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राजेंद्र शर्मा के तीन लघु व्यंग्य

 Newsbaji  |  May 14, 2024 11:38 AM  | 
Last Updated : May 14, 2024 11:38 AM
प्रभु लीला का आनंद लेना ही तो प्रजा का कर्तव्य है.
प्रभु लीला का आनंद लेना ही तो प्रजा का कर्तव्य है.

1. दोस्त... दोस्त ना रहा!
इन विरोधियों को मोदी जी कभी माफ नहीं करेंगे. दिल से माफ करना छोड़ो, कहने को भी माफ नहीं करेंगे. बताइए, पीछे पड़ पड़ के, पीछे पड़ पड़ के, बेचारे से पाप करा दिया. वही रात-दिन एक ही रट -- तुम्हारा दोस्त अडानी, तुम्हारा दोस्त अंबानी. वही रात दिन एक ही शिकायत, तुम्हारे यार अडानी ये कर दिया, तुम्हारे यार अंबानी ने वो क्यों कर दिया! वही हर वक्त की तानाकशी -- तुम दो, तुम्हारे दो; जो दो, अपने यारों को दो! और भी न जाने क्या-क्या! इंसान तो इंसान, भगवान के बर्दाश्त की भी एक हद्द होती है. गुस्से में साहेब के भी मुंह से निकल गया -- अडानी, अंबानी यार होंगे तेरे! कमबख्तों ने डलवा दी ना पक्की दोस्ती में दरार. अब देते रहें सफाइयां ; प्यार का धागा तो टूट गया! बेचारे शेयर बाजार को खामखां में तगड़ी पटकनी लग गयी, सो ऊपर से.

अब प्लीज कोई विरोधियों के इस पाप पर यह कहकर पर्दा डालने की कोशिश नहीं करे कि टैंपो का तो इस चुनावी सीजन में विरोधियों ने एक बार जिक्र तक नहीं किया था, फिर नोटों से लदे टैंपुओं की तो बात ही कहां उठती है. लेकिन, नोटों से लदे टैंपुओं की बात से ही क्या होता है? बेशक, नोटों से भरे टैंपुओं की बात मोदी जी की ऑरीजिनल थी. बोरों में भरे नोटों की बात भी उनकी ऑरीजिनल थी. काले धन के बोरों की बात भी. आखिर, दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी का, दुनिया का सबसे लोकप्रिय नेता, क्या दूसरों की कही बातें दोहराएगा? मोदी जी को नकलची समझ रखा है क्या?

मोदी जी बोलने के लिए मुंह खोलते हैं, तो ऑरीजिनल विचार अपने आप झरने लगते हैं, उनके टेलीप्राम्टर से. बोलने लगते हैं तो कल्पना के प्रवाह में दूर तक बहते चले जाते हैं. इस बार प्रवाह में बहते-बहते जरा ज्यादा दूर तक निकल गए. इतनी दूर तक कि राहुल ने पूछना शुरू कर दिया कि नोटों से लदे टैंपो रिसीव करने का आप का अनुभव है क्या? टैम्पो का नंबर क्या था? और भी  ना  जाने क्या अल्लम-गल्लम.

पर ये सब करा-धरा तो विरोधियों का ही है. न पब्लिक के बीच हर टैम अडानी-अंबानी करते, न साहेब को गुस्सा आता और न साहेब दोस्तों को सरे आम गाली देते. विरोधी अब कुछ भी सफाई दें, तीन दोस्तों की सालों पुरानी दोस्ती में दरार डलवाने का पाप तो उनके ही सिर पर है.                                                            

2. गयी भैंस खतरे में!
भैंसों ने खतरे की बात सुनी, तो पहले तो उन्हें विश्वास ही नहीं हुआ. बेशक, खतरा शब्द उनके कानों में कोई पहली बार नहीं पड़ा था. उल्टे दस साल से तो वे सबसे ज्यादा खतरा शब्द ही सुनती आ रही थीं. धर्म पर खतरा. संस्कृति पर खतरा. भाषा खतरे में. राष्ट्र खतरे में. हिंदू खतरे में वगैरह-वगैरह. पर वे तो समझती थीं कि खतरेे में पडऩा, खतरे में डालना, सब इंसानों के ही खटराग हैं. मवेशी योनि इन सब झंझटों से मुक्त है. आखिर भैंस थीं,

