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क्या रामलीला मैदान अपना 1977 का इतिहास दोहराएगा?

 Newsbaji  |  Mar 28, 2024 11:37 AM  | 
Last Updated : Mar 28, 2024 11:37 AM
 1977 के आम चुनाव की पूर्व-संध्या में दिल्ली के रामलीला मैदान में ही हुई विपक्ष की संयुक्त रैली की याद आना स्वाभाविक है.
1977 के आम चुनाव की पूर्व-संध्या में दिल्ली के रामलीला मैदान में ही हुई विपक्ष की संयुक्त रैली की याद आना स्वाभाविक है.

(आलेख: राजेंद्र शर्मा)
इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि शराब घोटाले के आरोपों में ईडी द्वारा दिल्ली के मुख्यमंत्री और आम आदमी पार्टी के सर्वोच्च नेता अरविंद केजरीवाल की गिरफ्तारी ठीक उस समय हुई है, जब चुनावी बांड महाघोटाले की परतें बाकायदा उधड़नी शुरू हो चुकी हैं. इसी का नतीजा है कि आम आदमी पार्टी की इस दलील का लोगों के बीच काफी हद तक असर हो रहा है कि कथित रूप से 100 करोड़ रूपये के दिल्ली के शराब घोटाले में अगर कोई ''मनी ट्रेल'' है भी तो, वह तो सीधे भाजपा तक जाती है, जिसके सबूत बांड घोटाले से संबंधित रहस्योद्घाटनों के हिस्से के तौर पर सामने आ चुके हैं.

याद रहे कि जिस स्थापित दवा कारोबारी, शरतचंद्र रेड्डी की उक्त घोटाले के मुख्य अभियुक्त के रूप में गिरफ्तारी के बाद, वादा माफ गवाह बनाकर रिहाई के बाद, मुख्यत: उसकी गवाही की ही बिनाह पर मनीष सिसोदिया तथा संजय सिंह के बाद, अब खुद अरविंद केजरीवाल की भी गिरफ्तारी की जा चुकी है, उससे जुड़ी कंपनियों ने इसी दौरान, बांड के जरिए भाजपा को पूरे 55 करोड़ रूपये का चंदा दिया था. इसमें 5 करोड़ रूपये का चंदा तो रेड्डी की जमानत पर रिहाई के फौरन बाद दिया गया था और बाकी 50 करोड़ का चंदा अलग-अलग किस्तों में बाद में दिया गया.

अगर वाकई 100 करोड़ रूपये का घोटाला हुआ था, जैसाकि ईडी का आरोप है, तो इसे बेशक घोटाले की अवैध कमाई के प्रवाह की मुख्य धारा माना जाना चाहिए. हां! अगर कोई यह दलील देने लगे तो बात दूसरी है कि भाजपा को बांड के जरिए दिया गया 55 करोड रूपये तो ईडी द्वारा इस दवा व्यापारी से केंद्र की सत्ताधारी पार्टी के लिए, सीधी-साधी हफ्ता वसूली या एक्सटॉर्शन का मामला है!

इस पूरे मामले से इसका कुछ अंदाजा तो लग ही सकता है कि चुनावी बांड घोटाले का भूत, भाजपा की सारी कोशिशों के बावजूद, आसानी से उसका पीछा छोड़ने वाला नहीं है. यह घोटाला इतना बड़ा और इतनी अवैधताओं को समेटे हुए है कि कम-से-कम इस आम चुनाव तक तो, इसकी नयी-नयी परतें खुलती ही रहेंगी. इसीलिए, हैरानी की बात नहीं है कि इस मामले में मोदी सरकार और सत्ताधारी पार्टी के बचाव के लिए, संघ-भाजपा की ओर से अमित शाह तथा निर्मला सीतारमण से लेकर, खुद आरएसएस के महासचिव, होसबले को उतारे जाने के बावजूद, घोटाले से लेकर हफ्तावसूली तक के आरोपों को जवाब देना तो दूर रहा.

उन्हें भोंथरा तक नहीं किया जा सका है. और तो और, संघ-भाजपा का इसका प्रचार भी खास काम नहीं आया है कि बांड के जरिए अगर अवैध तरीके से पैसा इकठ्ठा किया गया है, तो इस तरह अकेले भाजपा ने ही पैसा थोड़े ही जुटाया है, दूसरी पार्टियों ने भी तो बांड से पैसा उठाया है और तृणमूल कांग्रेस, टीआरएस, एसआरसीपी, बीजेडी आदि क्षेत्रीय पार्टियों ने तो खासतौर पर उल्लेखनीय मात्रा में इस रास्ते से पैसा उठाया है.

