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मोदी सरकार की किसानों को गारंटियां: विश्वासघात की कहानी

 Newsbaji  |  Mar 31, 2024 10:32 AM  | 
Last Updated : Mar 31, 2024 10:32 AM
सरकार किसानों और मेहनतकशों को दी गई गारंटियों  को लागू करने में विफल रही है.
सरकार किसानों और मेहनतकशों को दी गई गारंटियों को लागू करने में विफल रही है.

(आलेख: वीजू कृष्णन)
देश भर में विज्ञापन पटलों और प्रचार माध्यमों द्वारा जोर-शोर से मोदी सरकार की गारंटियों का प्रचार किया जा रहा है और दावा किया जा रहा हैं कि भाजपा के घोषणापत्र में उल्लेखित विभिन्न वादों या गारंटियों को सफलतापूर्वक लागू किया गया है, क्योंकि मोदी है, तो मुमकिन है (मोदी सब कुछ संभव कर सकते हैं.). लेकिन वास्तविकता यह है कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार किसानों और मेहनतकशों को दी गई गारंटियों  को लागू करने में विफल रही है. दरअसल इसकी टैगलाइन होनी चाहिए: मोदी सरकार की हर गारंटी फेल, क्योंकि उनकी सरकार ने केवल अंबानी, अडानी जैसों के लिए ही सब कुछ संभव किया है. इसका सबसे ज्वलंत उदाहरण अंतर्राष्ट्रीय वित्त पूंजी के आदेश पर और करोड़ों भारतीयों की कीमत पर लाए गए कॉर्पोरेट समर्थक कृषि कानून हैं.

गारंटी- 1: कृषि संकट और किसानों की आत्महत्या का अंत
पिछले 10 वर्षों में 1,12,000 से अधिक किसानों और खेत मजदूरों ने आत्महत्याएँ की हैं. एनसीआरबी आंकड़ों के अनुसार (यदि वर्ष 2023 के लिए औसत आंकड़ों को भी गणना में लिया जाएं) वर्ष 2014-23 के बीच 3,12,214 से अधिक दैनिक वेतन भोगी (दिहाड़ी) मजदूरों द्वारा आत्महत्याएं की गई हैं. कई राज्यों ने सच्चाई का खुलासा नहीं किया है या आंकड़ों में हेराफेरी की है. इन अनुदार अनुमानों के अनुसार भी नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाले भाजपा शासन के दौरान लगभग 4,25,000 किसानों, खेत मजदूरों और दिहाड़ी मजदूरों (जो किसान परिवारों से ही संबंध रखते है) ने आत्महत्या की है.

इन आंकड़ों में महिला किसान, भूमिहीन किसान, खेत मजदूर, भूमिहीन किरायेदार या  बंटाईदार किसान, वनों में काम करने वाले मजदूर, मछली श्रमिक और अन्य शामिल नहीं हैं. मानव-जाति के संपूर्ण इतिहास में ऐसी अभूतपूर्व और अकल्पनीय मानवीय त्रासदी उन नीतियों की देन है, जो मोदी सरकार पिछले दस वर्षों से लागू कर रही है. दरअसल, नरेंद्र मोदी और उनकी टीम उन्हें आत्महत्या के लिए उकसाने के अपराध की दोषी है.

गारंटी- 2: C2+50% फॉर्मूला के अनुसार सुनिश्चित न्यूनतम समर्थन मूल्य
वर्ष 2014 में किसानों को नरेंद्र मोदी और भाजपा ने एक आकर्षक वादे के साथ लुभाया था कि उनकी उपज को सी-2+50% फॉर्मूले के अनुसार उत्पादन की सकल लागत सी-2 से कम-से-कम डेढ़ गुना न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर खरीदा जाएगा. (सी-2 लागत = भुगतान की गई सभी लागतें + पारिवारिक श्रम का आरोपित मूल्य + स्वामित्व वाली भूमि का किराये का मूल्य + निश्चित पूंजी पर ब्याज). बहरहाल, भाजपा सरकार ने बाद में सुप्रीम कोर्ट में एक हलफनामा दायर किया कि उसके वादे के अनुसार एमएसपी निर्धारित करना संभव नहीं होगा, क्योंकि इस तरह की वृद्धि से बाजार विकृत हो जाएगा.
 