अक्ल से छोटी, देह से बड़ी. खुद को इसके बावजूद खतरों-वतरों से दूर समझती आ रही थीं कि उनकी बगल में ही गायें, इंसानों की टक्कर में बहुत भारी खतरे में चली आ रही थीं. पर भैंस बुद्धि का लॉजिक. उन्हें यह समझा दिया गया था और उन्होंने पक्के तौर पर यह मान भी लिया था कि चौपाया होने से क्या हुआ, गाय उनसे डिफरेंट है, उनसे श्रेष्ठतर है. इसलिए, गाय ही है, जो इंसानों की तरह खतरे में होने के लिए क्वालीफाई करती है, भैंस नहीं. भैंस के नसीब में खतरे में होना कहां कि उनके लिए कोई इंसान हथियार उठाए और इंसान पर हथियार चलाए!

पर आखिरकार, भैंसों को भी मानना ही पड़ा कि वे भी खतरे में हैं. कैसे नहीं मानतीं? आखिरकार देश का प्रधानमंत्री कह रहा था, भैंसें खतरे में हैं. कांग्रेस और उसके इंडी वालों का राज आ गया, तो दो में से एक भैंस खोल ले जाएंगे. वैसे दो में से एक भैंस खोल ले  जाने तक ही बात रहती, तब तो फिर भी गनीमत थी. आखिर, दो में से एक भैंस खोलकर ले भी जाते, तो भी भैंस का क्या बिगड़ जाता? ज्यादा से ज्यादा एक खूंटे से खोलकर, दूसरे खूंटे पर ही तो बांधी जाती. खूंटा किसी अब्दुल का होता, तब भी उसकी सेहत पर कोई खास फर्क नहीं पडऩे वाला था. भुस, सानी, चारा वगैरह वहां भी मिलता, दूध वहां भी दुहा जाता.

पर ज्यादा खतरे की बात वो थी, जो प्रधानमंत्री से शायद व्यस्तता की वजह से छूट गयी. या ज्यादा डर फैलने की आशंका से उन्होंने जान-बूझकर नहीं बतायी. और इंडी वालों के घोषणापत्र में तो खैर प्रधानमंत्री ने जो कुछ कहा कि है, वह सब भी नहीं है, फिर जो उन्होंने भी नहीं कहा, उसका खुलासा कैसे मिल जाएगा. मुद्दा ये कि अगर एक ही भैंस हुई, तो इंडी राज वाले क्या करेंगे? एक भैंस का फिफ्टी-फिफ्टी कैसे करेंगे? जाहिर है कि चतुर और भोंदू के किस्से वाला फिफ्टी-फिफ्टी तो होने से रहा, कि भैंस का आगे का हिस्सा भोंदू का और पीछे का हिस्सा चतुर का. तरबूज की तरह कटेगी और भैंस दो में बंटेगी ; और क्या?

खैर! इससे कोई यह न समझे कि जो सबसे गरीब हैं, जिनके पास एक भी भैंस नहीं है, वे खतरे से बाहर हैं. हर्गिज नहीं! भैंस न सही, जमीन तो होगी. जमीन भी न सही, घर में कोई गहना-जेवर तो होगा. कम से कम मंगलसूत्र तो होगा. वह भी नहीं, तो बाजरे में दबे थोड़े-बहुत नोट तो होंगे. वह भी नहीं, तब भी कम से कम बाजरा तो होगा. ये इंडी वाले बाजरा भी बांट देंगे. प्रधानमंत्री ने कहा है, ये इंडी वाले आ गए तो ये बाजरे तक जाएंगे! राशन के मुफ्त वाले पांच किलो बाजरे में से भी आधा ले जाएंगे और अब्दुल को दे देंगे. सो मोदी जी को तिबारा लाओ, भैंस से लेकर बाजरा तक सब बचाओ और हां, अब्दुल के हिस्से का पांच किलो बाजरा भी!        

