अलग के लिए प्रेम!
आज के संवाद की शुरुआत एक छोटी सी कहानी से. अमेरिकी लेखक और कार्टूनिस्ट जेम्स थरबर की प्रसिद्ध कहानी के छोटे से हिस्से से. कहानी के अनुसार सांपों के देश में एक बार शांतिप्रिय नेवला पैदा हो गया. उसे बिल्कुल भी इस बात का भरोसा न था कि सांप उसके दुश्मन हैं. नेवला समाज को जैसे ही इस बात की जानकारी हुई, वह उसे शिक्षित करने में लग गए कि यह संभव नहीं. लेकिन शांति प्रिय नेवले ने कहा, 'उन्होंने मेरा अब तक कुछ नहीं बिगाड़ा तो वह हमारे दुश्मन कैसे हुए.' बुजुर्ग नेवलों ने समझाया, यह पुरखों की दुश्मनी है. हमारा उनसे खानदानी विरोध है. यह आज की बात नहीं, सदियों की कहानी है. बहुत समझाने पर भी वह नेवला नहीं माना. उसने बार-बार कहा जब उन्होंने मेरा कुछ नहीं बिगाड़ा तो मैं क्यों उनसे शत्रुता रखूं. वह तो शांति प्रस्ताव तक तैयार करने का इरादा रखने लगा. परिणाम यह हुआ कि जल्दी खबर फैल गई कि गलत नेवला पैदा हो गया है. वह सांपों का मित्र है और हमारा दुश्मन. यहां तक कि उसके माता-पिता ने भी कहा कि लड़का बुजदिल है. भाइयों ने तो यहां तक कहा कि राष्ट्रीय कर्तव्य के आगे वह अपने निजी लाभ की सोच रहा है. उसे बहुत समझाया गया कि सांप ही बुराई की जड़ हैं, सांप ही शैतान हैं. शांतिप्रिय नेवले ने कहा, लेकिन मैं तो कोई शैतान इनमें नहीं देखता. उनमें भी संत और शैतान हैं, जैसे हमारे भीतर हैं.
जल्दी खबर फैल गई कि नेवला अंततः सांप ही है. उसकी गति सांपों की तरह ही है और उससे सावधान रहने की जरूरत है. शक्ल जरूर बस नेवले की है लेकिन आत्मा सांप की है. पंचायत बैठी और उन्होंने कहा कि पागलपन मत कर. शांतिदूत नेवला अपनी बात पर कायम रहा और उसने कहा 'सोचना समझना जरूरी है, विवेक जरूरी है. जीवन के प्रति अंतर्दृष्टि जरूरी है, चली आ रही चीजों पर विचार जरूरी है. जो हो रहा है उस पर विचार किए बिना आगे बढ़ते जाना जीवन के हित में नहीं.' लेकिन पंचायत राजी न हुई, उसे पागल घोषित कर दिया गया.
यह तो बात हुई उनकी जो हमारी नजर में कुछ नहीं हैं. लेकिन खुद को बेहतर मानने और श्रेष्ठ साबित करने वाले मनुष्य समाज का व्यवहार एकदम वैसा ही है, जैसा नेवले की पंचायत का था. जो कुछ भिन्न है, हमारी परिभाषा में पूरा नहीं उतरता. उसे अपने हृदय तो दूर, दिमाग में भी थोड़ी सी जगह देना हमारी सोच के बाहर की बात है. जिसने थोड़ी भी अलग राह पकड़ी, हम उसके दुश्मन बन बैठते हैं. बचपन से हम एक बहुत ही खूबसूरत शब्द सुनते आए थे- विविधता. अब हम उससे इतने दूर निकलते जा रहे हैं कि लगता है उसके पास लौटना ही न हो पाएगा.
अपनी शिक्षा और सामाजिक व्यवस्था, सोच पर सजग दृष्टि डालें तो पाएंगे कि जो हमारे जैसा नहीं है, उसको हम पागल और नासमझ घोषित करने में बिल्कुल समय नहीं गंवाते. एक छोटा सा उदाहरण, इन दिनों जिस आदमी की रुचि क्रिकेट और आईपीएल में न हो, उसका सामान्य ज्ञान कमजोर समझा जाएगा. ऐसा लगता है, जैसे मानो यही जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है. टीवी पर मैच देखते हुए लोग पसंदीदा परिणाम नहीं आने पर टीवी और फोन तोड़ देते हैं, जिस ओर भीड़ जा रही है, उस ओर खड़े होना ही सबसे बड़ी समझदारी है. जबकि भीड़ की कोई समझ नहीं होती. उसका कोई विज्ञान नहीं होता. जो लोग अपने पर जरा सा नियंत्रण नहीं रख सकते, टीवी पर चल रही घटनाओं पर अपने मुताबिक परिणाम चाहते हैं, वह अपने जीवन में किस ओर जाएंगे, कहना मुश्किल है. ऐसा मत समझिए कि केवल अपने ही देश में ऐसा है, पूरी दुनिया ऐसे ही नक्शे कदम पर है. अपने यहां क्रिकेट है तो कहीं फुटबॉल और कहीं दूसरे खेलों के नाम पर बेहोशी का आलम है.
भीड़ से अलग खड़े होना, स्वतंत्र सोच और स्वतंत्र निर्णय लेना हमारा सबसे पहला काम होना चाहिए. ऐसा सामाजिक चरित्र ही हमारे करोड़ों निराश, हताश नागरिकों को नया जीवन दे सकता है. इस विचार से हम बड़ी संख्या में लोगों को हताशा में डूबने और अपने जीवन से दूर जाने से बचा सकते हैं. हमारी दृष्टि में जो कुछ नहीं, हमसे भिन्न हैं, उनके प्रति कोमलता और प्रेम दुनिया को सुंदर और प्यार करने लायक जगह बनाने में सबसे बड़ी भूमिका निभाएंगे.हमें जो जैसा हैं, उसे उसी रूप में ही स्वीकार करना होगा न कि जैसा हम उन्हें बनाना चाहते हैं!
जीवन के प्रति शुभकामना सहित...
-दया शंकर मिश्र
(Disclaimer: लेखक देश के वरिष्ठ पत्रकार हैं. ये लेख डिप्रेशन और आत्महत्या के विरुद्ध लेखक की किताब 'जीवन संवाद' से लिया गया है.)
भिलाई की स्मृति नगर चौकी पर पथराव, पुलिस ने 14 लोगों पर दर्ज किया मामला
शबरी पार छत्तीसगढ़ दाखिल हो रहे नक्सली का एनकाउंटर, एक जवान भी घायल
Copyright © 2021 Newsbaji || Website Design by Ayodhya Webosoft