मोदी सरकार ने आसानी से अपने  लक्ष्य को सी-2 से ए-2+एफएल लागत (भुगतान की गई लागत + पारिवारिक श्रम का अनुमानित मूल्य) में स्थानांतरित कर दिया है. इसमें स्वामित्व वाली भूमि का किराया मूल्य और निश्चित पूंजी पर ब्याज शामिल नहीं है और अधिकांश फसलों में यह सी-2 लागत से काफी कम है. हालाँकि, ए-2+एफएल फॉर्मूले के अनुसार गणना की गई कीमतों में भी एक पेंच है.

कृषि लागत और मूल्य आयोग (सीएसीपी) प्रत्येक राज्य के लिए वास्तविक लागत को कम करता है और एमएसपी की गणना के लिए अखिल भारतीय भारित औसत लेता है. आंध्र प्रदेश, बिहार, कर्नाटक, केरल, महाराष्ट्र, पंजाब, तमिलनाडु, तेलंगाना और पश्चिम बंगाल द्वारा धान की उत्पादन लागत का अनुमान सीएसीपी अनुमानों से अधिक है. इसमें बढ़ती इनपुट लागत या मुद्रास्फीति के कारक को ध्यान में नहीं रखा गया है.
 
धान के मामले में कृषि लागत और मूल्य आयोग द्वारा निर्धारित सी-2 लागत 1911 रूपये/क्विंटल है, तो सी-2+50% के आधार पर एमएसपी 2866.50 रूपये/क्विंटल होनी चाहिए, लेकिन केंद्र सरकार द्वारा निर्धारित एमएसपी केवल 2183 रूपये/क्विंटल है. राज्यों की सी-2 लागत की गणना का भारित औसत 2139 रूपये/क्विंटल है, जिसके आधार पर सी-2+50% (एमएसपी) 3208.50 रुपये/क्विंटल होना चाहिए था. इस प्रकार किसानों को सीएसीपी की सी-2 लागत पर 683.50 रुपये/क्विंटल तथा राज्यों की सी-2 लागत पर 1025.50 रुपये/क्विंटल नुकसान उठाना पड़ रहा है.

आंध्र प्रदेश में धान का औसत उत्पादन 6 टन/हेक्टेयर है. इससे हर किसान को इन लागतों पर क्रमशः 41,010 रुपये/हेक्टेयर और 61,530 रुपये/हेक्टेयर का नुकसान हो रहा है. आंध्र प्रदेश में धान की खेती 22 लाख हेक्टेयर से अधिक क्षेत्र में होती है. इससे राज्य के किसानों को प्रति सीजन 9020 करोड़ रुपये से लेकर लगभग 13,540 करोड़ रुपये तक का नुकसान हो रहा है.

इसी प्रकार, कपास के लिए सीएसीपी द्वारा निर्धारित सी-2 लागत 5786 रुपए/क्विंटल है, जिससे सी-2+50% 8679 रूपये/क्विंटल होगा, जबकि केंद्र सरकार द्वारा एमएसपी केवल 6,620 रूपये/क्विंटल दिया जा रहा है. इससे किसानों को 2059 रूपये/क्विंटल का नुकसान हो रहा है. तेलंगाना राज्य का सी-2 अनुमान 11031 रूपये/क्विंटल है, जबकि सीएसीपी का अनुमान केवल 6264 रूपये/क्विंटल है, जो राज्य के अनुमान से काफी नीचे और 4767 रूपये/क्विंटल कम है. राज्य का सी-2+50% 16547 रूपये/क्विंटल होगा, जो केंद्र सरकार द्वारा घोषित एमएसपी से 9927 रूपये/क्विंटल अधिक होगा.

15 क्विंटल/हेक्टेयर के औसत उत्पादन को ध्यान में रखते हुए सीएसीपी द्वारा निर्धारित सी-2 लागत पर तेलंगाना के किसानों को 30,885 रुपये/हेक्टेयर और राज्य की सी-2 लागत पर 1,48,905 रुपये/हेक्टेयर का घाटा हो रहा है. यह देखते हुए कि राज्य में कपास का रकबा लगभग 19 लाख हेक्टेयर है, तेलंगाना राज्य के किसानों के लिए इस नुकसान का आंकलन 5868 करोड़ रुपये से लेकर 28,291 करोड़ रुपये तक बैठता है. कोई भी कल्पना कर सकता है कि केंद्र सरकार के इस रुख से किसानों को कितनी निराशा हो रही होगी और कपास क्षेत्र में किसानों की आत्महत्याएं क्यों बढ़ रही हैं.