प्रचार की सारी ताकत लगाए जाने के बावजूद, इस दलील को एक तो इस तथ्य ने बेअसर कर दिया है कि दूसरी तमाम पार्टियों को मिलकर बांड से जितना पैसा मिला था, उससे ज्यादा पैसा अकेले भाजपा ने बटोरा था. दूसरे कुछ क्षेत्रीय सत्ताधारी पार्टियां स्थानीय रूप से कुछ बड़े उद्योगपतियों को उपकृत करने के बदले में उनसे बांड से चंदा लेने की स्थिति में रही भी हों.

तब भी, केवल केंद्र में सत्ता में बैठी भाजपा ही केंद्रीय एजेंसियों का इस्तेमाल कर के हफ्ता वसूली करने और इन्फास्ट्रक्चर, खनन आदि क्षेत्रों की भीमकाय कंपनियों को ठेकों, मंजूरियों आदि के जरिए उपकृत करने के बदले में चंदा बटोरने की स्थिति में थी. और इससे भी महत्वपूर्ण यह कि केंद्र में सत्ता में बैठी भाजपा ही, यह जानने की स्थिति में थी कि कौन सा उद्योगपति, उसके अलावा भी किस पार्टी को, कितना चंदा दे रहा था?

इस जानकारी को हथियार बनाकर, केंद्रीय एजेंसियों के जरिए आसानी से यह सुनिश्चित किया जा सकता था कि चंदे का यह दरवाजा, सिर्फ और सिर्फ सत्तापक्ष के लिए खुला रहे, विरोधियों के लिए नहीं. कांग्रेस का चुनावी बांड से कमाई में तृणमूल कांग्रेस से भी पीछे, बहुत दूर तीसरे नंबर पर रह जाना और बांड से मिले कुल चंदे के दस फीसद से भी कम और भाजपा को मिले चंदे से चौथाई से भी कम में सिमट जाना, इसी की ओर इशारा करता है.

इसीलिए संघ-भाजपा और उनका सेवादार मीडिया, ध्यान बंटाने के जरिए, इस महाघोटाले को ज्यादा से ज्यादा अनदेखा करने की ही कार्यनीति का ज्यादा सहारा ले रहे हैं. लेकिन, उनके दुर्भाग्य से इस घोटाले के संबंध में, स्वतंत्र संगठनों तथा सोशल मीडिया प्लेटफार्मों द्वारा सामने लाया जा रहा मसाला इतना विस्फोटक है कि मुख्यधारा के मीडिया के एक हिस्से को, खासतौर पर मुख्यधारा के प्रिंट मीडिया के एक हिस्से को भी, इन रहस्योद्घाटनों को जगह देनी ही पड़ रही है.

मिसाल के तौर पर लीगेसी मीडिया भी पूरी तरह से इस तरह की कहानियों को कैसे अनदेखा कर सकता है कि बांड से करीब 1,000 करोड़ रूपये का चंदा देने वाली 32 दवा कंपनियों में, 7 ऐसी दवा कंपनियां भी शामिल थीं, जिनके खिलाफ घटिया दवाएं बनाने के लिए, सरकारी मशीनरी द्वारा जांचें/कार्रवाइयां की जा रही थीं!

या यही कि कुख्यात सिलक्यारा टनल, जिसके बैठ जाने से, 41 मजदूर कई हफ्ते तक फंसे रहे थे और इसके बावजूद उसे बनाने वाली कंपनी के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की गयी थी, उसने भी भाजपा को 55 करोड़ रूपये का चंदा बांड के जरिए दिया था! और यह भी कि बीसियों कंपनियों ने अपने मुनाफे से कई-कई गुना ज्यादा चंदा बांड के जरिए दिया था और इनमें एक दर्जन से ज्यादा ऐसी कंपनियां शामिल थीं, जिन्होंने अपनी स्थापना के साथ ही यानी कोई मुनाफा आने से पहले ही चंदा देना शुरू कर दिया था या जिनके सारे लक्षण शैल या खोखा कंपनियों के थे.

इस सब के सामने आने से, मीडिया पर मुकम्मल नियंत्रण और अधिकतम संभव प्रचार के बल पर, गढ़ी गयी मोदी राज की ''न खाऊंगा, न खाने दूंगा'' की छवि, भरभरा कर गिरनी शुरू हो गयी है. इसके स्वाभाविक परिणाम के रूप में, विपक्षी नेताओं को ''भ्रष्ट"' बनाकर पेश करने की संघ-भाजपा की मुहिम, भोंथरी होती जा रही है. ऐसे में और खासतौर पर चुनाव से ऐन पहले, केंद्रीय एजेंसियों के सहारे विपक्ष के खिलाफ कोई भी कार्रवाई, नरेंद्र मोदी के प्रचार के लिए उल्टी ही पड़ सकती है. केजरीवाल की गिरफ्तारी के मामले में ठीक यही होता नजर आ रहा है.

