(आलेख: राजेंद्र शर्मा)
अयोध्या में 22 जनवरी को होने जा रहे राम मंदिर के उद्घाटन को, जिसे तकनीकी रूप में प्राण प्रतिष्ठा आयोजन कहा जा रहा है, एक खुल्लमखुल्ला राजनीतिक और उसमें भी चुनावी ईवेंट बना दिया गया है. यह सब इतनी अशोभन नंगई से हो रहा है कि चार-चार पीठों के शंकराचार्यों ने खुलकर इसके खिलाफ आवाज उठाना और इस ईवेंट के बहिष्कार की घोषणा करना जरूरी समझा है. बेशक, उनके इस फैसले के कारण अलग-अलग हैं. इनमें, अभी अधबने मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा के औचित्य से लेकर, इस आयोजन के समय तक पर आपत्तियां शामिल हैं.
लेकिन, उनकी आपत्तियों में एक केंद्रीय तत्व, इस आयोजन के संघ-भाजपा द्वारा खुल्लमखुल्ला राजनीतिक-चुनावी इस्तेमाल का है. जाहिर है कि इसके साथ, हिंदू धार्मिक परंपरा में सर्वोच्च पद का दावा करने वाले शंकराचार्यों की इसकी चिंता भी शामिल है कि कथित प्राण प्रतिष्ठा समारोह के केंद्र में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को बैठा दिया गया है, जिसे वे एक धार्मिक आयोजन में अपने सर्वोच्च स्थान के अपहरण की तरह देखते हैं.
बेशक, शंकराचार्यों के इस बहिष्कार से 22 जनवरी के प्रस्तावित ईवेंट की चमक-दमक पर शायद ही कोई फर्क पड़ेगा. इसकी वजह यह है कि अव्वल तो हिंदू धार्मिक परंपरा का जितना ज्यादा फैलाव है, उसमें उतनी ही ज्यादा विविधता है. इसका एक नतीजा यह भी है कि सर्वोच्चता के अपने-अपने दावों के बावजूद, शंकराचार्यों की भी ऐसी खास सर्वस्वीकृत सत्ता नहीं है, जैसी कि मिसाल के तौर पर ईसाई परंपरा में पोप की मानी जाती है. दूसरे, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके राजनीतिक बाजुओं ने, हिंदू धर्म की अपनी राजनीति को आगे बढ़ाने के लिए, विश्व हिंदू परिषद, बजरंग दल आदि-आदि के जरिए ही नहीं, संतों-महंतों के बीच अपने समर्थक समूह खड़े करने के जरिए भी.
और खासतौर पर अयोध्या के मंदिर-मस्जिद विवाद के जोर पकड़ने के लिए साथ-साथ, परंपरागत हिंदू धार्मिक परंपरा को और कमजोर किया है तथा बहुत हद तक अपनी राजनीतिक-धार्मिक परंपरा से प्रतिस्थापित कर दिया है. इसी का नतीजा, यह कथित प्राण प्रतिष्ठा ईवेंट है, जिसके केंद्र में नरेंद्र मोदी और उनके अगल-बगल मोहन भागवत और योगी आदित्यनाथ होंगे. कुल पांच में से तीन, राजनीतिक नेता और वह भी सांप्रदायिक ब्रांड की राजनीति के नेता.
हैरानी की बात नहीं है कि इस राजनीतिक-धार्मिक ईवेंट का दोहन, सिर्फ इसी तक सीमित नहीं रहने दिया गया है कि धर्मनिरपेक्ष राज्य के प्रधानमंत्री पद की मर्यादाओं को पूरी तरह से तार-तार करते हुए, प्रधानमंत्री मोदी इस कर्मकांड के मुख्य होता ही नहीं बन बैठे हैं, बल्कि बड़ी दीदा-दिलेरी से सत्ताधारी पार्टी के प्रचार में उन्हें ‘‘उंगली पकड़कर रामलला को लाते’’ हुए दिखाया भी जा रहा है. और किसी गफलत की गुंजाइश न छोड़ते हुए, यह साफ-साफ चुनावी नारा भी लगाया जा रहा है.
