(आलेख: संजीव कुमार)
भाजपा सरकार ने 2017 में तमाम विपक्षी दलों के विरोध और चुनाव आयोग तथा रिज़र्व बैंक की मनाही के बावजूद फाइनैन्स बिल के रास्ते यानी राज्यसभा से कन्नी काटकर चुनावी बांड की जो योजना लागू की, वह भ्रष्टाचार को विधिसम्मत बना देने की एक अभूतपूर्व क़वायद थी. सर्वोच्च न्यायालय ने अभी फरवरी महीने में इस स्कीम को ग़ैर-क़ानूनी क़रार देते हुए ‘क्विड प्रो क्वो’ (भ्रष्ट लेन-देन) की जिस आशंका पर उंगली रखी थी, वह सारे आंकड़े सामने आने के बाद सौ फ़ीसद सही साबित हुई.
इन आंकड़ों के सामने आने से यह भी स्पष्ट हो गया कि स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया इसे सार्वजनिक करने में इतना हील-हवाला क्यों कर रहा था. पहले उसने सर्वोच्च न्यायालय द्वारा आंकड़ों को चुनाव आयोग को सौंपने के लिए निर्धारित की गयी तिथि का उल्लंघन करते हुए 30 जून तक का समय मांगा. यानी पूरी कोशिश थी कि चुनाव संपन्न हो जायें, नयी सरकार बन जाये, तभी जानकारी सार्वजनिक की जाये. जब अदालत ने फटकार लगायी और कहा कि 14 मार्च की शाम 5 बजे तक आंकड़े देने ही होंगे वरना अदालत की अवमानना का मामला बनेगा, तो 14 मार्च को चुनाव आयोग को आंकड़े सौंपते हुए यह सुनिश्चित किया गया कि किस समूह ने किसे चुनावी बांड्स दिये, यह पता न चले. इसका तरीक़ा था ख़रीदे गये और भुनाये गये बांड्स पर अंकित अल्फ़ान्यूमेरिक कोड की जानकारी न देना. यानी आप उस फ़ेहरिस्त से यह पता नहीं कर सकते थे कि ‘अ’ कंपनी ने जो करोड़ों के बांड्स ख़रीदे, उनमें से कितने ‘क’ पार्टी को गये, कितने ‘ख’, ‘ग’ इत्यादि को.
इसके बावजूद यह बात तो बांड्स ख़रीदने वालों की सूची से ज़ाहिर हो ही गयी थी कि इनमें कई शेल कंपनियां यानी ऐसी कंपनियां शामिल थीं, जिनका वजूद सिर्फ़ काग़ज़ पर है और जो पैसे को इधर-उधर करने के मक़सद से ही बनायी जाती हैं. दूसरे, यह भी स्पष्ट हो गया था कि इनमें से कई कंपनियों ने अपनी कुल आमदनी से कई गुना ज़्यादा के बांड्स ख़रीदे (चंदे के मामले में पहले जो ऊपरली सीमा थी, कुल मुनाफे का साढ़े सात फ़ीसद, उसे चुनावी बांड की स्कीम ने ख़त्म कर दिया था). कोई कंपनी ऐसा क्यों करती है, इसे समझना मुश्किल नहीं है. या तो वह फ़र्ज़ी कंपनी है और किसी और के पैसे को इधर मोड़ने के लिए ही उसे बनाया गया है, या फिर वह कंपनी मुनाफ़े की हक़ीक़त यानी वर्तमान को नहीं, मुनाफ़े की संभावना यानी भविष्य को ध्यान में रख रही है और चुनावी बांड उसका निवेश है.
