(व्यंग्य : राजेंद्र शर्मा)
विपक्ष वालों की यही बात बहुत गलत है. कभी एक बात पर कायम ही नहीं रहते हैं. जब देखो तब बात ही बदलते रहते हैं. राहुल वाला ही किस्सा ले लो. संसद के पिछले वाले सैशन में, पहले माननीय अडानी जी और मोदी जी के पवित्र रिश्ते पर लोकसभा में बहस की मांग कर रहे थे. जब राष्ट्रपति के अभिभाषण के बहाने, पवित्र रिश्ते पर बोलने का मौका मिल गया, तो इसकी मांग करने लगे कि लोकसभा अध्यक्षजी राहुल का माइक बंद नहीं कराएं. जब अध्यक्ष जी ने माइक बंद नहीं कराया तो मांग करने लगे कि भाषण के रिकार्ड पर कैंची नहीं चलायी जाए. कैंची तो नहीं रुकी, पर विदेश में राहुल ने जो बोला उसके लिए स्वदेश में माफी की मोदी पार्टी की मांग से संसद जरूर रुक गयी. पर अब माफी मांगकर स्यापा खत्म कराने की जगह, विपक्षी मांग करने लगे कि राहुल को बोलने दिया जाए, आरोपों का जवाब देने दिया जाए.
खैर, भक्तों ने बोलने तो नहीं ही दिया, उल्टे गुजरात की अदालत ने न बांस रहे न बांसुरी वाले न्याय से, अगले की सदस्यता के ही खात्मे का इंतजाम कर दिया, तो मांग करने लगे कि लोकसभा कार्यालय हड़बड़ी में सदस्यता खत्म नहीं करे. हड़बड़ी में सदस्यता खत्म की गयी, तो अब जब सुप्रीम कोर्ट ने सदस्यता बहाल कर दी है, लोकसभा कार्यालय के पीछे पड़े हुए हैं कि तब जो गलती की थी, उसे फिर से दोहराए और जैसी हड़बड़ी में राहुल की सदस्यता खत्म की थी, वैसी ही हड़बड़ी में सदस्यता बहाल की जाए. पर तब जो विपक्ष वाले हड़बड़ी को गड़बड़ी कह रहे थे, अब वही विपक्षी हड़बड़ी की गड़बड़ी दुहराने की मांग भला कैसे कर सकते हैं? एक बार हड़बड़ी करना गलत था, तो दूसरी बार हड़बड़ी करना ठीक कैसे हो जाएगा? पिछली गलती से, बाद की गलती क्या सही हो सकती है?
और जब गलती को सही कराने के नाम पर दोबारा गलती कराने की दलील में ज्यादा दम नहीं दिखाई दिया, तो अब बेचारे रामशंकर कठेरिया की लोकसभा सदस्यता की जान के गाहक हो गए हैं. पीछे पड़े हुए हैं कि कठेरिया को पूरे दो साल की सजा हुई है और वह भी फौजदारी के मामले में. स्पीकर कार्यालय ने राहुल के मामले में जितनी फुर्ती दिखाई थी, उतनी ही फुर्ती कठेरिया के मामले में भी दिखाए. कुल छब्बीस घंटे में कठेरिया को भी वर्तमान से भूतपूर्व सांसद बनाया जाए. यानी मामला यहां भी पहले की गलती दोहराने की मांग का ही है, बस पात्र बदल गए हैं. पहले, दोनों बार की गलती राहुल के मामले में ही होनी थी, अब कहानी में एक नये पात्र की एंट्री हो गयी है -- रामशंकर कठेरिया. मांग की जा रही है कि गलत हो या सही, राहुल के साथ जो हुआ, वही कठेरिया के साथ कर के दिखाया जाए. अब कठेरिया की सदस्यता छीनने में छब्बीस घंटे से एक घंटा फालतू नहीं लगाया जाए और घर छीनने में, हफ्ते से एक दिन फालतू नहीं. वर्ना स्पीकर से पक्षपात हो जाएगा!
पर बाकी सब छोड़ भी दो, तो क्या विपक्ष वालों को यह शोभा देता है कि राहुल और मोदी जी की लड़ाई में, बेचारे कठेरिया नाहक बीच में पिस जाएं; वह भी सिर्फ इसलिए कि उनके अंगोछे का रंग मोदी पार्टी के झंडे के रंग से मेल खाता है! अब क्या विपक्ष वाले भी रंग से पहचान कर न्याय-अन्याय तय करेंगे? कहां गयी राहुल की मोहब्बत की दुकान! कठेरिया को कोई राहत नहीं, उल्टे स्पीकर की जान को आफत और. यह तो अमृतकाल नहीं है, जी!
(व्यंग्यकार वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक 'लोकलहर' के संपादक हैं.)
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