यह कि ‘जो राम को लाए हैं, हम उनको लाएंगे!’ मकसद एकदम साफ है. नरेंद्र मोदी और उनकी पार्टी की ‘राम मंदिर बनाने वालों’ की छवि बनानी है, ताकि आने वाले चुनाव में उसे खासतौर पर भुनाया जा सके. इस मकसद के सामने, इस तरह के तथ्यों के लिए कोई जगह ही नहीं है कि अयोध्या में मंदिर, अंतत: सुप्रीम कोर्ट के फैसले के आधार पर बना है और सुप्रीम कोर्ट द्वारा ही निर्देशित कमेटी द्वारा उसे बनाया गया है, न कि किसी सरकार द्वारा, जिसमें मोदी सरकार भी शामिल है.
लेकिन, इस राजनीतिक-चुनावी उद्देश्य की पूर्ति के लिए मोदी और संघ-भाजपा की ‘राम मंदिर बनाने वाले’ की छवि गढ़ना भी काफी नहीं है. इसके लिए, आम तौर पर इस मंदिर के बनने और खासतौर पर इसके उद्घाटन की ईवेंट का अधिकतम प्रचार करना भी उतना ही जरूरी है. और यही प्रचार, शासन पर ही नहीं, मीडिया पर भी अपने लगभग मुकम्मल नियंत्रण के सहारे तो संघ-भाजपा द्वारा किया ही जा रहा है, इसके साथ ही धार्मिक भावनाओं को भुनाने में अपनी सारी संगठित ताकत झोंकने के जरिए भी किया जा रहा है. जनवरी की शुरुआत से संघ-भाजपा ने बाकायदा राम मंदिर के नाम पर मुहिम का अपना कलैंडर ही जारी नहीं कर दिया है, इसमें देश भर में सभी हिंदू मंदिरों को लपेटने और ज्यादा-से-ज्यादा हिंदुओं को समेटने का भी इंतजाम कर दिया है.
कोरोना के दौरान मोदी जी द्वारा लोगों को बार-बार दिए गए टास्कों से इशारा लेकर, सभी ‘‘हिंदू मंदिरों’’, ‘‘हिंदू परिवारों’’ के लिए, 22 जनवरी के लिए और उससे पहले के लिए टास्क तय कर दिए गए हैं. और सभी हिंदुओं के लिए ‘एक बार अयोध्या की तीर्थ यात्रा’ करने का टास्क प्रचारित किया जा रहा है, वह ऊपर से. इस आखिरी टास्क के लिए, न सिर्फ भाजपायी सरकारों को लगा दिया गया है, जो अपने तीर्थयात्रा कार्यक्रम के हिस्से के तौर पर, लोगों को अयोध्या तीर्थ कराने के लिए ट्रेनों, बसों आदि की बुकिंग करने में होड़ कर रही हैं, बल्कि गैर-भाजपायी सरकारें भी इसका भारी दबाव महसूस कर रही हैं. मिसाल के तौर पर आम आदमी पार्टी की दिल्ली सरकार तो बाकायदा इस होड़ में शामिल नजर आती है.
कुछ ऐसे ही दबाव में, कर्नाटक की कांग्रेसी सरकार ने राज्य के सभी मंदिरों से 22 जनवरी को विशेष पूजा आदि आयोजित करने के लिए कह दिया है. और जैसाकि गैर-भाजपा सरकारों द्वारा इस तरह के दबाव के सामने समर्पण से होना ही था, अब भाजपा केरल में कांग्रेस को एक प्रकार से धमका रही है कि वहां भी, राम मंदिर के उद्घाटन के मौके पर आयोजनों का झंडा उठाए! जाहिर है कि संघ-भाजपा, केरल की वामपंथी सरकार के तो इस तरह के दबाव में आने की बात सोच भी नहीं सकते हैं. इस सिलसिले में इसका जिक्र करना भी जरूरी है कि संघ-भाजपा ने बहुत ही चतुराई से, 22 जनवरी के ईवेंट के लिए निमंत्रण को, अपना एक अतिरिक्त राजनीतिक हथियार बना लिया है.
