(आलेख: बादल सरोज)
जो हुआ, वह सचमुच में ऐसा था, जो पिछली 70 सालों में नहीं हुआ- एकदम नया और चौंकाने वाला. इसलिए नहीं कि इस बार घुसपैठ संसद परिसर तक ही नहीं थी, सीधे सदन में लोकसभा के सभागार में थी. बल्कि इसलिए कि यह 20 हजार करोड़ रुपयों की विराट रकम फूंककर खडी की गयी उस 'न भूतो न भविष्यत' बताई जाने वाली संसद की इमारत में हुयी थी, जिसका निर्माण वैदिक स्थापत्य कला प्रदत्त निर्विघ्नता के प्रावधानों के कथित रूप से शब्दशः पालन के साथ हुआ था, जिसे बाकायदा सनातनी विधि-विधानों से, गंगाजल से 'ओम पवित्रं पवित्राय' करके शुद्ध और कपूर लोबान के धुएं के बीच मंत्रोच्चार की घनगरज से सारी बाधाओं से मुक्त किया जा चुका बताया गया था.
उससे भी ज्यादा अहम बात यह है कि यह उस संसद में हुआ, जिस पर दावा किया जाता है कि एक ऐसी पार्टी का राज है, जो सुरक्षा की पर्याय है. राष्ट्र की सुरक्षा इस पार्टी और उसके सकल ब्रह्माण्ड के सबसे बड़े नेता की सबसे बड़ी और एकमात्र पहचान है. अब इनके राज में सीमाओं से लेकर भीतर तक कौन कितना सुरक्षित हुआ है, जिन-जिन की सुरक्षा का एलान इन्होंने किया, उनकी असुरक्षा कितनी बढ़ी है, इसका हिसाब करने बैठेंगे, तो शाम हो जायेगी. एक वाक्य में कहें, तो यह "जितना शोर मचाया घर में सूरज पाले का, उतना काला और हो गया वंश उजाले का" जैसी स्थिति है.
इस देश की संसद में सेंध लगाने के अब तक हुये दोनों प्रयास इसी ओनली राष्ट्र सुरक्षा सर्वोपरि पार्टी - भाजपा - के शासनकाल में ही हुए. पिछली बार 13 दिसंबर को हुए आतंकी हमले के समय खुद अटल बिहारी वाजपेई प्रधानमंत्री थे, इस बुधवार 13 दिसंबर को दो युवाओं द्वारा लगाई गयी छलांग के वक़्त स्वयम नरेंद्र मोदी - जिन्हें 800 वर्ष में दिल्ली के तख़्त पर बैठा पहला मजबूत और सच्चा हिन्दू शासक बताया जाता है - विराजमान थे. यह सिर्फ संयोग नहीं है ; यह सार से ज्यादा रूप पर, सामर्थ्य से ज्यादा लावण्य पर जोर देने और उसे निहारते हुए खुद ही खुद पर मुग्ध और फ़िदा होने की आत्मघाती अदा की तार्किक परिणिति है.
देश चलाना एक गम्भीर काम है, उसकी और उसमें रहने वाली जनता की हिफाजत करना उससे भी ज्यादा गंभीर काम है. पालित पोषित और नत्थी मीडिया के कैमरों से निखरी, रंगीन स्क्रीन्स पर उभरी छवियों और चुस्त संवादों, मस्त जुमलों और जोरदार भाषणों से यह सब होना संभव होता, तो हिटलर को बर्लिन की बंकर नहीं ढूंढनी पड़ती. संसद का बुधवार सिर्फ बानगी है, इन बयानवीरों की मेहरबानी से पूरे देश की सुरक्षा और हिफाजत पर शनीचर हावी है.
घटनाओं को सिर्फ एक या दो हादसों तक सीमित रखकर देखने से सही नतीजे पर पहुंचना संभव नहीं होता -- उन्हें समग्रता में देखना ही सही तरह से देखना होता है. 22 वर्ष पहले वाजपेयी राज में हुआ हमला और उसकी वर्षगाँठ के दिन इस बार लगाई गयी सेंध अकेले मामले नहीं है.