वर्ष 2011 में रबर किसान को 230 रुपये प्रति किलोग्राम मिलता था, जो अब गिरकर 124 रुपये प्रति किलोग्राम हो गया है. एक हेक्टेयर वाला किसान औसतन 1000 किलोग्राम रबर  का उत्पादन करता है. पहले आय 2,30,000 रुपये थी, जो अब वर्ष 2023 में गिरकर 1,24,000 रुपये रह गई है और उसे 1,06,000 रुपये/हेक्टेयर का घाटा हो रहा है. भाजपा सरकार द्वारा अपनाए गए भारत-आसियान एफटीए जैसे असमान मुक्त व्यापार समझौते सहित दोषपूर्ण व्यापार नीतियां इस स्थिति के लिए जिम्मेदार है.

गारंटी- 3: वर्ष 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करना
28 फरवरी 2016 को, केंद्रीय बजट की पूर्व संध्या पर, प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने वर्ष 2022 तक 'किसानों की आय दोगुनी करने' का एक और वादा किया था, क्योंकि इस वर्ष भारत आजादी के 75 साल पूरे कर रहा था. बहरहाल, वर्ष 2021 में जारी कृषि परिवारों की स्थिति पर आकलन/सर्वेक्षण के 77वें दौर से पता चलता है कि वर्ष 2018-19 में कृषक परिवारों की अनुमानित मासिक आय नाममात्र की केवल 10,218 रुपये प्रति माह और  सालाना लगभग 1,22,616 रुपये थी, जो कि वर्ष 2022 के लिए मौजूदा कीमतों पर लक्षित 2,71,378 रुपये या 22,610 रुपये प्रति माह की लक्षित आय के करीब भी नहीं है.

आज भारत के आधे से अधिक कृषक परिवार कर्ज में डूबे हुए हैं, जिनका औसत बकाया कर्ज 74,121 रुपये है, जबकि वर्ष 2013 में यह 47,000 रुपये था. इस प्रकार पिछले एक दशक में किसानों की कर्जदारी में 57 प्रतिशत की वृद्धि है. वर्ष 2013 और 2019 के बीच, यानी, कोविड-पूर्व वर्षों में, ऋणग्रस्त किसानों की संख्या तेजी से बढ़कर 9.02 करोड़ से  9.30 करोड़ हो गई है और औसत बकाया ऋण वर्ष 2013 की तुलना में 1.6 गुना बढ़ गया है. कोविड के बाद का परिदृश्य तो और भी निराशाजनक है.

गारंटी- 4: मनरेगा के तहत 200 दिन का काम और अधिक मजदूरी
इस मामले में वास्तव में, महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) के आबंटन में भारी कटौती की गई है. यदि वित्त वर्ष 2014-15 में आबंटन कुल बजट का 1.85 प्रतिशत था, तो वित्त वर्ष 2023-24 में यह घटकर बेहद कम 1.33 प्रतिशत रह गया है. भले ही 100 दिनों के काम के सफल क्रियान्वयन के लिए 2 लाख करोड़ रूपये से अधिक की आवश्यकता हो, वर्ष 2023-24 में आबंटन केवल 60,000 करोड़ रुपये था, जो पिछले वर्ष की तुलना में 33 प्रतिशत कम है.

वर्ष 2023-24 के संशोधित अनुमान में यह 86,000 करोड़ रुपये था और वर्ष 2024-25 के अनुमान में इसे नहीं बढ़ाया गया है. आज मनरेगा ऐसी स्थिति में है, जहां हजारों करोड़ रुपये का मजदूरी भुगतान लंबित है. केंद्र सरकार पर अकेले पश्चिम बंगाल का 7,000 करोड़ रुपये से अधिक बकाया है और केंद्र और राज्य सरकार की अक्षमता के कारण लाखों लोगों को काम के अधिकार और मजदूरी से वंचित होना पड़ा है. यदि हम पिछले 6 वर्षों पर विचार करें, जिसमें महामारी के वर्ष भी शामिल हैं, तो प्रति वर्ष औसत कार्य दिवस 50 दिनों से कम है.

