(व्यंग्य: राजेंद्र शर्मा)
इसी को कहते हैं, भागते भूत की लंगोटी खींचने की कोशिश. मोदी जी के विरोधियों को चुनाव में कामयाबी नहीं मिली, तो अब मोदी जी पर सरकार बनाने में बेजा देर लगाने के इल्जाम लगा रहे हैं. फैसले लेने वाली पार्टी के फैसलों को ठंड ने जकड़ लिया या लकवा मार गया. चुनाव में पब्लिक का फैसला आए आठ दिन से ऊपर हो गए, पर मोदी जी का फैसला नहीं आया और मोदी जी का फैसला नहीं आया, तो मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के सीएम का फैसला नहीं आया. सुस्त कांग्रेस ने तेलंगाना को चौथे दिन सीएम दे दिया, मिजोरम में नयी पार्टी ने नया सीएम तय करने में चुनाव के फैसले के बाद पांचवां दिन नहीं लगाया, पर सबसे तेज पार्टी के सबसे तेज नेता के चक्कर में, हिंदी पट्टी के तीनों राज्यों को अब तक बिना सीएम के ही काम चलाना पड़ रहा है, वगैरह, वगैरह!
पर ये सब खामखां में मीन-मेख निकालने की बातें हैं. वर्ना हम पूछते हैं कि सीएम की कुर्सी को भरवाने की ऐसी जल्दी ही क्या है? सीएम की खाली कुर्सी इन विपक्षियों की आंखों में इतनी क्यों चुभ रही है? सीएम की कुर्सी है, तो इसका मतलब यह थोड़े ही है कि सारी जिंदगी सीएम का बोझ ही ढोती रहेगी. थोड़ी फुर्सत, थोड़ी राहत, थोड़ा चेंज तो सीएम की कुर्सी की भी जिंदगी में होना चाहिए. वैसे भी बुजुर्ग कह गए हैं कि जल्दी का काम शैतान का. मोदी जी से भगवान वाले कामों से कम की उम्मीद कोई नहीं करे. सिर्फ विरोधियों की कांय-कांय के डर से मोदी जी जल्दी में फैसला हर्गिज नहीं करेंगे. छप्पन इंच की इज्जत का सवाल है, फैसला तो पूरी तसल्ली के बाद ही होगा. कहावत भी तो है, सहज पके से मीठा होए. मोदी जी सीएम के उम्मीदवारों के इंतजार की आग में पकने का इंतजार कर रहे हैं, जो उनके लिए ज्यादा मीठा होगा, खुद-ब-खुद उनकी गोदी में टपक जाएगा.
वैसे भी सच्ची बात यह है कि जल्दी सीएम बनाने का कोई फायदा नहीं है, जबकि सीएम बनने से पहले ब्रेक आने के फायदे ही फायदे हैं. डेढ़-दो हफ्ता, इन राज्यों में सरकार नहीं रहेगी, तो उतना ही खर्चा कम होगा. बाकी मिनिमम गवर्नमेंट का काम तो नौकरशाही खुद-ब-खुद चला ही लेती है, बल्कि उसे भी अपने ऊपर सरकार को लादे रखने से थोड़ा सा ब्रेक तो मिलेगा. हम तो कहेंगे कि ब्रेक यानी बदलाव ही तो इन चुनावों में पब्लिक का फैसला है. वर्ना पब्लिक चाहती तो पहले वाले सीएम लोग से भी काम चला ही सकती थी. और ब्रेक से सब वर्तमान और संभावित दावेदारों को भी, इसका पता चल जाएगा कि ‘हुइहै वही जो मोदी रचि राखा’! जो मोदी जी सीएम का फैसला दस-पंद्रह दिन लटकवा सकते हैं, इसकी या उसकी दावेदारी को तो पक्के तौर पर लटकवा ही सकते हैं.
वैसे भी मप्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान में पब्लिक ने चुना तो मोदी जी को ही है. मोदी जी को सीएम चुनने के बाद, पब्लिक किसी और के सीएम की कुर्सी पर बैठने को मंजूर कैसे कर सकती है? फिर भी तकनीकी कारणों से अगर मोदी जी नहीं, मोदी जी का क्लोन भी नहीं, तो कम-से-कम वफादार खड़ाऊं तो डैमोक्रेसी का तकाजा है ही. खड़ाऊं की वफादारी ठोक-बजाकर देखने में टैम लग रहा है, तो डैमोक्रेसी की खातिर वह भी सही.
(व्यंग्यकार वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक 'लोकलहर' के संपादक हैं.)
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