इस पहले और दूसरे नुक़ते से यह तो साफ़ हो ही गया था कि यह भ्रष्टाचार को विधिसम्मत बनाने का ज़रिया था. जो तीसरी बात भी उसी समय स्पष्ट हो गयी, वह यह कि जिन कंपनियों ने चुनावी बांड में बहुत सारा पैसा लगाया, उनमें ऐसी कंपनियां बहुतायत से थीं, जिन पर इनकम टैक्स या ईडी की कार्रवाई चल रही थी, और बताने की ज़रूरत नहीं कि ये केंद्र सरकार के अधीन काम करनेवाले महकमे हैं. हां, सार्वजनिक किये गये आंकड़ों के आधार पर यह दावा करना मुश्किल था कि ऐसी कंपनियों के चुनावी बांड केंद्र की सत्ता पर क़ाबिज़ भाजपा को ही गये या नहीं.
सार्वजनिक किये गये आंकड़ों से यह बात साबित न हो पाना ही वह प्रयोजन था, जिसके लिए एसबीआई ने अल्फ़ान्यूमेरिक कोड नहीं बताये और सर्वोच्च न्यायालय से कहा कि सारा हिसाब-किताब इतनी जल्दी करना उसके बस की बात नहीं है. सर्वोच्च न्यायालय को पता था कि इस कंप्यूटरीकृत दौर में यह शुद्ध बहाना है, इसलिए उसने 21 मार्च की शाम 5 बजे तक का समय दिया कि आपके पास जो भी जानकारियां हैं, वे सब आपको देनी होंगी, उनमें से कुछ भी आप रोक नहीं सकते. सारी जानकारी का मतलब है, सारी जानकारी.
कमाल की बात है कि एसबीआई, जो 30 जून से पहले कुछ भी मुहैया कराने की क्षमता नहीं रखती थी, उसने 21 मार्च को, यानी अपनी क्षमता के अनुसार अनुमानित तिथि से 100 दिन पहले वह सब मुहैया करा दिया. क्या एसबीआई से पूछा नहीं जाना चाहिए कि भैया, दे सकते थे, तो देने में हील-हवाला क्यों कर रहे थे? वह कौन था, जिसने तुम्हारी बांहें मरोड़ रखी थीं और तुम माने तभी, जब किसी और ने उससे ज़्यादा मरोड़ दीं? कौन कह रहा था तुमसे कि ख़बरदार जो हमारी असलियत सामने आने दी!
जो एसबीआई की बांह मरोड़ रहा था, वही फिक्की और ऐसोचैम को भी अदालत में अपनी याचिका लेकर भेज रहा था कि योर ऑनर, किस कंपनी ने किसको दिया, यह भेद नहीं खुलना चाहिए, क्योंकि यह व्यापारिक घरानों के हित में नहीं है.
ग़रज़ कि सर्वोच्च न्यायालय के कड़े रुख को, जो शायद इस ‘कौन’ के लिए अप्रत्याशित था, मुलायम बनाने के सारे तरीक़े अपना लिये गये. लेकिन रुख की कड़ाई बनी रही और आख़िरकार आंकड़े सामने आये. और जब आये, तो अनुमान हक़ीक़त में बदल गये. हक़ीक़त यह है कि चुनावी बांड की इस अपारदर्शी व्यवस्था में भाजपा सबसे बड़ी लाभार्थी ही नहीं है (वह तो पहले से ही पता था कि अप्रैल 2019 के बाद से लगभग 50 फ़ीसद राशि अकेले उसके खाते में गयी है, पहले और ज़्यादा गयी थी), सबसे भ्रष्ट लाभार्थी भी है, जिसने केंद्रीय एजेंसियों का सहारा लेकर व्यापारिक घरानों से ऐसी वसूली की है, जो इस अपारदर्शी व्यवस्था के बगैर संभव नहीं थी. मनी लौंडरिंग, टैक्स चोरी जैसे मामलों को लेकर जिन व्यापारिक घरानों पर छापे पड़े, उनसे यह बेनामी चंदा लेकर उन पर कार्रवाई रोक दी गयी. ग़रज़ कि केंद्रीय एजेंसियों को हफ़्ता वसूली के एजेंट की तरह इस्तेमाल किया गया.