लिबटेक इंडिया की एक रिपोर्ट के अनुसार, पिछले 21 महीनों में 7.6 करोड़ रोजगार कार्ड निरस्त कर दिए गए हैं. मजदूरों को दिया जाने वाला औसत वेतन 240 रुपये प्रतिदिन से भी कम है. आधार-आधारित भुगतान प्रणाली, ऑनलाइन उपस्थिति, जाति-वार फंड आबंटन सहित बहिष्करण के उपायों ने अधिकांश मजदूरों को प्रभावित किया है और 100 दिनों का रोजगार प्रदान करने की योजना के लक्ष्य के बावजूद, यह केवल कागज पर ही बना हुआ है.

गारंटी- 5: सभी किसानों के लिए जोखिम न्यूनतम करना और बीमा कवर
वास्तविकता यह है कि किसानों को बीमा से वंचित किया जा रहा है, जबकि बीमा कंपनियाँ अत्यधिक मुनाफा कमा रही हैं. खरीफ 2016 में प्रधान मंत्री फसल बीमा योजना (पीएमएफबीवाई) के लॉन्च के बाद से, वित्त वर्ष 2022 के अंत तक एकत्रित सकल प्रीमियम लगभग 197657.20 करोड़ रुपये (1.97 ट्रिलियन रुपये) रहा है, जबकि रिपोर्ट किए गए दावे 1,40,037.88 करोड़ रुपये (1.40 ट्रिलियन रुपये) हैं.

वर्ष 2016-17 से वर्ष 2021-22 के दौरान बीमा कंपनियों को 57,619.32 करोड़ रुपये मिले हैं. भाजपा सरकार के अनुसार, 4 से 6 करोड़ किसान पीएमएफबीवाई के तहत नामांकित हैं, लेकिन रबी 2022-23 के दौरान केवल 7.8 लाख किसानों को ही मात्र 3,878 करोड़ रुपये के  दावों का भुगतान किया गया है, जो इस योजना की पूरी विफलता को उजागर करता है. बेहतर होगा कि इस योजना का नाम बदलकर प्रधानमंत्री कॉरपोरेट बीमा योजना कर दिया जाए!

आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल और यहां तक कि प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के गृह राज्य गुजरात जैसे सात बड़े राज्य उच्च लागत और कम दावा अनुपात के कारण इस योजना से बाहर हो गए थे. यह किसानों के बीच इस योजना की विफलता और अलोकप्रियता को दर्शाता है, क्योंकि योजना में बड़ी खामियां हैं और किसानों के दावों का निपटान नहीं किया गया है.

पीएमएफबीवाई के तहत जो क्षेत्र वर्ष 2016-17 में 570.8 लाख हेक्टेयर था, वर्ष 2022-23 में गिरकर केवल 487.4 लाख हेक्टेयर रह गया, जो कुल कृषि भूमि (1540 लाख हेक्टेयर) के एक तिहाई से भी कम है. वर्ष 2024-25 में पीएमएफबीवाई के लिए आबंटन भी वर्ष 2023-24 के संशोधित अनुमान से कम है और भाजपा सरकार ने प्रीमियम में केंद्र की देनदारी को असिंचित क्षेत्रों और फसलों के लिए 30% और सिंचित क्षेत्रों या फसलों के लिए 25% तक सीमित कर दिया है. इससे राज्यों पर बोझ बढ़ेगा और उन्हें अतिरिक्त प्रीमियम सब्सिडी वहन करनी होगी.

गारंटी- 6: हर खेत को पानी/सिंचाई
वर्ष 2015 में प्रधान मंत्री कृषि सिंचाई योजना (पीएमकेएसवाई) को मंजूरी दी गई थी और यह दावा किया गया था कि पांच वर्षों के लिए 50,000 करोड़ रुपये का परिव्यय, यानी प्रति वर्ष 10,000 करोड़ रुपये का औसत परिव्यय सुनिश्चित किया जाएगा और 'हर खेत को पानी' की चुनावी गारंटी दी गई. इस योजना का क्रियान्वयन अब वर्ष 2026 तक बढ़ा दिया गया है. अब हर साल औसत आबंटन 10,000 करोड़ रुपये से कम हो गया है और कुल मिलाकर 1,00,000 करोड़ रुपये आबंटित करने के चुनावी वादे की तुलना में 30,000 करोड़ रुपये से अधिक की कटौती हो गई है.

