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मणिपुर: निरंकुशता के कुफल!

 Newsbaji  |  Aug 08, 2023 01:52 PM  | 
Last Updated : Aug 08, 2023 01:52 PM
मणिपुर में जारी हिंसा कई संकेतों की ओर इशारा करती है.
मणिपुर में जारी हिंसा कई संकेतों की ओर इशारा करती है.

(आलेख : राजेंद्र शर्मा)
अब कम-से-कम इतना तो साफ हो गया है कि प्रधानमंत्री मोदी, मणिपुर के मुद्दे पर संसद में जो भी बोलेंगे, अविश्वास प्रस्ताव पर बहस के अपने जवाब में ही बोलेंगे, उससे पहले नहीं बोलेेंगे. इससे, यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या यह सिर्फ प्रधानमंत्री के ईगो का मामला है कि वह मणिपुर के हालात पर या किसी भी ऐसे मामले पर संसद में नहीं बोलेंगे, जिस पर उनके राज पर सवाल उठ सकते हों? या यह मणिपुर की वर्तमान समस्या को बहुत ज्यादा महत्व न देने का मामला है? बेशक, एक हद तक सचाई इन दोनों ही अनुमानों में है, फिर भी सबसे बढक़र यह संसदीय व्यवस्था के सार को ही अस्वीकार करने का मामला है. संसदीय व्यवस्था का सार क्या है? क्या संसदीय व्यवस्था का सार सिर्फ चुनाव है? तब निर्वाचित के निरंकुश शासन और संसदीय जनतंत्र में फर्क ही क्या रह जाएगा?

संसदीय जनतंत्र का सार है, कार्यपालिका की, संसद के माध्यम से, जनता के सामने जवाबदेही. प्रधानमंत्री बेशक, संसदीय बहुमत के समर्थन के बल पर कार्यपालिका के शीर्ष पर होता है, लेकिन यह बहुमत संसद के समक्ष उसकी जवाबदेही का स्थानापन्न नहीं हो सकती है. संभवत: इसीलिए, यह कहा जाता है कि संसद विपक्ष की होती है, क्योंकि उसके जरिए ही विपक्ष, उसकी करनियों-अकरनियों के लिए, कार्यपालिका की और जाहिर है कि इसमें कार्यपालिका के प्रमुख के रूप में प्रधानमंत्री भी आ जाते हैं, जवाबदेही सुनिश्चित करता है. यह जवाबदेही संसदीय जनतंत्र का रोजाना का तकाजा है, जो पांच साल या ऐसी ही किसी अवधि पर होने वाले चुनावों में किसी तरह जनता का ‘‘आशीर्वाद’’ हासिल कर लेने से पूरा नहीं हो सकता है.

प्रधानमंत्री मोदी और जाहिर है कि उनके भक्तगण भी, जिस तरह उन्हें चुनाव में बहुमत मिला होने को, वैधता के सर्वोच्च तर्क के रूप में पेश करते नहीं थकते हैं, उससे जाहिर है कि वे प्रधानमंत्री के पद को पांच साल के निरंकुश राज के पट्टे की तरह देखते हैं और संसद के प्रति कार्यपालिका की रोज-रोज की जवाबदेही की व्यवस्था को, एक अनुपयोगी बोझ की तरह ही देखते हैं. हैरानी की बात नहीं है कि वर्ष-दर-वर्ष और सत्र-दर-सत्र, संसद की बैठकों की संख्या मोदी के राज के नौ वर्षों में कम से कम ही होती चली गयी है. वास्तव में यह रुझान, गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी के बारह साल के कार्यकाल में भी दर्ज किया गया था.

इसी का हिस्सा है कि मोदी के राज में संसद का चलना सुनिश्चित करने की, सत्तापक्ष की कोई कोशिश तक नहीं रहती है, फिर इसके लिए विपक्ष की किसी मांग को एकोमोडेट करने का तो सवाल ही कहां उठता है. और अब तो खैर संसद के साथ पराएपन के इस सलूक को उस मुकाम पर पहुंचा दिया गया है, जहां न सिर्फ संसद में बिना किसी बहस के शोर-शराबे के बीच विधायी काम निपटाने की खाना-पूर्ति करना ही सत्तापक्ष को ज्यादा सुविधाजनक नजर आता है, बल्कि अब तो संसद को ठप्प करने का जिम्मा भी ज्यादा से ज्यादा सत्ता पक्ष ही संभाल रहा है. फर्क सिर्फ इतना है कि जहां बजट सत्र के उत्तरार्द्ध में सत्तापक्ष ने ‘‘राहुल गांधी की माफी’’ की मांग के सहारे संसद को ठप्प किया था, तो इस सत्र में अपनी इसकी जिद से किया है कि मणिपुर जलता रहे, प्रधानमंत्री संसद में उसके संबंध में सवालों का जवाब नहीं देंगे.

जाहिर है कि सत्तापक्ष का इस तरह का रुख, अब भी मणिपुर के या और कहीं भी हालात संभालने के लिए किसी भी तरह के बहुपक्षीय प्रयास का रास्ता रोकता है. लेकिन, मोदी राज के और उससे भी बढक़र देश के दुर्भाग्य से, यह सिलसिला राजनीतिक स्तर पर बहुपक्षीयता का रास्ता रोकने से आगे तक जाता है. मणिपुर के मामले में यह सिलसिला इथनिक-सामाजिक-सांस्कृतिक बहुपक्षीयता का रास्ता रोके जाने तक जा पहुंचा है, जहां खुद सत्ताधारी पार्टी के विधायक, बहुसंख्यक मेइतेई और अल्पसंख्यक कुकियों में बंट गए हैं और आदिवासी समुदाय के इलाकों के लिए अलग प्रशासन की मांग उठ रही है.

