(भगत सिंह की जयंती पर विशेष आलेख : विक्रम सिंह)
"जो कोई भी कठिन श्रम से कोई चीज़ पैदा करता है, उसे यह बताने के लिए किसी खुदाई पैगाम की जरूरत नहीं कि पैदा की गयी चीज पर उसी का अधिकार है", ये शब्द जो अपनी जेल डायरी के सफा 16 में भगत सिंह द्वारा लिखे गए थे, उनके विचार का सार है. यह उस 23 वर्ष के नौजवान का अटूट विश्वास है, जिसे आज के दौर में हमारे सामने पिस्तौल उठाये हुए एक अति उत्साही नायक के रूप में पेश किया जाता है, जिसे नौजवान सहज ही अपना आदर्श मान लेते हैं.
लेकिन उनके विचारों से कभी रूबरू नहीं होते और न ही उनको आत्मसात करते हैं. जनवरी 1930 में असेम्बली बम काण्ड में हाई कोर्ट में की गई अपील में अंग्रेजी हुकूमत के प्रचार की पोल खोलने के साथ-साथ गोया भगत सिंह आज के नौजवानों से कह रहे हो कि "बम और पिस्तौल इंकलाब नहीं लाते, बल्कि इंकलाब की तलवार तो विचारों की सान पर तेज़ होती है."
भगत सिंह एक सुलझे हुए क्रान्तिकारी थे, जो पूरी तरह से जानते थे, वह क्या करना चाहते हैं. छोटी सी उम्र में उनकी लेखनी और उनका व्यापक अध्ययन, उनके एक गंभीर बुद्धिजीवी और चिंतक होने की तरफ इशारा करता है. उनके द्वारा लिखे हुए मौलिक लेख, जो उन्होंने अलग-अलग नामों से लिखे, बहुत कुछ बयान करते हैं. उनकी जेल डायरी, जिसमे उपरोक्त पंक्तियाँ लिखी हैं और जिसे उन्होंने अमरीकी लेखक और पेशे से वकील राबर्ट जी.
इंगरसोल को पढ़ते हुए नोट की थी, में अनेकों पुस्तकों का जिक्र है और अलग-अलग विषयों से अनेकों नोट हैं. उससे ही पता चलता है कि वह कितना पढ़ते थे, तब भी जब अपनी फाँसी की प्रतीक्षा कर रहे थे. सिद्धांत में पक्के और अभ्यास में निरंतर सटीक होने के चलते ही वह उस युग के क्रांतिकारियों की पहचान के रूप में विख्यात हुए.
वर्तमान दौर में भगत सिंह के विचार की ताकत तथा बलिदान के चलते, उनको नकारना किसी के बस का नहीं. वह नौजवानो में बहुत लोकप्रिय हैं. इसलिए दूसरा तरीका अपनाया गया है. भगत सिंह को तो आदर्श मानो, लेकिन उनके विचारों को सामने न आने दो. यह एक साजिश से कम नहीं है. जो भगत सिंह को उनकी लेखनी से जानते हैं, उनको पता है भगत सिंह अपने को इंक़लाब के विचार के बिना कुछ नहीं मानते थे. इसलिए आज के नौजवानों को जरुरत है उनके विचारों को समझने की.
नौजवानों के लिए जिम्मेवार भूमिका : भगत सिंह नौजवानों को बहुत महत्व देते थे. उस दौर में भी नौजवानों को राजनीति से दूर रहने की नसीहतें दी जाती थी. भगत सिंह इसके मुखर विरोधी थे. उन्होंने 'विद्यार्थी और राजनीति' शीर्षक से एक लेख लिखा, जो जुलाई, 1928 में ‘किरती’ में छपा था. अनेक नेता विद्यार्थियों को राजनीति में हिस्सा न लेने की सलाहें देते थे, जिनके जवाब में यह लेख लिखा गया था. भगत सिंह लिखते हैं, "जिन नौजवानों को कल देश की बागडोर हाथ में लेनी है, उन्हें आज ही अक्ल के अन्धे बनाने की कोशिश की जा रही है. इससे जो परिणाम निकलेगा, वह हमें ख़ुद ही समझ लेना चाहिए.