“मार्च 2022 में संसद को सूचित किया गया कि मोदी सरकार में ‘संदिग्धों’ पर छापे और तलाशी की कार्रवाई 27 गुना बढ़ी हैं. ईडी के द्वारा ऐसी 3010 कार्रवाइयां हुईं, लेकिन चार्जशीट उनमें से सिर्फ़ 888 मामलों में दायर हुई और महज 23 अभियुक्तों को अदालत ने दोषी पाया. इन तीन चरणों के बीच के अंतराल को चुनावी बांड के आंकड़ों की रौशनी में बेहतर समझा जा सकता है. यह सरकार सबसे भ्रष्ट सरकार साबित हुई है- नरेंद्र मोदी के ‘न खाउंगा न खाने दूंगा’ के दावे के एकदम विपरीत”. (वृंदा करात, ‘हू पेज़ हू विंस’, इंडियन एक्सप्रेस, 23 मार्च 2024).
आंकड़ों का विश्लेषण करनेवालों ने ऐसे कई मामले ढूंढ निकाले हैं. मसलन, सितम्बर 2018 में हरियाणा पुलिस ने रॉबर्ट वाड्रा और डीएलएफ़ समूह पर गुरुग्राम में ज़मीन के सौदे में भ्रष्टाचार और धोखाधड़ी का मामला दर्ज किया. जनवरी 2019 में सीबीआई ने एक और मामले में डीएलएफ़ के दफ़्तरों की तलाशी ली. अक्टूबर 2019 से नवम्बर 2022 के बीच डीएलएफ़ समूह की तीन कंपनियों ने कुल 170 करोड़ के चुनावी बांड ख़रीदे और लाभार्थी अकेले भाजपा रही, डीएलएफ़ समूह ने और किसी राजनीतिक दल को कोई चंदा नहीं दिया. आश्चर्यजनक तरीक़े से अप्रैल 2023 में हरियाणा की भाजपा सरकार ने अदालत में कहा कि वाड्रा और डीएलएफ़ के ज़मीन सौदे में उसे किसी तरह की अनियमितता नहीं मिली है. मामला रद्द हो गया.
एक दिलचस्प उदाहरण अरविंदो फार्मा का है. हैदराबाद स्थित यह कंपनी दिल्ली आबकारी नीति मामले में अभियुक्त है. नवम्बर 2022 में इसके निदेशक पी शरतचंद्र रेड्डी को ईडी द्वारा गिरफ़्तार किया गया, जिसके पांच दिन बाद ही कंपनी ने भाजपा को 5 करोड़ के चुनावी बांड दिये. जब श्री रेड्डी का मामला उच्च न्यायालय के सामने आया, तो ईडी ने उनकी ज़मानत का विरोध नहीं किया और मई 2023 में ख़राब सेहत के आधार पर उन्हें ज़मानत मिल गयी. जून 2023 में शरत रेड्डी इस मामले में सरकारी गवाह बन गये और उसके दो महीने बाद कंपनी ने भाजपा को 25 करोड़ का चंदा और दिया.
याद रखें कि दिल्ली आबकारी नीति मामले में ही दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल की भी गिरफ़्तारी हुई है. बताया जाता है कि इस मामले में जो लोग अंदर हैं, उनके ख़िलाफ़-सिवाय गवाह के-पैसे की लेन-देन का कोई और सबूत मौजूद नहीं है. अदालत ने इस मामले में मनीष सिसोदिया की जमानत की सुनवाई करते हुए ईडी से साफ़ कहा था कि यह मामला बहुत कमज़ोर है और चुटकियों में उड़ जायेगा; इसमें कथित रिश्वत की राशि किन-किन हाथों से गुज़री, इसका कोई सबूत नहीं है.
इतना कहने के बावजूद उन्होंने ज़मानत नहीं दी, यह अलग बात है. इस मामले को देखते हुए सबसे पहली जिज्ञासा तो यही होती है कि अगर सचमुच अरविंदो फार्मा ने आम आदमी पार्टी को 100 करोड़ रुपये दिये, तो यह काम इलेक्टोरल बांड के ज़रिये क्यों नहीं किया गया? इस स्कीम के आने के बाद इतना सुरक्षित रास्ता छोड़कर पैसा किसी और रास्ते से किसी राजनीतिक दल तक क्यों पहुंचाया जायेगा? बहरहाल, अरविन्द केजरीवाल अभी हिरासत में हैं और देश में आम चुनावों की घोषणा हो चुकी है.
