(आलेख: राजेंद्र शर्मा)
पटना के गांधी मैदान की इंडिया गठबंधन की ऐतिहासिक रैली में, समाजवादी पार्टी के मुखिया, अखिलेश यादव ने जब 'भाजपा हराओ, देश बचाओ' के नारे के साथ, '120 हटाओ, देश बचाओ' का नारा दिया, इस नारे का अर्थ समझने में एक मिनट लगा. बहरहाल, जब उन्होंने उत्तर प्रदेश में इंडिया गठबंधन के सभी अस्सी सीटों पर भाजपा को हराने के संकल्प का जिक्र किया, तो समझते देर नहीं लगी कि 120 का आंकड़ा, उत्तर प्रदेश की 80 और बिहार की 40 सीटों के योग का है. इन 120 सीटों पर भाजपा को हरा दिया, तो भाजपा का केंद्र में सत्ता से बाहर होना तय है.
याद रहे कि 2019 के आम चुनाव में उत्तर प्रदेश की 80 में से 62 सीटें भाजपा और 2 सीटें उसके सहयोगी अपना दल (सोनेलाल) के खाते में गयी थीं और बिहार की 40 में से 39 सीटें भाजपा और उसके सहयोगियों के खाते में. सरल गणित के हिसाब से भी ये 103 सीटें अगर भाजपा और उसके सहयोगियों के हाथ से खिसक जाएं तो, पिछली बार का उसका सहयोगियों समेत आंकड़ा, सवा दो सौ के करीब रह जाएगा और वह सत्ता से बाहर हो जाएगी. ऐसा पूरी तरह से हो सकने की वास्तविक संभाव्यता के प्रश्न से अलग, इस गणित से इस चुनाव के लिए उत्तर प्रदेश तथा बिहार के चुनावी समीकरणों की, 2024 के चुनाव में भाजपा का खेल बिगाड़ सकने की सामर्थ्य का तो अंदाजा लग ही जाता है.
इसी संदर्भ में 3 मार्च की पटना रैली के संकेत खास महत्व ले लेते हैं. इस रैली में भाग लेने वालों की ठीक-ठीक संख्या की बहस में हम नहीं जाएंगे. बहरहाल, ज्यादातर अनुमानों में एक बात समान है कि यह पटना के गांधी मैदान में हुई अब तक की सबसे बड़ी सभाओं में से एक थी और इसमें श्रोताओं की संख्या का आंकड़ा दस लाख के करीब जरूर रहा होगा.
इस रैली में राजद के हरे और कम्युनिस्टों के लाल झंडों की भरमार से और रैली के मुख्य वक्ताओं के भाषणों के दौरान, श्रोताओं के उत्साह से, कम से कम इतना तो साफ ही था कि बिहार में इंडिया गठबंधन की मुख्य प्रहार शक्ति के रूप में, राजद और कम्युनिस्ट पार्टियों के नेता और जमीनी स्तर तक के कार्यकर्ता उत्साह के साथ मैदान में उतर चुके हैं. कहने की जरूरत नहीं है कि इस रैली से पहले, तेजस्वी यादव के दस दिन के जबर्दस्त सड़क दौरे से पैदा हुई गति और कार्यकर्ताओं के उत्साह को, इस रैली ने और धार दे दी है.
पटना से हुई इंडिया गठबंधन की चुनावी रैलियों की इस धमाकेदार शुरूआत को, आने वाले हफ्तों में तथा चुनाव के समय तक किस हद तक बनाए रखा जाता है, यह तो आने वाला समय ही बताएगा. लेकिन, इस रैली से कम से कम इतना तय हो गया है कि नीतीश कुमार की पल्टी से, भाजपा ने बिहार में एनडीए के बिखरने तथा उसकी चुनौती के खत्म हो जाने की जो उम्मीदें लगायी होंगी, पूरी होती नजर नहीं आती हैं. नीतीश कुमार के भाजपा के पाले में लौट जाने के बावजूद, इंडिया गठबंधन उसके लिए एक प्रभावी चुनौती बना हुआ है.
इस संदर्भ में यह याद दिलाना भी अप्रासंगिक नहीं होगा कि बिहार में विधानसभा के पिछले चुनाव में, जब नीतीश कुमार के नेतृत्व में ही, भाजपा-जदयू गठजोड़ मैदान में था, राजद के नेतृत्व में महागठबंधन ने उसके लिए हार-जीत की चुनौती खड़ी कर दी थी, जिसमें कुछेक हजार वोट के अंतर से ही नीतीश कुमार की सत्ता में वापसी हुई थी और राजद विधानसभा में सबसे बड़ी पार्टी बनकर सामने आई थी.