यह हम मानते हैं कि विद्यार्थियों का मुख्य काम पढ़ाई करना है, उन्हें अपना पूरा ध्यान उस ओर लगा देना चाहिए, लेकिन क्या देश की परिस्थितियों का ज्ञान और उनके सुधार के उपाय सोचने की योग्यता पैदा करना उस शिक्षा में शामिल नहीं? यदि नहीं, तो हम उस शिक्षा को भी निकम्मी समझते हैं, जो सिर्फ़ क्लर्की करने के लिए हासिल की जाये. ऐसी शिक्षा की ज़रूरत ही क्या है?"
वह आगे लिखते हैं, "कुछ ज़्यादा चालाक आदमी यह कहते हैं- “काका, तुम पोलिटिक्स के अनुसार पढ़ो और सोचो ज़रूर, लेकिन कोई व्यावहारिक हिस्सा न लो. तुम अधिक योग्य होकर देश के लिए फ़ायदेमन्द साबित होगे..... क्या इंग्लैण्ड के सभी विद्यार्थियों का कॉलेज छोड़कर जर्मनी के खि़लाफ़ लड़ने के लिए निकल पड़ना पोलिटिक्स नहीं थी? तब हमारे उपदेशक कहाँ थे, जो उनसे कहते – जाओ, जाकर शिक्षा हासिल करो.” वह मानते थे कि नौजवनों का काम केवल नेताओं को माला पहनाना और उनके लिए नारे लगाना नहीं है, बल्कि उनको तो नीति निर्धारण में प्रत्यक्ष हस्तक्षेप करना चाहिए.
उन्हें संघर्षो का प्रतिनिधित्व करना चाहिए. यह आज के दौर में भी बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है, जब देश के नौजवानों को राजनीतिक पार्टियाँ रैली, धरना और चुनाव प्रचार के लिए तो प्रयोग करती हैं, लेकिन जब यही नौजवान अपने हकों के लिए संगठित होते हैं, तो उन्हें राजनीति से दूर रहने की नसीहत दी जाती है. जब तक नौजवान सांप्रदायिक हिंसा के लिए पैदल सैनिकों की तरह काम करते हैं, तो ठीक है. लेकिन अगर वही नौजवान शिक्षा और रोजगार के लिए आंदोलन का नेतृत्व करते हैं, तो नौजवानों को इन सब से दूर रहने के लिए ताकीद किया जाता है. भगत सिंह तब भी इसके खिलाफ लड़े थे और आज भी हमें इसके खिलाफ लड़ते हुए नौजवानों को उनके जनवादी अधिकारों के बारे में सजग करते हुए नीति निर्धारण में हस्तक्षेप करने के लिए तैयार करना होगा.
अपने जीवन के सर्वोच्च लक्ष्य 'क्रान्ति' की स्पष्टअवधारणा : आज़ादी की लड़ाई और उसके बाद बनने बाले देश के बारे में वह अपने समय के नेताओं से कहीं ज्यादा स्पष्ट थे. वह साफ़ घोषित करते हैं कि उनका मक़सद केवल अंग्रेजों की गुलामी से छुटकारा पाना नहीं है, बल्कि सत्ता परिवर्तन के लिए क्रांति करना है, जिससे वास्तविक सत्ता मज़दूरों और किसानों के हाथ में आ जाए. इस गंभीर मुद्दे पर उन्होंने नौजवानों से चर्चा 'नौजवान राजनीतिक कार्यकर्ताओं के नाम पत्र' में की है.
इसके साथ उन्होंने 'क्रान्तिकारी कार्यक्रम का मसविदा' में भी इस पर लिखा है. हालाँकि अदालत में सुनवाई के दौरान उनके राजनीतिक बयान और कई लेख और पर्चे हैं, जिनमें क्रांति के बारे में चर्चा की है. लेकिन हम यहाँ केवल 'नौजवान राजनीतिक कार्यकर्ताओं के नाम पत्र' के जरिये ही उनके विचार को समझने का प्रयास करते हैं. वह इस पत्र में साफ़ लिखते है कि, "हम समाजवादी क्रान्ति चाहते हैं, जिसके लिए बुनियादी जरूरत राजनीतिक क्रान्ति की है. यही है जो हम चाहते हैं.