अमिधा में संसद में ऐसी सेंधें लगातार लग रही है, उसकी बुनियाद में सुरंगें बिछाई जा रही हैं. वाजपेयी जी की 13 दिन की सरकार के 13 वे दिन, अविश्वास प्रस्ताव पारित होने के ठीक पहले भोजनावकाश के बीच हुयी कैबिनेट की मीटिंग ने अमरीकी बहुराष्ट्रीय कंपनी एनरोन के लिए काउंटर गारंटी देने का प्रस्ताव मंजूर करके संसद को ही गिरवी रखने का जो सिलसिला शुरू किया था -- वह अब एक-दो कारपोरेट के संसद पर अतिक्रमण से होते हुए उनके लगभग पूर्ण वर्चस्व तक आ गया है. संसद के अधिकार, उसकी क़ानून निर्माण, निगरानी और हस्तक्षेप की ताकत बेमानी बनाई जा रही है. विधायी बिलों को आर्थिक अनुदान के मामले बताकर संसद के क्षेत्राधिकार को बेमतलब बनाने की कोशिश-दर-कोशिश की जा रही हैं.
जब सेंध पर बात करनी है, तो इन खिसकाई गयी ईंटों, दरकाई गयी दीवारों को भी संज्ञान में लेना होगा -- उस पूरी क्रोनोलोजी को समझना होगा, जिसका एक रूप बाहर से घुसपैठ है, मगर जिसका दूसरा रूप अन्दर से लगाया जा रहा पलीता है. पौराणिक कथाओं के प्रसिद्ध और होमर के कालजयी ग्रन्थ इलियड में वर्णित ट्रॉय के युद्ध की तरह यह लकड़ी की काठी में सजकर आया लकड़ी का घोड़ा है, जिसमे भरे हथियारबंद हमलावर सिर्फ ट्रॉय जीतना नहीं चाहते, उसे लाक्षागृह बना देना चाहते हैं
इतने बड़े हादसे के बाद से उसी संसद में जो हो रहा है, उससे पूरी दुनिया को पता चल गया है कि आशंकाओं के महाबली, विफलताओं के सूरमा हुक्मरान निर्लज्जता के भी शहंशाह है जवाबदेही तय नहीं की जा रही है, संसद में सेंध को लेकर संसद में ही चर्चा होने नहीं दी जा रही है. जिस सांसद के अनुमति पत्र को लेकर सेंध लगाई गयी, उनसे कोई पूछताछ नहीं की जा रही है. जो भी सरकार से सवाल कर रहा है, उसे संसद से खदेड़ बाहर किया जा रहा है. गरज यह कि जो हुआ, उससे सबक लेकर भविष्य में उसकी पुनरावृत्ति रोकने की बजाय उसके बारे में चर्चा और समीक्षा की संभावनाओं का ही गला घोंटा जा रहा है ; इस आचरण को भविष्य के लिए आशंकाओं के दरवाजे खुले रखना कहा जा सकता है.
भारत की संसद, इस या उस तरह से जीतकर सत्ता में पहुंची किसी अ या ब या स राजनीतिक पार्टी का अन्तःपुर, किसी कालातीत राजघराने का राजदंड - सेंगोल - नहीं है. यह भारतीय जनता के अनगिनत संघर्षों का वह हासिल है, जिस पर उसके वर्तमान की उम्मीद और भविष्य की संभावनाएं टिकी हुयी हैं. यह जनता ही है, जिसे यह संसद जिसका प्रतीक है, उस सबको हरने की साजिशों के खिलाफ कुछ करना होगा ; बाहर की घुसपैठों से निजात पाने के लिए अन्दर की बुनावट को बदलना होगा.
(लेखक पाक्षिक 'लोकजतन' के संपादक व अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं.)
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