इस मौके पर आमंत्रित कुछ हजार लोगों में, राजनीतिक नेताओं को निमंत्रित करने में खासतौर पर खेल किया गया है. एक ओर सबसे पहले भेजे गए निमंत्रणों में, सबसे बड़ी कम्युनिस्ट पार्टी, सीपीआइ (एम) के महासचिव सीताराम येचुरी के लिए निमंत्रण शामिल था, जिनके संबंध में कोई भी आसानी से अनुमान लगा सकता था कि वह ऐसे आयोजन के आमंत्रण को स्वीकार नहीं करेंगेे. इस आमंत्रण का मकसद ही, यह प्रचारित करने का मौका गढ़ना था कि अब भी ‘राम मंदिर का विरोध’ हो रहा है.
वामपंथ के अलावा वरिष्ठ कांग्रेस नेता सोनिया गांधी और पार्टी अध्यक्ष, मल्लिकार्जन खडगे को आमंत्रित किया गया है, जिसका मुख्य मकसद कांग्रेस के लिए दुविधा पैदा करना ही नजर आता था. बेशक, संघ-भाजपा यही चाह रही थी कि वामपंथ की तरह, कांग्रेस भी इस आमंत्रण को अस्वीकार कर दे और उन्हें उसके ‘राम मंदिर विरोधी’ होने के अपने प्रचार को और तेज करने का मौका मिल जाए. और यही कांग्रेस की दुविधा की मुख्य वजह थी, जिसके कारण कांग्रेस तय नहीं कर पायी थी कि इस निमंत्रण को स्वीकार करे या अस्वीकार कर दे. दूसरी ओर, कांग्रेस यह भी बखूबी जानती है कि उसका इस मौके पर अयोध्या जाना, न सिर्फ उसकी धर्मनिरपेक्ष छवि को धूमिल करेगा.
बल्कि उसके इस आयोजन में शामिल होने का संघ-भाजपा, उसकी विचारधारात्मक कमजोरी को भुनाने के लिए ही इस्तेमाल करेंगे. बहरहाल, दुविधा में उसकी स्थिति वही होती -- दुविधा में दोऊ गए, माया मिली न राम! दूसरी ओर, समाजवादी पार्टी, शिव सेना, राष्ट्रवादी पार्टी, आम आदमी पार्टी आदि उन विपक्षी पार्टियों को सोचे-समझे तरीके से निमंत्रण नहीं दिया गया है, जिन्होंने बिना किसी खास हिचक के निमंत्रण को स्वीकार कर लिया होता और इसका उपयोग भाजपा के अयोध्या कार्ड के मुकाबले, खुद को कुछ-न-कुछ मजबूत करने के लिए ही किया होता.
22 जनवरी को जो हो रहा है, उसके सबसे बढ़कर संघ-भाजपा के राजनीतिक-चुनावी ईवेंट होने की यह सचाई, इसके गिर्द उठायी जा रही प्रचार की आंधी को पंचर भी कर रही होगी. खुद को हिंदू मानने वालों के बहुमत को अब भी, न तो अपनी आस्था को सांप्रदायिक-नफरत से जोड़ना पसंद आता है और न ही अपनी धार्मिक आस्था का राजनीतिक-चुनावी इस्तेमाल उसे भाता है. शंकराचार्यों ने इस मूक बहुमत की इस भावना को ही एक प्रकार से यह कहकर स्वर दिया है कि 22 जनवरी को जो हो रहा है, मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा का अनुष्ठान नहीं, एक राजनीतिक-चुनावी ईवेंट है.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक 'लोकलहर' के संपादक हैं.)
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