(व्यंग्य: राजेंद्र शर्मा)
मोदी जी ने क्या कुछ गलत कहा था? राहुल गांधी अमेठी से भागे हैं कि नहीं. अमेठी से भागकर बगल में रायबरेली में गए हैं, पर भागे तो हैं. भागने के लिए दूर जाना जरूरी थोड़े ही है, बगल में भी भागकर जाया जा सकता है.
और माना कि राहुल रायबरेली से लड़ेंगे, पर अमेठी में लड़ने से तो भागे ही हैं और वह भी स्मृति ईरानी से मुकाबले से. और इंसान भागता तभी है, जब उसे डर लगता है. सच पूछिए, तो बड़े-बड़े धावक भी जो जोरों से भागते हैं, तो हार के डर से ही भागते हैं. पर इतनी सही बात कहने का भी मोदी जी को क्या सिला मिला? जिसे देखो, उल्टे बेचारे मोदी जी को ही सुना रहा है ही -- डरो मत, भागो मत!
और तो और मणिपुर जैसे संवेदनशील मामले में भी भाई लोग मोदी जी को ताने मारने से बाज नहीं आ रहे हैं. कहते हैं कि मणिपुर को जलते एक साल हो गया, आपको उसकी तरफ देखने की फुर्सत नहीं हुई, कोई बात नहीं. आग ससुरी धधकती ही जा रही है, आपकी वहां चुनाव प्रचार करने की हिम्मत नहीं हुई, कोई बात नहीं. पर आप मणिपुर की दो में से एक सीट छोड़कर ही क्यों भाग गए?
राहुल गांधी की पार्टी तो फिर भी अमेठी और रायबरेली, दोनों से चुनाव मैदान में है, पर आप की पार्टी तो आउटर मणिपुर की सीट ही छोड़कर भाग गयी, गांठ की जीती हुई सीट छोड़कर. राहुल गांधी तो अमेठी से हार गए थे, पर आप की पार्टी तो आउटर मणिपुर से भी जीती थी, फिर भी इस बार भाग गए. साहेब यह कैसा डर है -- अपनी ही लगायी आग के नतीजों का!
और जिनकी मणिपुर से भागने पर नजर नहीं पड़ी, वे भी कश्मीर से भागने पर तानाकशी करने से बाज नहीं आ रहे हैं. कह रहे हैं कि कश्मीर में अब किस से डर गए? कश्मीर को तो अब सच्ची आज़ादी मिल चुकी है -- धारा-370 से आज़ादी. वैसे आज़ादी अब तक चुनाव वगैरह से भी मिली हुई है.
और बाकी हर तरह की आजादियों से भी आज़ादी. शहरी आजादियों से आज़ादी. प्रेस-व्रेस की आज़ादी से आज़ादी. राजनीतिक गतिविधियों से आज़ादी. दिल्ली से राज चलाने वालों को, जम्मू-कश्मीर की पब्लिक से आज़ादी. और कश्मीर की इस आज़ादी का नाम ले-लेकर, बाकी सारे देश में चुनाव में वोट बटोरने की भी आज़ादी. फिर कश्मीर में ही चुनाव के मैदान से क्यों भाग गए? घाटी की तीन की तीनों सीटों पर उम्मीदवार खड़े करने से ही डर गए.
कमाल है 2019 के चुनाव में, जब कश्मीर को धारा-370 से आज़ादी हासिल नहीं हुई थी, तब तो आप की पार्टी जम्मू और लद्दाख के साथ, घाटी की तीनों सीटों पर भी चुनाव लड़ी थी. हार तय मानकर लड़ी थी, फिर भी चुनाव लड़ी थी. कश्मीरियों पर इतनी मेहरबानियां करने के बाद कैसे मोदी जी की पार्टी डर गयी और घाटी अपने शिखंडियों के नाम कर के ही भाग गयी.