राजनीतिक क्रान्ति का अर्थ राजसत्ता (यानी मोटे तौर पर ताकत) का अंग्रेजी हाथों में से भारतीय हाथों में आना है और वह भी उन भारतीयों के हाथों में, जिनका अन्तिम लक्ष्य हमारे लक्ष्य से मिलता हो. और स्पष्टता से कहें तो -- राजसत्ता का सामान्य जनता की कोशिश से क्रान्तिकारी पार्टी के हाथों में आना. इसके बाद पूरी संजीदगी से पूरे समाज को समाजवादी दिशा में ले जाने के लिए जुट जाना होगा. यदि क्रान्ति से आपका यह अर्थ नहीं है तो महाशय, मेहरबानी करें और ‘इन्कलाब ज़िन्दाबाद’ के नारे लगाना बन्द कर दें."
आगे वह बड़े ही सरल तरीके से सत्ता परिवर्तन, सामान्य विद्रोहों और सर्वहारा क्रांति के बीच का फर्क समझाते हैं -- “क्रान्ति से हमारा क्या आशय है, यह स्पष्ट है. इस शताब्दी में इसका सिर्फ एक ही अर्थ हो सकता है -- जनता के लिए, जनता का राजनीतिक शक्ति हासिल करना. वास्तव में यही है ‘क्रान्ति’, बाकी सभी विद्रोह तो सिर्फ मालिकों के परिवर्तन द्वारा पूँजीवादी सड़ाँध को ही आगे बढ़ाते हैं. किसी भी हद तक लोगों से या उनके उद्देश्यों से जतायी हमदर्दी जनता से वास्तविकता नहीं छिपा सकती, लोग छल को पहचानते हैं.
भारत में हम भारतीय श्रमिक के शासन से कम कुछ नहीं चाहते. भारतीय श्रमिकों को- भारत में साम्राज्यवादियों और उनके मददगार हटाकर जो कि उसी आर्थिक व्यवस्था के पैरोकार हैं, जिसकी जड़ें, शोषण पर आधारित हैं — आगे आना है. हम गोरी बुराई की जगह काली बुराई को लाकर कष्ट नहीं उठाना चाहते. बुराइयाँ, एक स्वार्थी समूह की तरह, एक-दूसरे का स्थान लेने के लिए तैयार हैं”. क्रांति की असल अवधारणा की इतनी तीखी समझ के चलते ही सत्ताधारी वर्ग आज भी उनके विचारों से डरता है. वह शोषण के मूल आधार को चिन्हित करते थे और इसे बदलने का सीधा तरीका बताते थे, जिसका मक़सद केवल सत्ता परिवर्तन से केवल शोषकों को बदलना नहीं, बल्कि शोषण की समूल व्यवस्था को खत्म करना है.
क्रांति के लिए मज़दूरों और किसानों के आंदोलन का महत्व : इंक़लाब की अगुवाई क्रान्तिकारी पार्टी करेगी, जिसका मक़सद मौजूदा सामाजिक ढांचे में पूर्ण परिवर्तन और समाजवाद की स्थापना है. क्रांति में किसानों और मज़दूरों की भूमिका को वह पहचानते थे. उनका मानना था कि पैदावार करने वाले इन वर्गों के बिना मुकम्मल बदलाव संभव ही नहीं. इसके लिए वह सरमायेदार नेताओं की उलाहना भी करते थे कि वह जानबूझ कर उनकी सक्रिय भागीदारी आज़ादी की लड़ाई में सुनिश्चित नहीं करते हैं.
हांँ, उनका आह्वान होता है, केवल आंदोलनों को लागू करने के लिए लेकिन नेतृत्व और निर्णय लेने से उन्हें दूर ही रखा जाता है. वह लिखते हैं, "वास्तविक क्रान्तिकारी सेनाएँ तो गाँवों और कारखानों में हैं -- किसान और मजदूर. लेकिन हमारे ‘बुर्ज़ुआ’ नेताओं में उन्हें साथ लेने की हिम्मत नहीं है, न ही वे ऐसी हिम्मत कर सकते हैं. यह सोये हुए सिंह यदि एक बार गहरी नींद से जाग गये, तो वे हमारे नेताओं की लक्ष्य-पूर्ति के बाद भी रुकने वाले नहीं हैं."
