(व्यंग्य: राजेंद्र शर्मा)
विरोधी भी गजब करते हैं. बताइए, मोदी जी की सरकार पर तानाशाही चलाने का इल्जाम लगा रहे हैं. वह भी सिर्फ इसलिए कि लोकसभा और राज्यसभा को मिलाकर, कुल एक सौ छियालीस सांसदों को सदन से निलंबित कर दिया गया. पर इसकी नौबत आयी ही क्यों? विपक्ष वालों की जिद की वजह से ही तो. विपक्ष वाले गृहमंत्री के बयान की जिद नहीं करते, तो सभापति लोगों को क्या पागल कुत्ते ने काटा था, जो थोक में निलंबन करते!
हमें पता है, विपक्ष वाले संसदीय परंपराओं की दुहाई देंगे. संसद की सुरक्षा में सेंध लग गयी, तो गृह मंत्री को संसद में बयान देना ही चाहिए, संसद में इस पर चर्चा होनी ही चाहिए, वगैरह-वगैरह. होंगी ऐसी संसदीय परंपराएं. पहले के राज करने वाले करते होंगे ऐसी परंपराओं का पालन.
पर अमृतकाल में, अब ऐसी परंपराओं की तानाशाही नहीं चलेगी. इस परंपरा में तो हमें खासतौर पर विदेशी गुलामी की बू आती है. और उससे भी बढक़र तानाशाही की. बताइए! जिस मोदी की पार्टी को एक सौ तीस करोड़ भारतीयों ने चुना है, उसकी सरकार का गृहमंत्री, अपनी मर्जी से यह भी नहीं तय कर सकता कि किस पर बोलना है और किस पर नहीं बोलना है? देश में डैमोक्रेसी है या नहीं है? या विपक्ष वाले यह सोचते हैं कि डैमोक्रेसी बाकी सब के लिए तो है, बस पीएम जी और गृहमंत्री के लिए ही डैमोक्रेसी नहीं है.
पीएम जी मणिपुर पर चुप रहें, तो गुनाह. गृहमंत्री जी संसद में सुरक्षा चूक पर चुप रहें, तो पाप. संसद में चुप रहें और संसद के बाहर बोलें, तब तो महापाप! बंदे मर्जी से चुप भी नहीं रह सकते. ये ससुरी संसदीय परंपरा है या सरकार के गले की फांसी? डैमोक्रेसी में तो ये परंपरा मंजूर नहीं की जा सकती. पहले हुआ होगा - तो हुआ होगा, अब मंजूर नहीं की जा सकती. छप्पन इंच की छाती वाले हैं, गला पकड़कर कोई कुछ नहीं बुलवा सकता है.
और यह दलील तो सिरे से ही गलत है कि जब टीवी प्रोग्राम में, भाषण में बोल सकते हैं, तो संसद में क्यों नहीं बोल सकते हैं? मुद्दा बोलने, न बोलने का नहीं है. मुद्दा है मर्जी का. डैमोक्रेसी, माने उनकी मर्जी. टीवी पर बोलें, उनकी मर्जी. संसद में नहीं बोलें, उनकी मर्जी. बोलने की जिद करने वालों को संसद से फिकवा दें, राजाजी की मर्जी. बस मर्जी से मिमिक्री कोई नहीं करेगा!
(व्यंग्यकार वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक 'लोकलहर' के संपादक हैं.)
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