पीएमएसकेवाई स्वयं उन योजनाओं का एकत्रीकरण है, जो पहले से मौजूद थीं : जैसे कि त्वरित सिंचाई लाभ कार्यक्रम (एआईबीपी), कमांड क्षेत्र विकास और जल प्रबंधन और सूक्ष्म सिंचाई के लिए सब्सिडी योजना आदि. पीएमएसकेवाई योजना की पूर्ण विफलता को इस तथ्य से समझा जा सकता है कि हर खेत को पानी के भूजल घटक के तहत, वर्ष 2015 से 2021 तक छह वर्षों की अवधि में, केवल 35,953 किसानों को कुओं के निर्माण या पंपों की स्थापना से लाभ हुआ है. त्वरित सिंचाई लाभ कार्यक्रम (एआईबीपी) के तहत, 76 लाख हेक्टेयर सिंचाई क्षमता वाली 99 परियोजनाएं दिसंबर 2019 तक पूरी होने की उम्मीद थी, लेकिन वर्ष 2016 और 2022 के बीच केवल 24 लाख हेक्टेयर कृषि भूमि पर नई सिंचाई क्षमता बनाई गई.

यह वर्ष 2002-2007 में 10वीं पंचवर्षीय योजना में बनाई गई क्षमता 45.9 लाख हेक्टेयर तथा वर्ष 2007-2012 में 11वीं  पंचवर्षीय योजना में बनाई गई क्षमता 57.7 लाख हेक्टेयर से काफी कम है. किसानों को सब्सिडी वाले सूक्ष्म सिंचाई उपकरण उपलब्ध कराने के मौजूदा प्रावधान भी अपर्याप्त बने हुए हैं. पीएमकेएसवाई के "प्रति बूंद अधिक फसल" घटक का लक्ष्य वर्ष 2015-2020 के दौरान सूक्ष्म सिंचाई प्रौद्योगिकियों के तहत क्षेत्र को लगभग एक करोड़ हेक्टेयर तक बढ़ाना था, लेकिन उपलब्धि लक्ष्य से कम रही है और वर्ष 2022 तक केवल लगभग 62 लाख हेक्टेयर भूमि सूक्ष्म सिंचाई के अंतर्गत कवर की गई है.

अब भी लगभग 14 करोड़ कृषि जोत के पास किसी भी स्रोत से सिंचाई नहीं है. यह भी उल्लेखनीय है कि वर्ष 2015-2021 तक भारतीय किसान लगभग 3.5 करोड़  हेक्टेयर (उन क्षेत्रों को ध्यान में रखते हुए, जहां फसल का नुकसान 33% और उससे अधिक था) में सूखे और परिणामी फसल के नुकसान से प्रतिकूल रूप से प्रभावित हुए थे . पत्रकार विवेक गुप्ता को सूचना का अधिकार (आरटीआई) अधिनियम के तहत केंद्रीय कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय के सूखा प्रबंधन सेल द्वारा यह  जानकारी प्रदान की गई है. दक्षिण भारत में वर्ष 2016 का सूखा वर्ष 1876 के बाद सबसे खराब सूखा था. सीमांत और छोटे किसान तथा बंटाईदार किसान, जो कुल किसानों का 80 प्रतिशत से अधिक हैं, चरम मौसम की घटनाओं के प्रति सबसे अधिक संवेदनशील हैं. 'हर खेत को पानी' की सारी बातें खोखला प्रचार है और यह मोदी की एक और असफल गारंटी है.

गारंटी - 7 : 60 साल तक पहुंचने पर किसानों को पेंशन
प्रधान मंत्री किसान मानधन योजना 60 वर्ष से अधिक आयु के सभी पात्र छोटे और सीमांत किसानों को पेंशन के बजाय, 3000 रुपये की न्यूनतम निश्चित राशि  देने का वादा करती है. यह योजना एक स्वैच्छिक और अंशदायी पेंशन योजना है, जिसमें प्रवेश की आयु 18 से 40 वर्ष तक है, लेकिन अब तक किसी भी किसान को एक रुपया भी नहीं मिला है. इस योजना की विश्वसनीयता इतनी कम है कि सिर्फ लगभग 22 लाख किसानों ने ही इसमें नामांकन कराया है. यह नरेंद्र मोदी और भाजपा का एक और जुमला है.