इससे पहले, जनवरी की आखिरी तारीख को, ऐसे ही गढ़े हुए मामले में, झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को गिरफ्तार किया गया था; तब भी संघ-भाजपा अपना मनचाहा हासिल नहीं कर पाए थे. हेमंत सोरेन की गिरफ्तारी के संदर्भ में जिस तरह, सरकार का वैकल्पिक नेतृत्व सामने आ गया, जिसने आसानी से बहुमत साबित कर दिया और जिस तरह हेमंत सोरेन की गिरफ्तारी के खिलाफ खासतौर पर झारखंड के आदिवासी गोलबंद हुए, उसने मोदी राज के मंसूबों पर कम-से-कम झारखंड के स्तर पर पानी फेर दिया. आम चुनाव के संदर्भ में इसका एक इशारा, राज्य से कांग्रेस की इकलौती सांसद को और हेमंत सोरेन की भाभी को दलबदल करा के, हाथ के हाथ लोकसभा के लिए भाजपा का टिकट दे दिया जाना है.

बहरहाल, केजरीवाल की गिरफ्तारी के मामले में मोदी राज के मंसूबों की विफलता, और दूर तक जाती नजर आती है. अगर चुनाव से ठीक पहले इस तरह की कार्रवाई के पीछे यह विचार था कि केजरीवाल को जेल में डालने से, उनकी पार्टी पंगु हो जाएगी, चुनाव अभियान चलाने में असमर्थ हो जाएगी, तो साफ तौर पर यह विचार गलत साबित होने जा रहा है. दिल्ली की आम आदमी पार्टी की सरकार से लेकर, केजरीवाल की पार्टी के चुनाव प्रचार तक पर, शायद ही कोई असर पड़ता नजर आता है.

उल्टे आम आदमी पार्टी कहीं लड़ाकू तेवर में नजर आती है और चुनाव प्रचार के मंच से केजरीवाल की अनुपस्थिति से जो कमी रह भी जाएगी, उससे ज्यादा की भरपाई केजरीवाल के मोदी राज के जुल्म-ज्यादती के शिकार बनाए जाने की छवि कर देने वाली है.

वास्तव में इसका असर सिर्फ दिल्ली और इसके अलावा हरियाणा व पंजाब तक ही सीमित रहे, यह भी जरूरी नहीं है, हालांकि दिल्ली और हरियाणा में इंडिया गठबंधन की ओर से कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के बीच सीटों पर तालमेल हो चुका है. केजरीवाल की गिरफ्तारी पर, उनकी अपनी पार्टी ने ही नहीं, बल्कि समूचे विपक्ष ने जिस तरह से प्रतिक्रिया की है, उसमें इस गिरफ्तारी के देश भर में मोदी राज की तानाशाही के प्रतीक के रूप में देखे-पहचाने जाने की संभावनाएं नजर आती हैं.

केरल, तमिलनाडु आदि समेत, देश के अनेक हिस्सों में हुई विरोध कार्रवाइयां, इसी की ओर इशारा करती हैं. 31 मार्च को बुलायी गयी रामलीला मैदान की विरोध रैली, जिसमें इंडिया गठबंधन में शामिल सभी पार्टियों के नेताओं के शामिल होने की उम्मीद की जा रही है, जिसके लिए वामपंथ तथा कांग्रेस समेत सभी पार्टियां सक्रिय रूप से गोलबंदी कर रही हैं, इसी सिलसिले को और आगे ले जाएगी.

इस संदर्भ में 1977 के आम चुनाव की पूर्व-संध्या में दिल्ली के रामलीला मैदान में ही हुई विपक्ष की संयुक्त रैली की याद आना स्वाभाविक है, जिसने इमर्जेंसी के लिए जिम्मेदार श्रीमती गांधी की विदाई की पटकथा लिख दी थी. रामलीला मैदान एक बार फिर अपना यह इतिहास दोहरा पाता है या नहीं, नरेंद्र मोदी की विदाई की पटकथा लिख पाता है या नहीं, यह तो आने वाले हफ्तों और दो महीनों में पता चलेगा.

लेकिन, इतना तय है कि स्थितियां उसी ओर बढ़ती नजर आती हैं. केजरीवाल की गिरफ्तारी, नरेंद्र मोदी निजाम की बढ़ती तानाशाही को तेजी से बहस के केंद्र में ला रही है. यही वह धुरी है, जहां से नरेंद्र मोदी की गाड़ी को बेपटरी किया जा सकता है. पहले, ओडिशा में बीजू जनता दल और अब पंजाब में अकाली दल का भाजपा के गठबंधन के न्यौते को ठुकरा देना, इसी दिशा में एक और इशारा लगता है.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक पत्रिका 'लोकलहर' के संपादक हैं.)

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