(आलेख: राजेन्द्र शर्मा)
अठारहवीं लोकसभा के करीब पौने दो महीने लंबे चुनाव के पहले चरण का ही चुनाव प्रचार अभी थमा है, लेकिन प्रधानमंत्री मोदी द्वारा अपनी चुनाव सभाओं में धर्म की दुहाई का सहारा लिए जाने की शिकायतों के चुनाव आयोग में ढेर लग चुके हैं. संक्षेप में इन शिकायतों का सार यही है कि प्रधानमंत्री, विशेष रूप से राम मंदिर के निर्माण तथा प्राण प्रतिष्ठा समारोह से लेकर सनातन संबंधी बहस तक के बहाने से, खुद को तथा सत्ताधारी गठजोड़ को 'हिंदू-रक्षक' और अपने राजनीतिक विरोधियों, विशेष रूप से इंडिया गठबंधन को 'हिंदू-विरोधी' साबित करने और इसके जरिए, हिंदुओं को अपने विरोधियों के खिलाफ तथा अपने पक्ष में जुटाने की कोशिश कर रहे हैं.
बेशक, यह दूसरी बात है कि मोदी राज में अर्जित अपने संक्षिप्त नाम, कें चु आ को सार्थक करते हुए, चुनाव आयोग ने इन शिकायतों का कोई संज्ञान लिया हो, इसका अब तक कोई संकेत नहीं है.
सच तो यह है कि ये शिकायतें करते हुए विपक्ष को, इसका कोई भ्रम भी नहीं था कि चुनाव आयोग, खासतौर पर प्रधानमंत्री पर आदर्श आचार संहिता की चुनाव के लिए धर्म की दुहाई का सहारा लिए जाने पर रोक के उल्लंघन के आरोपों पर कोई कार्रवाई कर सकता है. पिछले आम चुनाव के समय के और उसके बाद के पूरे दौर के अनुभवों के बाद, ऐसे किसी भ्रम की गुंजाइश ही नहीं रह गयी है. और चुनाव की तारीखों की घोषणा से ऐन पहले, एक चुनाव आयुक्त के संदेहजनक परिस्थितियों में चुनाव आयोग से इस्तीफा देने और उसके बाद हाथों-हाथ मोदी सरकार द्वारा तीन सदस्यीय आयोग के लिए दो सदस्यों की अपनी मर्जी से नियुक्ति किए जाने के बाद, तो किसी भ्रम की रत्तीभर गुंजाइश नहीं बची थी.
याद रहे कि चुनाव आयोग की इन दोनों रिक्तियों के भरे जाने से पहले ही, मोदी सरकार द्वारा एक कानून बनाकर, सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले को पलटा जा चुका था, जिसमें चुनाव आयोग की निष्पक्षता सुनिश्चित करने पर विशेष रूप से जोर देते हुए, आयोग के अध्यक्ष व सदस्यों की नियुक्ति के लिए ऐसी प्रक्रिया अपनाए जाने का तकाजा किया गया था, जिससे इन नियुक्तियों में सिर्फ सरकार की मर्जी चलने के बजाय, निष्पक्षता की अपेक्षा की जा सके. इस सिलसिले में सुप्रीम कोर्ट ने फौरी कदम के तौर पर एक तीन सदस्यीय नियुक्ति समिति का गठन करने के लिए कहा था, जिसमें प्रधानमंत्री के साथ, लोकसभा में विपक्ष के या सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी के नेता के अलावा, सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश भी रहें.
बहरहाल, सुप्रीम कोर्ट के उक्त निर्णय में ही वैधानिक आधार पर नियुक्ति प्रक्रिया का फैसला संसद पर छोड़े जाने को बहाना बनाकर, नरेंद्र मोदी सरकार ने अपने बहुमत का दुरुपयोग कर, फटाफट संसद से कानून बनवाकर, यह सुनिश्चित किया कि चुनाव आयोग के लिए नियुक्तियों में सरकार की ही मनमर्जी चले. तीन सदस्यीय कमेटी में, प्रधानमंत्री के साथ, विपक्ष के नेता को शामिल तो किया गया, लेकिन प्रधानमंत्री को तीसरे सदस्य के रूप में अपने किसी मंत्रिमंडलीय सहयोगी को रखने का अधिकार देकर, विपक्ष की आवाज को गैर-निर्णायक और वास्तव में रस्म अदायगी भर बना दिया गया.
दूसरी ओर, सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश को इस पूरी प्रक्रिया से बाहर ही कर दिया गया. तीन सदस्यीय आयोग में अध्यक्ष से इतर दोनों नयी नियुक्तियां, इस प्रकार सरकार की मर्जी का ही प्रतिनिधित्व करने वाली व्यवस्था से ही कराई गई थीं, जबकि इससे पहले स्थान खाली होने के बावजूद, सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित उक्त कमेटी के सामने, जिसमें सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश को भी रहना था, किसी नियुक्ति का विषय आने ही नहीं दिया गया था.