वह मेहनतकश वर्ग के सक्रिय नेतृत्व में विश्वास करते थे. इतनी छोटी सी उम्र में यह उनकी राजनीतिक और वैचारिक परिपक्वता थी. इसके चलते वह क्रांति में उत्पादन करने वाले वर्ग के नेतृत्व की अपरिहार्यता को समझते थे, तो यह कुशल संगठनकर्ता के तौर पर उनकी अद्भुत क्षमता थी कि वह इस वर्ग को लामबंद करने के तरीके को भी पहचानते थे. उस समय के बाकी बुर्ज़ुआ नेताओं की तरह वह मज़दूरों और किसानो को केवल अनुयायी नहीं मानते थे, जिनको आसानी से कोई भी अपनी राजनीति के पीछे लगा ले.
वह कमेरे वर्ग को एक सजग वर्ग मानते थे, जिनको गम्भीरता से समझाना होगा कि क्रान्ति उनके हित में है और उनकी अपनी है और सर्वहारा श्रमिक वर्ग की क्रान्ति, सर्वहारा के लिए. इसी पत्र में वह स्पष्ट लिखते हैं, "हम इस बात पर विचार कर रहे थे कि क्रान्ति किन-किन ताकतों पर निर्भर है? लेकिन यदि आप सोचते हैं कि किसानों और मजदूरों को सक्रिय हिस्सेदारी के लिए आप मना लेंगे, तो मैं बताना चाहता हूँ कि वे किसी प्रकार की भावुक बातों से बेवकूफ नहीं बनाये जा सकते.
वे साफ-साफ पूछेंगे कि उन्हें आपकी क्रान्ति से क्या लाभ होगा, वह क्रान्ति जिसके लिए आप उनके बलिदान की माँग कर रहे हैं. भारत सरकार का प्रमुख लार्ड रीडिंग की जगह यदि सर पुरुषोत्तम दास ठाकुर दास हो, तो उन्हें (जनता को) इससे क्या फर्क पड़ता है? एक किसान को इससे क्या फर्क पड़ेगा, यदि लार्ड इरविन को जगह सर तेज बहादुर सप्रू आ जायें."
उपरोक्त बातों से साफ़ हो जाता है कि भगत सिंह एक सच्चे कम्युनिस्ट थे. लेकिन आज जब भगत सिंह के विचार को तिलांजलि देकर भी उनके नाम को हड़पने की होड़ लगी है, तो कई तरह का भ्रामक प्रचार किया जाता है. उनकी विरासत को हथियाने के लिए उन्हें कम्युनिस्टों से दूर किया जाता है. यहाँ तक कि अब तो साम्प्रदायिक पार्टियाँ भी, जिनका विचार उनके खुले तौर पर आतंकवादी कहता रहा है, जिनके साथी उनकी मूर्तियाँ तोड़ने जैसे नीच काम में लिप्त रहे हैं, भगत सिंह को अपने परिवार का हिस्सा बताते हैं.
लेकिन बहुत ही साफ़ और स्पष्ट चेतावनी देने की जरूरत है इन सभी अवसरवादी ताकतों को कि वह भगत सिंह के नाम और विरासत से दूर रहें. जो देश सरकारों ने बनाया है और जिस दिशा में भाजपा देश को लेकर जा रही है, वह भगत सिंह के सपनों का देश नहीं है. वह तो एक कम्युनिस्ट थे, जिसने एक समाजवादी देश बनाने के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी. इसमें शक की कोई गुंजाईश नहीं. फिर भी भ्रामक प्रचार के खिलाफ उपरोक्त पत्र के वह हिस्से हैं, जहां वह क्रांति के नेतृत्व के लिए जिम्मेदार कम्युनिस्ट पार्टी बनाने की बात करते हुए लिखते हैं, "पार्टी का नाम कम्युनिस्ट पार्टी हो. ठोस अनुशासन वाली राजनीतिक कार्यकर्ताओं की यह पार्टी बाकी सभी आन्दोलन चलायेगी."
