(आलेख : बादल सरोज)
सुप्रीम कोर्ट की तल्ख टिप्पणियों के साथ दिए गए स्पष्ट आदेश को उलटने के लिए केंद्र सरकार द्वारा हठ और जिद के साथ लाया और 3 अगस्त को लोकसभा और 7 अगस्त को राज्यसभा में पारित कराया गया कथित दिल्ली सेवा क़ानून एक साथ चिंता, चेतावनी और सबक की बात है. चिंता इस बात की है कि अब धीरे-धीरे हमला भारत के संविधान की मूल अवधारणाओं को अपने निशाने पर ले रहा है.
संविधान की शुरुआत की पहली धारा ही भारत की ख़ास पहचान को दर्ज करती है. यह धारा कहती है कि "भारत दैट इज इंडिया राज्यों का एक संघ होगा." खुद डॉ. अम्बेडकर द्वारा प्रस्तावित और बहस के दौरान स्वयं उन्ही के द्वारा दिए गए संशोधन के साथ सर्वसम्मति से पारित भारत की यह पहचान सिर्फ शब्दों भर का मामला नहीं है. इसमें केंद्र और राज्यों के अधिकारों और कार्यक्षेत्रों को भी बाद में साफ़ साफ़ परिभाषित किया गया है. यह समझदारी सिर्फ संविधान निर्माताओं की सद्बुद्धि से नहीं आयी थी, इसके पीछे भारत के राष्ट्र राज्य बनने की प्रक्रिया में हासिल अनुभव थे, भारत की विविधता का स्वीकार था और उन्हें यथासंभव सम्मान देने की भावना थी.
यह अलग बात है कि बाद में इस संघीय ढाँचे की समझ के पालन में उस ईमानदारी का परिचय नहीं दिया गया, जिसका उल्लेख संविधान करता है. जैसे भाषाई राज्यों के आधार के साथ इस या उस बहाने छेड़छाड़ की गयी, धारा 356 का दुरुपयोग किया गया, राजभवनों से अतिक्रमण कराये गए, वगैरा-वगैरा -- मगर इस सबके बावजूद समय-समय पर केंद्र-राज्य संबंधों में संतुलन बनाए रखने की आवाजें भी पुरअसर तरीके से उठती रहीं0 ; इसकी आख़िरी बड़ी मिसाल सरकारिया आयोग की शक्ल में दिखी, जिसकी कई सिफारिशों को मंजूर भी किया गया.
कुल मिलाकर यह कि राजनीतिक तात्कालिकताओं और हिचकिचाहटों के बावजूद भारत के राज्यों के संघ बने रहने की राय पर देश की - एक को छोड़ बाकी सब - राजनीतिक धाराओं की कम या ज्यादा सहमति बनी रही. भाजपा के केंद्र सरकार पर काबिज होने का मतलब बाकी सब अन्य विशेषताओं के अलावा एक ऐसे राजनीतिक विचार का सत्ता में पहुंचना था, जिसका संविधान की इस पहली धारा और उसमे वर्णित भारत की समझदारी में विश्वास ही नहीं था.
जब ये विपक्ष में रहे, तब कथित प्रशासनिक आधार पर छोटे राज्यों की मागों को तूल देकर भाषाई आधार पर बने राज्यों की तार्किक और वैज्ञानिक समझदारी पर प्रहार किये गए - सत्ता में आने के बाद से तो जैसे इस पर बुलडोजर ही चढ़ाया जा रहा है. पहले जम्मू कश्मीर और अब दिल्ली से जो सिलसिला शुरू हुआ है, वह यहीं तक रुकेगा नहीं ; इससे आगे जाएगा. यह न तो भविष्यवाणी है ना ही आशंका है - यह सत्ता पार्टी के विचार-गुरुओं द्वारा घोषित सिद्धांत में लिखे पर अमल है.