उस स्थिति की वापसी भी, बिहार में एनडीए के लिए गंभीर चुनौती खड़ी हो जाने को और उसके लिए 2019 का नतीजा दोहराना, लगभग असंभव हो जाने को तो दिखाती ही है. पटना रैली का उत्साही जन सैलाब, इससे आगे और चुनावी संतुलन बदल जाने का इशारा करता है और इंडिया के खाते में एक से आगे जितनी भी सीटें, उतना ही अखिलेश के नारे को सच करने की दिशा में प्रगति.
और अखिलेश यादव के उत्तर प्रदेश का क्या? पिछले ही दिनों हुए राज्यसभा चुनावों में उत्तर प्रदेश में भाजपा के समाजवादी पार्टी के सात विधायक तोड़कर,अपना आठवां उम्मीदवार जितवा लेने के बाद, भाजपा नेताओं/ प्रवक्ताओं ने बार-बार, 'अबकी बार, अस्सी पार' का नारा दोहराया है. यह एक प्रकार से अखिलेश यादव के '80 हटाओ' के नारे की उलट है.
बहरहाल, भाजपा के इस नारे के सिलसिले में यह दर्ज करना भी जरूरी है कि 2019 के चुनाव में खुद 62 और सहयोगी अपना दल के साथ मिलकर 64 सीटें जीतने के बाद से भाजपा, अन्य चीजों के अलावा पिछले ही दिनों, पश्चिमी उत्तर प्रदेश की क्षेत्रीय पार्टी राष्ट्रीय लोकदल को, सपा के साथ उसका गठबंधन तुड़वाकर, अपने पाले में लाने में कामयाब रही है. इसके अलावा, इसी दौरान उत्तर प्रदेश में उसने सुहेलदेव समता समाज पार्टी, निषाद समाज पार्टी आदि कुछ अपेक्षाकृत छोटी जातिगत आधार वाली पार्टियों को भी अपने साथ ले लिया है.
इस सब के अलावा प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष उपायों से भाजपा यह सुनिश्चित करने में भी कामयाब रही है कि 2019 के चुनाव के विपरीत, इस बार बहुजन समाज पार्टी अपने सीधे नुकसान की संभावनाओं के बावजूद, समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन करने के बजाय, तीसरा मोर्चा खोलते हुए अकेले चुनाव लड़े और इस प्रकार, भाजपा विरोधी वोटों का बंटना सुनिश्चित करे. जानकारों के अनुसार तो भाजपा का प्रयास यह भी है कि बसपा, ओवैसी की पार्टी एमएआईएम के साथ गठबंधन कर चुनाव लड़े, जिससे भाजपा विरोधी वोट का ज्यादा से ज्यादा बंटवारा कर सके. लेकिन विडंबना यह है कि इस सब के बावजूद, इस लोकसभा में सबसे ज्यादा सदस्य भेजने वाले उत्तर प्रदेश में ही भाजपा, विशेष आश्वस्त नजर नहीं आ रही है.
उप्र को लेकर भाजपा के आशंकित होने कुछ अंदाजा इस तथ्य से लग जाता है कि उसने कुल 195 सीटों की अपनी जो सूची जारी की है, उसमें उत्तर प्रदेश की 51 सीटों पर जो उम्मीदवार घोषित किए गए हैं, उनमें पूरी 43 सीटों पर अपने निवर्तमान लोकसभा सदस्यों को उतारने की रक्षात्मक रणनीति का ही सहारा लिया गया है. और तो और भाजपा ने खीरी से, गृहराज्य मंत्री टेनी को दोबारा उतार दिया है, जिसके बेटे ने किसानों पर जीप चढ़ाकर, चार आंदोलनकारी किसानों और एक पत्रकार की हत्या कर दी थी और खुद टेनी पर भी इस सिलसिले में हत्यारे की मदद करने समेत आरोप लगे थे.