बहरहाल, बात सिर्फ इतनी ही नहीं है कि प्रधानमंत्री चुनाव के लिए धर्म की दुहाई का सहारा ले रहे हैं, जो बेशक आदर्श चुनाव संहिता का ही नहीं, जन-प्रतिनिधित्व कानून का भी गंभीर उल्लंघन है. वास्तव में देश का कानून ऐसी किसी राजनीतिक पार्टी की मान्यता की ही इजाजत नहीं देता है, जो संविधान की उद्देशिका में शामिल धर्मनिरपेक्षता का पालन नहीं करती हो. फिर भी यह गौरतलब है कि यह प्रधानमंत्री द्वारा कैजुअल तरीके से, किसी एकाध भाषण में धर्म की दुहाई का चुनाव के लिए सहारा लिए जाने भर का मामला नहीं है. वास्तव में इस बार इसकी शुरूआत औपचारिक रूप से चुनाव अभियान शुरू होने से भी काफी पहले से ही कर दी गई थी. राज्य विधानसभाई चुनावों के पिछले चक्र के फौरन बाद ही, पहले राम मंदिर के उद्घाटन और फिर तथाकथित 'सनातन' विवाद के बहाने, हिंदू-धार्मिकता की दुहाई का इस्तेमाल शुरू कर दिया गया था.
प्रधानमंत्री ने आम चुनाव की घोषणा के बाद, औपचारिक रूप से अपना चुनाव अभियान शुरू होने के बाद, इस सिलसिले को सिर्फ जारी ही नहीं रखा है, सांप्रदायिक दुहाई को अपने चुनाव प्रचार का केंद्रीय हिस्सा ही बना दिया है. कहने की जरूरत नहीं है कि इसमें सारा जोर, राम मंदिर के उद्घाटन समारोह से दूर रहने के लिए और 'सनातन' के संबंध में आलोचनात्मक टिप्पणी करने वालों से नाता बनाए रखने के लिए, इंडिया गठबंधन तथा भाजपा/एनडीए के विरोधियों को 'हिंदू-विरोधी' साबित करने पर ही रहा है. यानी यह प्रधानमंत्री के चुनाव प्रचार की प्रधान थीम ही है, जिसकी प्रतिध्वनि प्रधानमंत्री के चुनावी भाषणों से लेकर, भाजपा के चुनाव घोषणापत्र के जारी किए जाने के कार्यक्रम और उसके फौरन बाद, एक निजी समाचार एजेंसी के लिए प्रधानमंत्री के पूरी तरह से स्क्रिप्टेड इंटरव्यू तक में सुनाई दे रही थी.
बहरहाल, यह भी अर्थहीन ही नहीं है कि जैसाकि हमने शुरू में ही याद दिलाया, चुनाव प्रचार के पहले चरण से ही प्रधानमंत्री मोदी ने चुनाव के लिए धर्म की दुहाई का इस्तेमाल शुरू कर दिया है. बेशक, यह किसी से छुपा हुआ नहीं है कि धर्म की दुहाई का और एक उग्र माइनोरिटी-विरोधी छवि का उपयोग, नरेंद्र मोदी के साथ शुरू से ही और 2002 के गुजरात के मुस्लिम-विरोधी नरसंहार के बाद से तो खासतौर पर जुड़ा रहा है. इसके बावजूद, 2014 के चुनाव में जब नरेंद्र मोदी पहली बार प्रधानमंत्री पद के लिए अपने दावेदारी पेश कर रहे थे, इस छवि का सावधानी के साथ उपयोग करते हुए भी उन्होंने, सांप्रदायिक छवि को पीछे रखने की कोशिश की थी.
मकसद यही था कि जहां माइनोरिटी-विरोधी छवि के बल पर, संघ-भाजपा के हिंदुत्ववादी सांप्रदायिक आधार को मजबूत किया जाए, वहीं अच्छे दिन के सब्ज बाग के सहारे, समर्थन का दायरा अपने परंपरागत आधार से आगे बढ़ाया जाए. इसी दोमुंही नीति का उदाहरण पेश करते हुए, उत्तर प्रदेश में मुजफ्फर नगर के 2013 के दंगों के बदनाम आरोपियों को भाजपा का टिकट भी दिया गया, लेकिन खुद प्रधानमंत्री मोदी ने उनसे तिनके की ओट की दूरी दिखाने की भी कोशिश की. उनकी चुनावी रैली के मंच पर इन सांप्रदायिक योद्घाओं का अभिनंदन तो किया गया, लेकिन मोदी के मंच पर आने से पहले-पहले. बहरहाल, चुनाव प्रचार के आखिरी दौर तक पहुंचते-पहुंचते, उस चुनाव में भी नरेंद्र मोदी ने श्वेत क्रांति बनाम गुलाबी या मांस क्रांति का द्वैध खड़ा करने और मांस क्रांति के बहाने अल्पसंख्यक-विरोधी संदेश देने का सहारा लेना शुरू कर दिया था.
