि-विधान की बात करने वाले. इन्हें हिंदू विधि-विधान का पता ही क्या है? चंपत राय जी ने साफ कह दिया है, शंकराचार्य तो शैव मत वाले हैं. उसी से मतलब रखें. वे क्या जानें रामानंदी संप्रदाय के विधि-विधान? रामानंदी संप्रदाय के मंदिर के लिए, प्रधानमंत्री के हाथों उद्घाटन विशेष रूप से शुभ माना जाता है. आखिर, प्रधानमंत्री पहले के जमाने का राजा ही तो है. और पहले जमाने का राजा, ईश्वर का अवतार ही तो होता था. यानी अवतारी प्रधानमंत्री, विष्णु के दूसरे अवतार के मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा करे, इससे दिव्य संयोग दूसरा क्या होगा?

फिर भी अगर विधि-विधान में कोई कोर-कसर रह गयी हो, तो उसे पूरा करने के लिए मोदी जी ने ग्यारह दिन की पार्ट टाइम तपस्या भी तो शुरू कर दी है. नासिक से शुरू की तपस्या पर जब अयोध्या में विराम लगाएंगे, तब तक मोदी जी कम-से-कम इतने अवतारी तो हो ही जाएंगे कि शंकराचार्यों की सारी शंकाएं खुद ब खुद निर्मूल हो जाएं.

और शंकराचार्यों की यह आशंका तो वैसे भी एकदम ही फालतू है कि मंदिर पूरा बना नहीं, फिर उसमें रामलला का गृह प्रवेश क्यों? अधूरे मंदिर में प्रवेश कराने की जल्दी क्यों? ये शंकराचार्य कब समझेंगे कि यह मोदी जी का नया इंडिया है, बल्कि अमृतकाल वाला भारत है. नया भारत और कुछ भी बर्दाश्त कर लेगा, पर लेट लतीफी बर्दाश्त नहीं सकता. मंदिर बन जाएगा, फिर गृह प्रवेश हो जाएगा, यह भविष्यवाचकता मोदी जी के राज में नहीं चलती.

यहां टालमटोल नहीं, बिफोर टाइम का नियम है. मंदिर का जो उद्घाटन, राम नवमी पर हो सकता है, वह जनवरी में ही क्यों नहीं कराया जा सकता? जो उद्घाटन, दो साल में मंदिर पूरा होने के बाद हो सकता है, अभी क्यों नहीं हो सकता? कबीरदास ने क्या कहा नहीं है - काल्ह करे सो आज कर, आज करे सो अब, पल में परलय होइगी, बहुरि करैगो कब! कल का काम आज और आज का अभी; यही तो मोदी जी का जीवन-सूत्र है. चुनाव वाली प्रलय आए न आए, मोदी जी उद्घाटन का मौका उस प्रलय की कृपा के भरोसे नहीं छोड़ सकते हैं.

आखिर में, उनकी बात जिनकी धार्मिक भावनाएं पोस्टर पर मोदी जी के लिए ‘‘जो लाए हैं राम को’’ कहने से आहत होती हैं; जिनकी आस्थाएं मोदी जी के राम को उंगली पकड़ाकर लाने से आहत होती हैं. वे शोर मचाने के बजाए, अपनी धार्मिक भावनाएं मजबूत करने पर ध्यान दें, भावनाओं की वर्जिश-मालिश करें, तो बेहतर है. वर्ना इतना इंतजाम तो हो ही चुका है कि मोदी जी तीसरी बार नहीं भी चुने गए तब भी, उनकी भावनाएं तो रोज-रोज आहत ही होती रहेंगी.

वैसे भी मोदी जी के राम को लाने में इन्हें प्राब्लम क्या है? अब प्लीज ऐसी तकनीकी दलीलें न ही दें, तो अच्छा है कि राम जी कहां चले गए थे, जो उन्हें लाया जाएगा, वगैरह. तम्बू में पड़े हुए थे कि नहीं; बस मोदी जी वहीं से ला रहे हैं, पक्के घर में. वैसे राम जी कहीं चले भी गए होते, तब भी मोदी जी उन्हें जरूर ले आते, आखिरकार एक सौ पैंतीस करोड़ के चुने हुए प्रधानमंत्री हैं.

रही उंगली पकड़ाकर लाने की बात, तो फिलहाल तो मामला रामलला को लाने का है और बच्चे को तो भारतीय संस्कृति में उंगली पकड़ाकर ही लाया जाता है. जरा यह भी सोचिए कि मोदी जी, गोदी में लाते हुए कैसे लगते! फिर पोस्टर में रामलला उंगली पकड़े तो दीखते हैं, मोदी जी की उंगली पकड़े ही दीखते हैं, पर इसका पता नहीं चलता है कि उंगली पकड़ी गयी है या पकड़ायी गयी है? भगवान हैं, क्या अपनी मर्जी से भक्त की उंगली भी नहीं पकड़ सकते हैं. हां! भक्त भी तो मोदी जी जैसा मिलना चाहिए.

अब तो आडवाणी जी ने भी कह दिया कि मोदी जी की उंगली पकड़ने के लिए भगवान ने तो मोदी जी को तभी चुन लिया था, जब उन्होंने मोदी जी को अपने राम रथ का सारथी बनाया था. चौंतीस साल बाद भगवान ने देखा, तो उंगली को झट से पहचान लिया और कसकर पकड़ लिया -- घर ले चलने के लिए. रामलला को भी पता है कि उन्हें तीनों लोकों में मोदी जी से उपयुक्त उद्घाटनकर्ता दूसरा नहीं मिलेगा.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक 'लोकलहर' के संपादक हैं.)

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