शेष 8 सीटें ऐसी हैं, जिन पर 2019 के चुनाव में भाजपा उम्मीदवार हार गए थे और इनमें कम से कम तीन सीटों पर, दबबदल के जरिए हथियाए गए बसपा सांसद समेत, दूसरी पार्टियों से आयातित नेता उतारे गए हैं. इसी समीकरण से जौनपुर से, मुंबई से कांग्रेस के विवादों में रहे नेता, कृपाशंकर सिंह को उतारा गया है, जो महाराष्ट्र में कांग्रेस की राज्य सरकार में मंत्री भी रहे थे. यानी उत्तर प्रदेश में मोदी-योगी की डबल इंजन लोकप्रियता के सारे दावों से लेकर, राम मंदिर बनने से लेकर अब काशी व मथुरा में वैसे ही विवादों को हवा दिए जाने के सारे सहारों के बावजूद, भाजपा पिछली बार कामयाबी दिलाने वाले संतुलन में जरा-सी भी छेड़छाड़ करने से डर रही है.
बेशक, भाजपा का यह डर अकारण भी नहीं है. इस डर के पीछे एक तो यह तथ्य है कि 2022 के आरंभ में हुए विधानसभाई चुनाव में भाजपा दोबारा सरकार में आ जरूर गयी थी, लेकिन अपनी 50 से ज्यादा सीटें गंवाने के बाद. दूसरी ओर समाजवादी पार्टी ने अपने मत फीसद तथा सीटों में उल्लेखनीय सुधार किया था और वह निर्विवाद रूप से मुख्य विपक्षी पार्टी बनकर सामने आई थी. उसी अनुपात में बसपा का ग्राफ नीचे गया था, जो उसके बाद से नीचे ही बैठता गया है. इससे भाजपा विरोधी वोट में बंटवारा कराने की बसपा की सामर्थ्य पहले से काफी कम हो गई है.
यही नहीं, विधानसभा चुनाव के बाद सपा से जीते दारासिंह चौहान के भाजपा-प्रेरित दल-बदल के बाद, उनकी ही विधानसभाई सीट पर हुए हाई वोल्टेज उपचुनाव में, आदित्यनाथ सरकार तथा भाजपा के सारी ताकत झोंकने के बाद भी, भाजपा की रिकार्ड वोटों से हार हुई थी. भाजपा की इस हार का एक उल्लेखनीय पहलू यह भी था कि इस बीच इंडिया गठबंधन का विचार सामने आ चुका था और इस उपचुनाव में सपा उम्मीदवार ने, इंडिया गठबंधन के साझा उम्मीदवार के रूप में ही खुद को पेश किया था और अपनी जीत को भी इसी रूप में पेश किया था.
अब समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के बीच सीटों के बंटवारे पर समझौते के साथ, जिसके तहत कांग्रेस 17 सीटों पर लड़ने जा रही है, इंडिया गठबंधन कमोबेश अंतिम रूप से सामने आ चुका है. लोकदल का भाजपा के पाले में चले जाना बेशक, इंडिया गठबंधन के विचार के लिए उसी प्रकार एक धक्का है, जैसे मायावती का एकला चलो रे का ऐलान. लेकिन, राहुल गांधी की न्याय यात्रा को पिछले दिनों खासतौर पर पूर्वी तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश में लोगों का जैसा उत्साहपूर्ण समर्थन मिला था, उससे ऐसा लगता है कि इन धक्कों का नुकसान सीमित ही होगा.
दूसरी ओर, अगर इस यात्रा तथा उससे निकली प्रेरणाओं से कांग्रेस अपने 2009 तक के आधार का एक हिस्सा भी फिर से सक्रिय करने में कामयाब हो जाती है, तो इंडिया गठबंधन उप्र में भाजपा के लिए वास्तविक चुनौती बन सकता है और अखिलेश यादव के नेतृत्व मेें समाजवादी पार्टी का रोजगार जैसे विशेष रूप से युवाओं को प्रभावित करने वाले मुद्दों पर जोर, चुनाव में पांसा भी पलट सकता है.
इसलिए, अखिलेश यादव के '120 हटाओ' के नारे का विशेष महत्व यह है कि यह हिंदी हृदय प्रदेश में, जो कि भाजपा का गढ़ है, उसे वास्तविक चुनौती दिए जाने की संभावनाओं को सामने ले आता है. भाजपा, दक्षिण और पूर्व से पहले ही बहुत हद तक बाहर है, उत्तर के उसके गढ़ में जहां 2019 के मुकाबले वह पहले ही हर तरह से कमजोर स्थिति में है, अगर उसे तगड़ा झटका भी लग जाए, तो भाजपा को सत्ता से बाहर जाना पड़ सकता है.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक पत्रिका 'लोकलहर' के संपादक हैं.)
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