भाजपा जिस राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की राजनीतिक भुजा है - उसके हिसाब से संविधान निर्माताओं द्वारा यह ढांचा "हिन्दूपन" को भुलाकर बनाया गया है. संविधान सभा जब संविधान लिखने में व्यस्त थी, तब आरएसएस प्रमुख गोलवलकर कह रहे थे कि:
“संविधान बनाते समय अपने ‘स्वत्व’ को, अपने हिंदूपन को विस्मृत कर दिया गया. उस कारण एक सूत्रता की वृत्तीर्ण रहने से देश में विच्छेद उत्पन्न करने वाला संविधान बनाया गया. हम में एकता का निर्माण करने वाली भावना कौन-सी है, इसकी जानकारी नहीं होने से ही यह संविधान एक तत्व का पोषक नहीं बन सका. एक देश, एक राष्ट्र तथा एक ही राज्य की एकात्मक शासन रचना स्वीकार करनी होगी. एक ही संसद हो, एक ही मंत्रिमण्डल हो, जो देश की शासन सुविधा के अनुकूल विभागों में व्यवस्था कर सके.” (गोलवलकर, ‘श्री गुरूजी समग्र दर्शन’, खंड-2, पृष्ठ 144)
वे यहीं तक नहीं रुके, बाद में उन्होंने एक जगह यह भी कहा कि :
“इस लक्ष्य की दिशा में सबसे महत्वपूर्ण और प्रभावी कदम यह होगा कि हम अपने देश के संविधान से संघीय ढांचे की सम्पूर्ण चर्चा को सदैव के लिए समाप्त कर दें, एक राज्य के अर्थात भारत के अंतर्गत अनेक स्वायत्त अथवा अर्ध स्वायत्त राज्यों के अस्तित्व को मिटा दें तथा एक देश, एक राज्य, एक विधानमंडल, एक कार्य पालिका घोषित करें. उसमें खंडात्मक, क्षेत्रीय, सांप्रदायिक, %भाषाई अथवा अन्य प्रकार के गर्व के चिन्ह को भी नहीं होना चाहिए. इन भावनाओं को हमारे एकत्व के सामंजस्य को विध्वंस करने का अवकाश नहीं मिलना चाहिए.” (एम. एस. गोलवलकर, विचार नवनीत, पृष्ठ -227)
क्योंकि संघ- और भाजपा के भी - एकमात्र गुरु जी के मुताबिक़:
"संघात्मक राज्य पद्धति पृथकता की भावनाओं का निर्माण तथा पोषण करने वाली, एक राष्ट्र भाव के सत्य को एक प्रकार से अमान्य करने वाली एवं विच्छेद करने वाली है. इसको जड़ से ही हटाकर तदनुसार संविधान शुद्ध कर एकात्मक शासन प्रस्थापित हो.” (गोलवलकर, ‘श्री गुरूजी समग्र दर्शन’, खंड-3, पृष्ठ 128)
चिंता और चेतावनी की बात यह है कि भाजपा अब पूरी तरह इस रास्ते पर निकल पड़ी है, यही बात है कि समस्या कश्मीर या दिल्ली भर की नहीं है .
सबक यह है कि गुड़ खाते हुए गुलगुलों से परहेज करने का डेढ़ सयानापन राजनीति में नहीं चलता. यह बात खुद को कुछ ज्यादा ही चतुर और समझदार मानने वाले आम आदमी पार्टी के सर्वेसर्वा अरविन्द केजरीवाल को जरूर समझनी चाहिये. केजरीवाल और उनकी पार्टी वह पहली गैर भाजपा पार्टी थी, जिसने जम्मू-कश्मीर जैसे विशिष्ट दर्जे वाले राज्य को खंड-खंड किये जाने और धारा 370 को हटाये जाने का सबसे पहले और कुछ ज्यादा ही उचक कर समर्थन किया था.
खुद केजरीवाल ने 5 अगस्त 2019 को अपने ट्वीट में कहा था कि:
"मैं सरकार के इस फैसले का समर्थन करता हूं. अब हम उम्मीद करते हैं कि सरकार के इस फैसले के बाद जम्मू-कश्मीर में शांति बहाल करने के साथ-साथ विकास कार्यों पर जोर दिया जाएगा."
अपनी इस प्रत्युत्पन्नमति पर आत्ममुग्ध केजरीवाल यह भूल गए थे कि जो भेड़िया धसान संविधान सम्मत समझदारी और भारतीय जनता के करार को तोड़ सकता है, वह सिर्फ श्रीनगर तक महदूद नहीं रहेगा -- वह दिल्ली भी लौटकर आयेगा.
सैद्दांतिक मुद्दों पर पूरी समग्रता में साफ़-साफ़ नजरिया कायम करने की बजाय सिर्फ दो-चार दिखावटी कामों के बखान से काम नहीं चलता!! यह सबक केजरीवाल भर के लिए नहीं, उन सबके लिए भी है, जो इस गलतफहमी में हैं कि बिना अँधेरे को अँधेरा कहे भी अंधेरा चीरा जा सकता है.
(लेखक पाक्षिक 'लोकजतन' के संपादक तथा अ. भा. किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं.)
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