सभी चीज़ों के छूटे सिरों को जोड़ने पर बड़ी भयावह तस्वीर उभरती दिखती है, जिसकी दिशा में इस लेख को फ़िलहाल नहीं जाना चाहिए, क्योंकि वह विषयांतर होगा. लेकिन कम-से-कम इतना तो विषय के दायरे में ही है कि अगर आम आदमी पार्टी के नेताओं को पैसा लेकर पक्षपात करने के आरोप में पकड़ा जा सकता है, तो भाजपा के नेताओं को क्यों नहीं, जब यह साबित हो चुका है कि उन्होंने उसी मनी लौंडरिंग के आरोपी को हिरासत से रिहा करने के लिए पहले 5 करोड़ और फिर 25 करोड़ लिये और सरकारी गवाह बनने के लिए भी राज़ी किया.
25 मार्च को इंडियन एक्सप्रेस ने चुनावी बांड ख़रीदनेवाली ऐसी 26 कंपनियों के विवरण प्रकाशित किये हैं, जो केंद्रीय एजेंसियों की जांच के दायरे में आये. इनमें से 16 कंपनियों ने एजेंसियों की जांच के दायरे में आने के बाद बांड ख़रीदे और दूसरी 6 कंपनियों ने जांच के दायरे में आने के बाद चुनावी बांड की ख़रीद बढ़ा दी. आप एक्सप्रेस का विश्लेषण पढ़ें, तो पता चलेगा कि इन कंपनियों के बांड सिर्फ़ भाजपा ने नहीं भुनाये हैं. राज्य सरकारों में जो दल हैं, उन्हें भी इनका लाभ मिला है. लेकिन भाजपा के पास इसका सबसे बड़ा हिस्सा, 37.34 फ़ीसद गया है. इसका मतलब यह कि सबसे बड़ा हिस्सा केन्द्रीय जांच एजेंसियों के कोप से बचने के लिए ख़र्च किया गया और शेष राज्य सरकारों से अपने काम निकलने के लिए.
ये सारे तथ्य चीख-चीखकर एक ही बात कह रहे हैं : चुनावी बांड स्कीम इस देश का अभी तक का सबसे बड़ा घोटाला है और उसे लानेवाली सरकार आज़ाद भारत की सबसे भ्रष्ट सरकार है. इस बात को इस देश के कम्युनिस्टों ने शुरुआत में ही न सिर्फ़ समझा, बल्कि इससे लड़ने का नैतिक अधिकार बनाये रखने के लिए चुनावी बांड लेने से इंकार भी किया (वे वैसे भी कॉर्पोरेट घरानों का चंदा नहीं लेते).
इसीलिए सीपीआई(एम) इस स्कीम के ख़िलाफ़ सर्वोच्च न्यायालय में याचिकाकर्त्ता भी बन पायी. अन्य राजनीतिक दलों की विडंबना यह है कि वे इसका विरोध भी करते रहे और जो कुछ टुकड़े अपनी थाली में आने थे, उसे लेने का लोभ भी संवरण नहीं कर पाये. लेकिन सिर्फ़ इतने से ही सब एक ही थैली के चट्टे-बट्टे नहीं हो जाते हैं. पूरे आंकड़ोद्घाटन के बाद भाजपा को भ्रष्टतम पार्टी का खिताब तो मिलना ही चाहिए. यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि मुख्यधारा की मीडिया यह खिताब सौंपने के लिए अभी भी दूसरी पार्टियों की तलाश में मुब्तिला है.
क्या भाजपा का बेनक़ाब चेहरा गिनती के अख़बार और न्यूज़ पोर्टल्स को छोड़कर आपको कहीं नज़र आ रहा है?
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर और जनवादी लेखक संघ के राष्ट्रीय महासचिव हैं. संपर्क : 09818577833)
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