कठिन रास्ते पर बलिदानों के लिए तैयार सजग क्रांतिकारी : क्रांति की यह अवधारणा किसी नौजवान का सपना मात्र नहीं था, जिसे वह आसानी से पा लेने के किसी भ्रम में थे. यह तो भगत सिंह के मार्क्सवादी वैज्ञानिक दृष्टिकोण का ठोस विश्लेषण है. अपने मकसद को पूरा करने की कठिनाई और उसके लिए लाज़मी बलिदानों से वह भलीभांति परिचित और तैयार हैं. वह लिखते हैं, "क्रान्ति या आजादी के लिए कोई छोटा रास्ता नहीं है. ‘यह किसी सुन्दरी की तरह सुबह-सुबह हमें दिखायी नहीं देगी’ और यदि ऐसा हुआ तो वह बड़ा मनहूस दिन होगा. बिना किसी बुनियादी काम के, बगैर जुझारू जनता के और बिना किसी पार्टी के, अगर (क्रान्ति) हर तरह से तैयार हो, तो यह एक असफलता होगी."
इसके लिए वह समर्पित कार्यकर्ताओं का आह्वान करते हैं और खुद इसका नेतृत्व करते हैं. वह क्रांति के विज्ञान को समझते हैं. इसलिए सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों के अनुरूप काम करने पर बल देते है. इसी खत में वह आगे लिखते हैं, “यह तो विशेष सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों से पैदा होती है और एक संगठित पार्टी को ऐसे अवसर को सम्भालना होता है और जनता को इसके लिए तैयार करना होता है.
क्रान्ति के दुस्साध्य कार्य के लिए सभी शक्तियों को संगठित करना होता है. इस सबके लिए क्रान्तिकारी कार्यकर्ताओं को अनेक कुर्बानियाँ देनी होती हैं ... हम तो लेनिन के अत्यन्त प्रिय शब्द ‘पेशेवर क्रान्तिकारी’ का प्रयोग करेंगे. पूरा समय देने वाले कार्यकर्ता, क्रान्ति के सिवाय जीवन में जिनकी और कोई ख्वाहिश ही न हो. जितने अधिक ऐसे कार्यकर्ता पार्टी में संगठित होंगे, उतने ही सफलता के अवसर अधिक होंगे."
नारा तब भी इंक़लाब था, नारा आज भी इंक़लाब है : हमारे देश की वर्तमान हालात को देख कर समझ में आता है कि भगत सिंह के विचार कितने सटीक थे. देश आज़ादी का अमृतोत्सव मना रहा है, लेकिन देश का मेहनतकश मज़दूर, किसान और खेत मज़दूर आत्महत्या करने के लिए मज़बूर हो रहा है. देश के संसाधनों में उसकी हिस्सेदारी और उसकी आमदनी लगातार कम होती जा रही है.
अगर हालात वही हैं, जिनका संकेत भगत सिंह ने दिया था, तो इलाज़ भी वही है, जो उन्होंने बताया था -- मज़दूरों और किसानों के संघर्ष. पिछले वर्षो में हमारे अनुभव भी यही बताते हैं, जब देश में शोषणकारी कॉर्पोरेट साम्प्रदायिक नापाक गठजोड़ को मज़दूरों और किसानों के आंदोलन ने चुनौती दी. देश के नौजवानों को इसे समझते हुए मेहनतकश की एकता और आंदोलनों का नेतृत्व करना चाहिए, तभी भगत सिंह का देश हम बना पाएंगे. दूसरे शब्दों में दुश्मन तब भी साम्राज्यवाद था, दुश्मन आज भी साम्राज्यवाद है -- नारा तब भी इंक़लाब था, नारा आज भी इंक़लाब है.
(लेखक एसएफआई के पूर्व महासचिव और अ. भा. खेत मजदूर यूनियन के संयुक्त सचिव हैं.)
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