होशपूर्वक!
छोटी सी कहानी से शुरुआत करते हैं. बात ज़रा पुरानी है. किसी समय एक शहर में दो समानांतर गलियां थीं. एक दरवेश किसी दिन एक गली से दूसरी गली में जा पहुंचे और लोगों ने देखा कि उनकी आंखों में आंसू है. ‘दूसरी गली में कोई मर गया है', एक आदमी ने उनको देखते हुए कहा. तुरंत ही उसकी बात को बच्चों ने दूर तक पहुंचा दिया. चीख-पुकार मचा दी. जबकि हुआ यह था कि वहां असल में प्याज छिल रहे थे. थोड़ी ही देर में बच्चों की आवाज पहली गली में पहुंच गई. दोनों गलियों के लोग इतने दुखी और भयभीत हुए कि चीख-पुकार का कारण जानने की हिम्मत नहीं हुई. संभव है, इन गलियों में उसके पहले किसी की मृत्यु ना हुई हो! जो हमारे आसपास नहीं होता, हम यही मानकर चलते हैं कि वह दुनिया में नहीं होगा.
इस बीच एक समझदार आदमी ने सब को समझाने की कोशिश की लेकिन लोग इतनी घबराहट और दुविधा में थे कि उन्हें इसका होश भी ना रहा कि वह क्या कर रहे हैं. इतने में किसी ने कहा- दूसरी गली में प्लेग फैल गया है. यह अफवाह भी जंगल की आग की तरह फैल गई. लोगों ने मान लिया कि दूसरी गली में कयामत आई है. पहली गली के लोगों को भी इसी तरह की जानकारी मिली. कुछ देर बाद दोनों गली के लोगों ने तय कर लिया कि आत्मरक्षा के लिए उन्हें शहर छोड़ देना चाहिए. अंततः हुआ यह कि पूरा शहर खाली हो गया. वहां के लोग दूसरी जगह जाकर बस गए.
कहते हैं, सदियों के बाद भी वह शहर उजाड़ है. उससे दूर हट कर दो गांव हैं जहां की परंपराएं कहती हैं कि उनके पुरखे किसी अज्ञात अनिष्ट से बचने के लिए कभी किसी अभिशप्त नगर को छोड़कर यहां आए थे! कहानी पुरानी है, लेकिन हमारा लोक व्यवहार इससे अलग नहीं हुआ. हम सामाजिक वैज्ञानिकता और गहन प्रेम की छांव से बहुत दूर हैं.
हमारे फैसले नींद में होते हैं. परंपरा, अतीत और लीक की गहरी नींद से चिपके रहना भला लगता है. होशपूर्वक निर्णय न करना गंभीर रोग है. जो चल रहा है, जिसका शोर है. उसी ओर दौड़े जा रहे हैं. अपने कितने फैसले करते हैं, हम! समानांतर गलियों जैसे हमने समानांतर जीवन बना लिए, जो कहीं एकदूसरे से मिलते नहीं. हम साथ हैं, लेकिन दूरियां, मिटती नहीं! हमारा अस्तित्व अहंकार की दीवारों में कैद है. एकदूसरे को झुका कर प्रेम की छांव नहीं मिलती!
हमारे जीवन में संवाद के साधन तो खूब सारे बढ़ गए. सरल हो गए. इसके बाद भी हमारे बीच की संवादहीनता और अकेलापन बढ़ता ही जा रहा है. समानांतर जीवन जीने वाले लोग एकदूसरे को जानते तो हैं लेकिन एकदूसरे के साथ नहीं होते. अकेलापन, उसी तरह जीवन में धीरे-धीरे उतरता है. जैसे अंधेरा उतरता है, घर में धीरे-धीरे. अचानक से नहीं, धीरे-धीरे. इसलिए कई बार हम समझ नहीं पाते. हमें अचानक सूचना मिलती है, किसी व्यक्ति ने अपने लिए कोई कदम उठा लिया. सब यही कहते हैं कि अरे उसने कैसे कर लिया? कभी लगा नहीं कि वह इतना दुखी है. कभी हमने जानने की कोशिश भी तो नहीं की. एक प्रकार का बेहोशी जो जी रहे हैं.
जिसे हम आगे बढ़ना कहते हैं, वह हमेशा आगे बढ़ना नहीं होता. नदी का सहज पानी भी आगे बढ़ता है और बाढ़ का भी. हम जानते हैं, दोनों के शहर से मिलने में कितना फर्क है! हमें छोटे-छोटे निर्णय करते हुए भी होशपूर्वक रहने का अभ्यास करना होगा. हमारे निर्णय बाजार और उपभोक्तावादी विचार से कितने जुड़े हैं और कितनी हमारी जरूरत से, दोनों का अंतर हमें बहुत सरलता से होश और बेहोश का फर्क बता सकता है. जीवन में बहुत सारा अवसाद, दुख और तनाव बेहोशी में लिए जा रहे निर्णय के कारण उपस्थित हुआ है.
जीवन की शुभकामना सहित...
-दया शंकर मिश्र
(Disclaimer: लेखक देश के वरिष्ठ पत्रकार हैं. ये लेख डिप्रेशन और आत्महत्या के विरुद्ध लेखक की किताब 'जीवन संवाद' से लिया गया है.)
भिलाई की स्मृति नगर चौकी पर पथराव, पुलिस ने 14 लोगों पर दर्ज किया मामला
शबरी पार छत्तीसगढ़ दाखिल हो रहे नक्सली का एनकाउंटर, एक जवान भी घायल
Copyright © 2021 Newsbaji || Website Design by Ayodhya Webosoft