तीन महीने में भी इस गहरे शत्रुभाव में जरा भी कमी नहीं आने का कुछ अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि, विपक्षी गठबंधन इंडिया के 21 सांसदों के दल ने पिछले ही दिनों जब मणिपुर का दो दिन का दौरा किया, इम्फाल में उनका ‘स्वागत’ जिस कथित शांति रैली द्वारा किया गया, वह न सिर्फ मेइतेई बहुसंख्यकों का शासन अनुमोदित शक्ति प्रदर्शन थी, इस रैली में शामिल लोगों को इन कुकी-चिन घुसपैठियों को ‘उखाड़कर संंघर्ष खत्म करने’ यानी उखाड़ने तक यह संघर्ष जारी रखने का संकल्प भी दिलाया जा रहा था.

इस राज्य में जहां परंपरागत रूप से, विशेष रूप से सभी आदिवासी ग्रुपों के अपने सशस्त्र संगठन रहे हैं, जिनमें से अनेक से युद्धविराम जैसे समझौते के जरिए हथियार रखवा कर पिछले दशकों में एक हद तक शांति भी कायम कर ली गयी थी, मेइतेई समुदाय पर केंद्रित कर आरएसएस-भाजपा द्वारा पांव फैलाए जाने ने और फिर 2018 के चुनाव के बाद से भाजपा के जोड़-तोड़ से सत्ता पर काबिज होकर राज चलाए जाने ने, रुई पर तेल छिडक़ने का ही काम किया है. इसी पृष्ठभूमि में अप्रैल के आखिर में आए, हाई कोर्ट के निर्देश ने, जिस पर बाद में सुप्रीम कोर्ट ने रोक भी लगा दी, मेइतेई समुदाय को आदिवासी यानी अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिए जाने का एक तरह से आदेश ही देकर, माचिस दिखाने का काम किया.

 मेइतेई समुदाय को आदिवासी दर्जा दिए जाने की इस संभावना के खिलाफ, जिसकी आशंकाओं को राज्य और केंद्र, दोनों में भाजपा सरकार की मौजूदगी में, और हवा ही देती थी, 3 मई को निकली आदिवासी ग्रुपों की विरोध रैली पर हमलों से जो हिंसा भड़की, उसने तेजी से राज्य में घाटी और पहाड़ी क्षेत्र के मुख्य समुदायों को, जैसे परस्पर युद्धरत राष्ट्रों में बदल दिया. इस युद्ध की स्थिति के बीच व्यावहारिक मानों में पूरे राजतंत्र को और बहुत ही महत्वपूर्ण रूप से राज्य सरकार के तंत्र को, उसमें इथनिक आधार पर थोड़े-बहुत विभाजन के बावजूद, आम तौर पर बहुसंख्यक मेइतेई समुदाय के ही साथ खड़ा माना जा रहा था.

इसके ऊपर से मुख्यमंत्री द्वारा अल्पसंख्यक समुदाय को ही ‘विदेशी घुसपैठियों’ से लेकर ‘नशा कारोबारी’, आतंकवादी आदि, आदि करार दिए जाने का सिलसिला जारी था. इसने मणिपुर में शासन नाम की शायद ही कोई चीज छोड़ी है. और सारी विफलताओं के बावजूद, जिनमें राजधर्म का निर्वाह करने में विफलता सबसे बड़ी है, मोदीशाही द्वारा वर्तमान मुख्यमंत्री बिरेन सिंह को संरक्षण दिए जाने ने, इस गृह युद्ध को रुकवाने में शासन की भूमिका को एक तरह से त्याग ही दिया है. हैरानी की बात नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट ने दो-टूक तरीके से इस राज्य कोई कानून-व्यवस्था रह ही नहीं जाने को रेखांकित किया है.

जाहिर है कि प्रदेश से लेकर देश तक, शासन का इस तरह लापता हो जाना, कोई संयोग ही नहीं है. इनके पीछे, बहुसंख्यक समुदाय के राजनीतिक समर्थन के इथनिक-सांप्रदायिक सुदृढ़ीकरण की बहुत ही सोची-समझी रणनीति है. सब कुछ के बावजूद, इस सब के बीच से संघ-भाजपा मेइतेई समुदाय के बीच अपनी पकड़, पहले से मजबूत होने की ही उम्मीद रखते हैं. रही ‘‘दूसरों’’ लोगों की बात, तो उन्हें शासन के डंडे से ठोक-पीटकर झुकाने में कुछ समय भले ही लग जाए, लेकिन देर-सबेर कुछ न कुछ कामयाबी भी मिल ही जाएगी. और शासन के डंडे से ठोकने-पीटने के लिए, अल्पसंख्यकों को विदेशी या घुसपैठिया या आतंकवादी, करार दे देना ही काफी है. पूर्व-थल सेनाध्यक्ष, जनरल नरवणे ने ‘मणिपुर हिंसा में विदेशी एजेंसियों के हाथ’ की अटकलों को हवा देेने के जरिए, इसके लिए रास्ता और साफ कर दिया है. यह गुजरात का आजमूदा फार्मूला है, जो कश्मीर में एक हद तक कामयाब आजमाइश के साथ, अब मणिपुर में आजमाया जा रहा है. मणिपुर, जल नहीं रहा है, मणिपुर जलाया जा रहा है.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक 'लोकलहर' के संपादक हैं.)

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