(टिप्पणी: बादल सरोज)
4 जून को देश ने जिन्हें सबसे ज्यादा मिस किया, वे कामरेड सुरजीत हैं. असाधारण जटिलताओं में से राह निकालकर देश के लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष अस्तित्व को बनाये रखने की जो ताकत, भेड़ियों को गाँव से दूर रखने के लिए सबको जगाकर एक साथ खड़ा करने की जो महारत सुरजीत बब्बा में थी, वह हमने - हमारे होश में - किसी और में नहीं दिखी.
आजादी के बाद की भारतीय राजनीति के हर निर्णायक दौर में ये कामरेड हरकिशन सिंह सुरजीत थे, जिन्होंने संविधान को कुतरने, लोकतंत्र को चींथने, भाईचारे को भभोड़ने और देश की आजादी को कमजोर करने वाले भेड़ियों को इंसानों की बसाहटों से दूर रखा. 1967, 1977, 1989, 1992, 1996, 2004 से लेकर पंजाब असम सहित पृथकतावादी आंदोलनों सहित जब-जब भारतीय राजनीति किसी अंधेरे वाली और घुमावदार भूलभुलैया पर खड़ी हुई, सुरजीत ने उसे असमंजस से निकाला और सही रास्ते पर लाकर खड़ा किया.
ऑफकोर्स ऐसा करते हुए वे अपनी पार्टी की नीति को लागू कर रहे होते थे, ज्योति बसु से लेकर ईएमएस और बाकी नेता और पूरी पार्टी उनके पीछे खड़ी हुई होती थी; फिर भी, तब भी और इसके बाद भी, सुरजीत होना उनके काम को अतिरिक्त प्रखरता और परिणाममूलकता दे देता था.
15 वर्ष की उम्र में ही अंग्रेजी गोलीबारी के बीच बेधड़क कमिश्नरी पर तिरंगा फहराने से आजादी की लड़ाई में शामिल हुए और भगत सिंह के शहादत दिन को अपना जन्मदिन बनाने वाले, स्वतंत्र भारत मे 9 साल जेलों में गुजारने वाले सुरजीत आजादी की कीमत जानते थे. आजादी आंदोलन से गद्दारी करने वाले गीदड़ों के गाँव मे आने से फैलने वाली बीमारियों के खतरे समझते थे.
वे भारत की जनता के गौरवशाली इतिहास से परिचित थे. जिन्ना और सावरकर की परस्पर विरोधी दिखती, किन्तु असल मे पारस्परिक पूरक साम्प्रदायिकता की विभाजनलीला देख चुके थे ; उस जहर की सांघातिकता से परिचित थे, इसलिए ऐसी विषाक्त राजनीति के खिलाफ थे ; जीवन भर रहे और जब तक रहे, अपने होने भर से ही भेड़ियों को उनकी हैसियत दिखाते रहे.
वे उस जानदार विचारधारा के चलते-फिरते, जीते-जागते उदाहरण थे, जो व्यक्ति के ऊपर निजी स्वार्थों को कभी हावी नहीं होने देती. जो देश, मेहनतकश जनता, मजदूर-किसानों और इंसानियत को हमेशा ऊपर रखती है. जान की कीमत चुका कर भी उनकी रक्षा करती है. इंकलाब की कोशिशों को आगे बढ़ाती है. इस विचारधारा का नाम है मार्क्सवाद.
वे उस शानदार पीढ़ी के अग्रणियों में से एक थे, जिसने कबीर के कहे को जीया, लकुटिया हाथ मे लिए अपना घर फूंककर सबका घर और समाज रोशन किया, उसे बचाने, जैसा है : उससे बेहतर बनाने का जिम्मा लिया और इसी काम को पूरा करने के लिए जीवन समर्पित कर दिया.
उन्होंने भेड़ियों को गांव से खदेड़ने के लिए गांव अपने नाम लिखाये नहीं, कब्जाए नहीं ; गांव शहर जगाए, उन्हें एकजुट किया. साम्प्रदायिक ताकतों - 1967 में जनसंघ, उसके बाद भाजपा - को सत्ता से दूर रखने के लिए धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक पार्टियों को जोड़कर संयुक्त मोर्चे, गठबंधन बनवाये - अपने लिये कुछ पाने, बनाने या अपनी पार्टी के मंत्री बनवाने के लिए नहीं ; संविधान और जनवाद बचाने के लिए, ताकि जनता के संघर्षों के आगे बढ़ने की संभावनाएं बनी रहे.
4 जून को सुरजीत होते तो ... यह यूँ होता तो क्या होता, वाली बात नहीं है. सुरजीत की पाठशाला के एक बैक-बेंचर छात्र का अनुभव है कि तोते बहेलियों का दाना चुगने की बजाय उसके जाल सहित उड़ गए होते.
आज सुरजीत की कमी बहुत खलती है ; मगर लड़ाईयों का जो बीजक, उनमें अवाम को शिरकत कराने-बढाने का जो सबक वे दे गए हैं, उस पर चलते हुए इस कमी को पूरा किया जा सकता है, पूरा किया जाएगा.
वन एंड ओनली सुरजीत, जिन्हें आज बहुत मिस करता है देश!!
(टिप्पणीकार 'लोकजतन' के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं. संपर्क: 94250-06716)
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