3. देखत प्रभु लीला विचित्र अति...
ये विपक्ष वाले बिल्कुल ही पगला गए हैं क्या? बताइए, मोदी जी के बारे में ऐसे बातें कर रहे हैं, जैसे वह कोई आदमजात हों और वह भी मामूली. केजरीवाल ने जमानत पर जेल से बाहर आते ही सुर्रा छोड़ दिया. अगले साल जुलाई में मोदी जी पचहत्तर साल के हो जाएंगे. मोदी जी ने ही अपनी पार्टी में नियम बनाया था कि जो पचहत्तर का हो जाएगा, रिटायर कर के घर बैठा दिया जाएगा. यानी पब्लिक ने मोदी जी को एक बार फिर जिता भी दिया, तो भी उसके मत्थे पीएम के नाम पर अमित शाह मढ़ दिए जाएंगे ; मोदी जी घर जो बैठ जाएंगे! खामखां में बेचारे शाह साहब की गर्दन खतरे में डाल दी. बेचारे को हाथ के हाथ खंडन करना पड़ा -- यह बिल्कुल बकवास है.

मोदी जी की उम्र की बात से विरोधी खुश होने की गलती नहीं करें. मोदी जी, मोदी जी हैं, कोई आडवाणी या मुरली मनोहर जोशी नहीं, जो मार्गदर्शक मंडल में चले जाएंगे. मोदी जी तो खैर चले भी जाएं, पर उन्हें मार्गदर्शक मंडल में भेजेगा कौन? वैसे भी पचहत्तर साल पर रिटायरमेंट एक नियम ही तो है ; नियम इंसानों के लिए होते हैं, सुल्तानों के लिए नहीं. सुल्तान नियमों पर चलते नहीं, नियम बनाते हैं. और जो नियम बनाता है, उसके लिए नियम तोड़ना तो बाएं हाथ का खेल है. पब्लिक जिताए तो, और नहीं जिताए तो, पीएम तो मोदी जी ही रहेंगे. पांच साल ही नहीं उसके बाद भी, मोदी जी ही रहेंगे. पीएम का नाम बदलकर भले ही राष्ट्रपति रखवा दें, रहेंगे मोदी जी ही!

ऐसा ही एक और सुर्रा राहुल गांधी ने छोड़ दिया है. किसी सिविल सोसाइटी ग्रुप का सुझाव मानकर पट्ठे ने एलान कर दिया कि मैं तो तैयार हूं किसी भी स्वतंत्र मंच पर, देश के मुद्दों पर मोदी जी से बहस करने के लिए. पर सौ फीसद पक्का है कि मोदी जी तैयार नहीं होंगे! कोई इंसान होता, तो दुविधा में फंस जाता. ना करें तो भी मुसीबत, हां करें तो भी मुसीबत. पर मोदी जी को दुविधा छू भी नहीं सकती. खुद तो उन्होंने, ना या हां कहना तक गवारा नहीं किया. बस अपने  पट्ठे से कहलवा दिया कि राहुल गांधी की हैसियत ही क्या है, पीएम मोदी से बहस करने की और वह भी देश के मुद्दों पर.

बहस करने का इतना ही शौक है तो, कर लें हिंदू-मुसलमान पर बहस, राम मंदिर पर बहस. चाहें तो बिना टेलीप्राम्प्टर के बहस कर लें. राहुल गांधी ही क्यों और कोई भी आ जाए और कर ले बहस. बहस से मोदी जी डरते थोड़े ही हैं! पर जब देश के मुद्दों पर सवाल किया जाएगा, दूसरी तरफ से पीएम का जवाब आएगा. पर पीएम से जवाब मांगने की, सवाल करने वाले की हैसियत भी तो होनी चाहिए. आखिर, देश की प्रतिष्ठा का सवाल है. राहुल गांधी हैं क्या, फकत एमपी! कोई भी एमपी मुंह उठाए चला आएगा और पीएम से बहस करने लग जाएगा; संसद समझ रखा है क्या? और मोदी जी तो संसद तक में विपक्ष वालों को मुंह नहीं लगाते हैं और सिर्फ अपने मन की बात सुनाते हैं ; वह राष्ट्रीय चुनाव में किसी विपक्ष वाले के सवालों के जवाब देंगे?

मोदी जी मोदी जी हैं. मोदी जी की बराबरी कम से कम किसी मनुष्य से कोई नहीं करे. उन्हें इंसानों के लिए बने नियम-कायदों के बंधन में बांधने की कोशिश कोई नहीं करे. प्रभु लीला आनंद लेने के लिए होती है, बहस के लिए नहीं. प्रभु लीला का आनंद लेना ही तो प्रजा का कर्तव्य है!                                                                                                   

(व्यंग्यकार वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक 'लोकलहर' के संपादक हैं.)

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