आगे चलकर उत्तर प्रदेश के विधानसभाई चुनाव के समय भी, प्रचार के आखिरी दौर में, सब कुछ झोंकने की मुद्रा में प्रधानमंत्री मोदी ने, शमशान बनाम कब्रिस्तान और दीवाली बनाम रमजान का खुल्लमखुल्ला सांप्रदायिक द्वैध खड़ा करने की कोशिश की थी. एक हद तक ऐसा ही 2019 के आम चुनाव में भी देखने को मिला, जब पुलवामा प्रकरण से उभारी गई राष्ट्रवादी भावनाओं के साथ सांप्रदायिक इशारे जोड़ने पर ही ज्यादा ध्यान केंद्रित करने के बाद, चुनाव प्रचार के आखिरी चरणों में ही प्रधानमंत्री ने खुले सांप्रदायिक इशारों का सहारा लिया. लेकिन, 2024 के चुनाव में स्थिति, इससे बहुत बदली हुई नजर आ रही है.
चुनाव प्रचार की शुरूआत से ही प्रधानमंत्री मोदी ने धर्म की सांप्रदायिक दुहाई का इस्तेमाल शुरू कर दिया है और वह भी काफी विस्तार से. इस सांप्रदायिक दुहाई पर उनकी निर्भरता का आलम यह है कि राम मंदिर प्रकरण को भी इसके लिए नाकाफी मानकर, सांप्रदायिक दुहाई के इस्तेमाल के लिए नये-नये बहाने खोजे जा रहे हैं. जम्मू-कश्मीर में हिंदू-बहुल ऊधमपुर में अपनी चुनावी सभा में जिस तरह प्रधानमंत्री ने सावन के महीने में मांस पकाने और नवरात्रि में मछली खाने का मुद्दा उछालकर और उसे मुगलों से जोड़कर, विपक्ष को सांप्रदायिक तरीके से निशाना बनाने की कोशिश की है, इसी बदहवासी को दिखाता है. और इसी बदहवासी को दिखाता है, कांग्रेस के चुनाव घोषणापत्र को उनका एक ओर मुस्लिम लीग से और दूसरी ओर कम्युनिस्टों के साथ जोड़ने की कोशिश करना, जिस कोशिश को नरेंद्र मोदी अपने स्क्रिप्टेड इंटरव्यू में भी दोहराते हैं.
अब की बार चार सौ पार के दावों के संदर्भ में, इस तरह की बदहवासी किसी को हैरान तो कर सकती है, लेकिन इसमें हैरानी की बात है नहीं. 2014 और 2024 के बीच, बुनियादी अंतर यह है कि इस दौरान देश की जनता और खासतौर पर मेहनतकश जनता, मोदी के कारपोरेट-सांप्रदायिक गठजोड़ की तानाशाही के दस साल भुगत चुकी है.
2014 के चुनाव में अच्छे दिनों के नाम पर जैसे अवाम को भरमाया जा सकता था, अब और संभव नहीं है, 2047 में विकसित भारत बनाने के हवाई सपनों से हर्गिज नहीं. दूसरी ओर, इस बार पुलवामा जैसा कोई राष्ट्रवादी भावनाएं उभारने वाला मुद्दा भी नहीं है. ऐसे में मोदी राज से जनता के असंतोष और खासतौर पर बेरोजगारी से लेकर, महंगाई तक, जनता की रोजी-रोटी पर सीधे असर करने वाले मुद्दों पर इस सरकार की घोर विफलता पर तथा बढ़ते पैमाने पर तानाशाही के व्यवहार पर, अवाम की नाराजगी से बचाव के लिए, नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा-आरएसएस को, धर्म की सांप्रदायिक दुहाई में ही शरण दिखाई दे रही है. यह दूसरी बात है कि यह सांप्रदायिक दुहाई भी, कितनी काम करेगी, यह तो आने वाले पौने दो महीनों में ही पता चलेगा.
बहरहाल, चुनाव प्रचार की शुरूआत से नरेंद्र मोदी का इस पर्दे की ओट में छुपने की कोशिश करना, ताकत की नहीं, कमजोरी की ही निशानी हैै. 2024 में एक बार फिर 2004 का चुनाव नतीजा दोहरा दिया जाए, तो हैरानी की बात नहीं होगी.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक पत्रिका 'लोक लहर' के संपादक हैं.)
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