और हद तो यह है कि बृजभूषण शरण सिंह के मामले में मोदी जी के मास्टर स्ट्रोक को भी विरोधी डरने और भागने का मामला बनाने की कोशिश कर रहे हैं. बताइए, मोदी जी ने बृजभूषण का टिकट काटकर नारी का सम्मान किया है कि नहीं? रही बात महिला पहलवानों के यौन उत्पीड़न वगैरह के आरोपों की तो, उन पर अदालत में कार्रवाई चल तो रही है. और क्या मोदी जी मनमाने तरीके से अगले को फांसी चढ़ा देते या योगी जी उसके घर पर बुलडोजर भिजवा देते?
न भाई न, कानून का राज भी एक चीज होती है. और जब कानून अपना काम कर रहा है, बृजभूषण भी अपना काम कर रहा है, तो आधुनिक चाणक्यों को भी अपना काम करना ही था. बृजभूषण का टिकट काटकर, उसके खिलाफ शिकायत करने वालों का मुंह बंद करा दिया और बेटे करण भूषण को टिकट थमाकर, बृजभूषण को भी खुश कर दिया.
कम-से-कम इसमें डरने और भागने वाली तो दूर-दूर तक कोई बात ही नहीं है. न तो महिला पहलवानों वगैरह के शोर के डर से बृजभूषण का टिकट काटा गया है और न बृजभूषण के डर से करण भूषण के लिए टिकट बांटा गया है. यह किसी डर का नहीं, प्राकृतिक उत्तराधिकार का मामला है -- बाप का टिकट बेटे को नहीं मिलेगा, तो क्या पड़ोसियों को मिलेगा? और रही भागने की बात, तो अब बाप-बेटा मिलकर, जाहिर है कि मोदी जी की कृपा से, भारतीय कुश्ती पर अपने दबदबे के विरोधियों को भगाएंगे.
और कुछ लोग जबर्दस्ती सूरत से लेकर इंदौर तक के मामलों को, मोदी जी के डरने और भागने का मामला साबित करने की कोशिश कर रहे हैं. यह सरासर ज्यादती है. खजुराहो, सूरत, इंदौर और सुना है अब गांधीनगर भी, किसी डर के नहीं, किसी भागने के नहीं, मोदी जी की मजबूती के नाम हैं. और जो मजबूत होता है, वह डरता नहीं है, उल्टे दूसरों को डराता है.
कमाल की बात है, विरोधी एक तरफ कह रहे हैं कि खरीदकर, नहीं तो डरा-धमकाकर, विरोधी उम्मीदवारों को जबर्दस्ती बैठाया जा रहा है, बिना मुकाबले के खुद को जीता घोषित कराया जा रहा है. दूसरी तरफ कहते हैं कि मोदी डर रहा है, मुकाबले से भाग रहा है. भाइयों तय कर लो, मोदी डर रहा है या डरा रहा है ; मोदी मुकाबले से भाग रहा है या भगा रहा है! और रही बात डेमोक्रेसी की, तो उम्मीदवार खड़े हो जाएं, मुकाबला हो जाए, हार-जीत हो जाए ; यह तो मामूली से मामूली डेमोक्रेसी में भी हो जाता है. डेमोक्रेसी की मम्मी क्या इतने पर ही रुक जाएगी? हर्गिज नहीं.
हम एक देश, अनेक चुनाव से, पहले एक देश, एक चुनाव और फिर वन नेशन, नो इलेक्शन की ओर जाएंगे. एक चुनाव, एक उम्मीदवार ; इसी दिशा में एक बड़ा कदम है. और चूंकि डेमोक्रेसी की मम्मी जी का मामला है, एक उम्मीदवार तक पहुंचने के भी कई विकल्प हैं : खजुराहो मॉडल, सूरत मॉडल, इंदौर मॉडल और अब गांधीनगर मॉडल. एक उम्मीदवार तक पहुंचने के मॉडल ही मॉडल, चुन तो लें. चुनाव आयोग, अदालत वगैरह से बस इतनी सी अर्ज है -- मम्मी की लोरियां सुनो और सोते रहो!
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और 'लोक लहर' के संपादक हैं.)
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