न भूलेंगे, न माफ करेंगे!
अन्य सभी गारंटी जैसे सस्ते इनपुट का प्रावधान, मूल्य स्थिरीकरण कोष आदि भी विफल हो गए हैं. किसानों की दुर्दशा के प्रति नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार की घोर संवेदनहीनता को इस बात से समझा जा सकता है कि इस गंभीर कृषि संकट के बीच भी कृषि मंत्रालय ने पिछले पांच वर्षों में अपने आबंटित बजट से एक लाख करोड़ रुपये से अधिक का समर्पण कर दिया है. इस गंभीर संकट के समय में भाजपा सरकार ने राज्य-नियंत्रित बाजारों और सार्वजनिक स्टॉक-होल्डिंग को खत्म करके और अनुबंध खेती को बढ़ावा देकर कृषि को कॉर्पोरेट बनाने के लिए तीन कृषि कानूनों को लाने की कोशिश की.

वह बिजली का निजीकरण और प्री-पेड स्मार्ट मीटर लेकर आगे बढ़ रही है, जिससे किसानों की कमर टूट जाएगी. दोषपूर्ण व्यापार नीति, भारत-आसियान मुक्त व्यापार समझौता, कॉर्पोरेट पूंजीपतियों के इशारे पर शून्य शुल्क पर आयात आदि ने किसानों को संकट में डाल दिया है. चुनावी वर्ष में भी, अंतरिम केंद्रीय बजट 2024-25 में ग्रामीण अर्थव्यवस्था और कृषि क्षेत्र के लिए कुछ भी खास नहीं था.

वर्ष 2022-23 से तुलना करने पर वर्ष 2024-25 के बजट में कृषि और संबद्ध गतिविधियों के लिए आबंटन में 81000 करोड़ रुपयों की भारी कटौती की गई है. कृषि और संबद्ध गतिविधियों के लिए कुल आबंटन में वर्ष 2022-23 में वास्तविक व्यय की तुलना में 22.3% की गिरावट आई है और वर्ष 2023-24 के संशोधित बजट की तुलना में 6% की गिरावट आई है. चुनावी बॉन्ड पर खुलासे कॉरपोरेट्स और भाजपा द्वारा अपनाई गई कृषि नीति के बीच गहरे संबंध को उजागर कर रहे हैं.

किसानों के लिए गारंटी के नाम पर मोदी सरकार ने किसानों का क्रूर दमन किया है, जो इस बात का उदाहरण है कि राज्य कितना बर्बर हो सकता है. किसान उन्हें दिल्ली पहुंचने से रोकने के लिए राष्ट्रीय राजमार्गों पर खोदी गई खाइयों को नहीं भूलेंगे; वे पानी की बौछारों, पैलेट गन, रबर की गोलियां, आंसूगैस गिराने के लिए ड्रोन का इस्तेमाल, लोहे की बड़ी कीलें, सड़कों पर कंक्रीट की बैरिकेडिंग, बिजली, पानी और इंटरनेट को काटने, किसानों और उनके परिवारों पर दुश्मन सैनिकों के ख़िलाफ़-जैसे किए गए हमले को नहीं भूलेंगे. किसान ऐतिहासिक संयुक्त संघर्ष के लगभग 750 शहीदों को नहीं भूलेंगे, जिनमें कैबिनेट मंत्री अजय मिश्रा टेनी के बेटे के वाहन से कुचले गए लोग भी शामिल हैं.

किसान कुछ नहीं भूलेंगे, न माफ करेंगे. झूठे वादों और कॉरपोरेट लूट के साथ-साथ कृषि के कॉरपोरेटीकरण को बढ़ावा देने वाली नीतियों के खिलाफ किसान लगातार संघर्ष के रास्ते  पर हैं. आइए, यह सुनिश्चित करें कि कड़ी मेहनत से हासिल किए गए हमारे अधिकारों की हम रक्षा करेंगे. किसान समर्थक, मजदूर समर्थक विकल्प सुनिश्चित करने के लिए, हमारे लोकतंत्र, संघीय अधिकारों और धर्मनिरपेक्षता की रक्षा के लिए, "किसानों और मजदूरों की कॉरपोरेट लूट बंद करो" के नारे के साथ एकजुट होकर काम करेंगे!

(लेखक अखिल भारतीय किसान सभा के महासचिव हैं. संपर्क : 98188-64006)

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