(आलेख: राजेंद्र शर्मा)
क्या चुनावी बांड से संबंधित रहस्योद्घाटनों का, अगले 19 अप्रैल से शुरू होने जा रहे आम चुनाव के सिलसिले पर कोई असर नहीं पड़ेगा? कारोबारी दुनिया के कर्णधारों की राय का प्रतिनिधित्व करने वाले, बिजनस स्टेंडर्ड में प्रकाशित एक सर्वे के अनुसार तो, इस सब का चुनाव पर कोई असर नहीं पड़ेगा. दस बड़ी कंपनियों के सीईओ की राय को दिखाने वाले सर्वे के हिसाब से, चुनावी चंदे के इस गड़बड़ घोटाले से न तो मतदाता प्रभावित होंगे और न ही चुनाव के नतीजों पर इसका असर पड़ेगा. वैसे यही सर्वे एक और दिलचस्प चीज भी बताता है, जो भारत में व्हाइट कारपोरेट चंदे में पारदर्शिता के स्वांग को तार-तार कर देती है. उक्त दावा करने वाले बड़ी कंपनियों के सीईओ में से, पूरे 50 फीसद ने यह स्वीकार किया था कि उनके यहां राजनीतिक चंदा देने की 'मैनेजिंग बोर्ड द्वारा अनुमोदित' कोई नीति है ही नहीं.
दूसरी ओर, 40 फीसदी ने ही बोर्ड द्वारा अनुमोदित ऐसी किसी नीति की मौजूदगी की बात कही, जबकि 10 फीसदी इस मामले में 'मैं ना जानूं' ही थे. साफ है कि भारत में शीर्ष कारपोरेट स्तर पर भी, राजनीतिक चंदे का मामला सबसे बढ़कर सत्ता-प्रतिष्ठान से, चंदे के बदले में अतिरिक्त लाभ बटोरने की जुगाड़ का ही मामला है, जिसमें बोर्ड जैसे किसी वृहत्तर निकाय द्वारा अनुमोदित किसी तरह की नीति को, मददगार के बजाय, बोझ ही समझा जाता है. इसके बजाय, 'न खाता न बही, जम जाए सो जुगाड़ सही' ही कारगर नीति है.
चुनावी बांड के महाघोटाले का भी चुनाव पर कोई असर नहीं पड़ने का यह 'भरोसा' सिर्फ उस कारपोरेट जगत तक ही सीमित नहीं है, जो इस घोटाले का एक सक्रिय पक्ष है. एक प्रकार से, इस घोटाले के दूसरे पक्ष यानी संघ परिवार की भी कथनियों में, कुछ ऐसा ही विश्वास दिखाई देता है. हां! इतना जरूर है कि बांड के मामले में भाजपा की संलिप्तता, बांडों के लेन-देन की सिर्फ शुरुआती जानकारियां आने के बाद से ही इतना स्पष्ट है कि संघ परिवारियों को कारपोरेटों की तरह, यह सुविधा हासिल नहीं है कि बांड से चंदा पाने वाले के सवाल पर चुप ही लगा जाते.
इसलिए, उन्हें किसी न किसी तरह से भाजपा का बचाव तो करना ही था. लेकिन, यह बचाव जिस तरह के तर्कों से तथा जिस तरह से पेश किया गया है, उसे बचाव की रस्म-अदायगी ही समझा जाना चाहिए. बचाव की रस्म अदायगी पर ही यह संतुष्टि इसीलिए है कि उनके मन में यह 'भरोसा' है कि संघ-भाजपा द्वारा वोट बटोरे जाने पर, ऐसे मुद्दों का कोई असर नहीं पड़ने वाला है.
मिसाल के तौर पर भाजपा की ओर से 'बचाव' के अभियान की कमान संभाली, खुद मौजूदा निजाम में नंबर-दो पर मजबूती से कायम, गृहमंत्री अमित शाह ने. इंडिया टुडे की कॉनक्लेव में चुनावी बांड के मामले में पूछे गए बहुत ही भोंथरे सवालों के जवाब में, अमित शाह ने अर्द्घ-सत्य तथा असत्य के मिश्रण से लेकर, सरासर बेतुकी दलीलों तक का सहारा लिया, जिनसे कम-से-कम कोई तर्कशील व्यक्ति तो प्रभावित होने से रहा. शाह ने अर्द्घ-सत्य बोला कि भाजपा को करीब 6,000 करोड़ रुपए बांड से मिले थे, जबकि उसे 6,986 करोड़ यानी करीब 7,000 करोड़ रुपए मिले थे. दूसरी ओर, शाह ने बांड से दिया गया कुल चंदा फुलाकर 20 हजार करोड़ रुपए बता दिया, जबकि यह आंकड़ा 13,000 करोड़ रुपए के करीब ही बनता है.
इसके बाद, उन्होंने एक तरफ भाजपा और दूसरी ओर बाकी सब को करते हुए, यह झूठा दावा कर दिया कि भाजपा की तुलना में दोगुने से ज्यादा तो, दूसरी पार्टियों को मिला है. फिर भाजपा के बांड से पैसा लेने का इतना हल्ला क्यों? पहली बात तो यह कि अकेले भाजपा को, बांड के जरिए दी गई रकम का, आधे से जरा सा ही कम मिला है. दूसरे, शाह ने बड़ी चतुराई से यह छुपा लिया कि भाजपा के अलावा दूसरी पार्टियों को बांड से जो चंदा दिया गया है, उसमें से भी एक तिहाई से ज्यादा चंदा भाजपा की सहयोगी पार्टियों को गया है. दूसरी ओर, मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस को, जो 2014 तक सत्ता में रही थी, बांड से आए चंदे का मुश्किल से 12 फीसदी मिला है.
तथ्यों की इस काट-छांट के अलावा जो बहुत आसानी से पकड़ी जाने वाली थी, अमित शाह ने और ज्यादा चतुराई, एक पूरी तरह से बेतुकी दलील का सहारा लेने में दिखाई. वैसे हम यहां इसका जिक्र जरूर करना चाहेंगे कि यह दलील भी कोई शाह की मौलिक खोज नहीं थी, बल्कि संघ परिवारी व्हाट्सएप ग्रुपों में यह दलील पहले ही प्रकट हो चुकी थी. दलील यह थी कि भाजपा को अगर 6,000 करोड़ रुपए मिले भी हैं, तो उसके लोकसभा सदस्यों की ही संख्या 303 की है. बाकी सारी पार्टियों के 241 लोकसभा सदस्य ही हैं, फिर भी उन्हें 14,000 करोड़ रुपए मिले हैं. इसी प्रकार उन्होंने भाजपा की राज्य सरकारों की संख्या की भी दलील दी.
और आखिर में, प्रति लोकसभा सदस्य, चुनावी बांड चंदे का हिसाब निकालकर, उन्होंने दिखा दिया कि भाजपा को प्रति लोकसभा सदस्य जितना पैसा मिला है, उससे कहीं ज्यादा पैसा तृणमूल कांग्रेस, द्रमुक आदि पार्टियों और यहां तक कि कांग्रेस को भी मिला है! प्रति लोकसभा सदस्य या प्रति विधानसभा सदस्य के औसत की दलील से तो भाजपाइयों के किसी भी गुनाह को मामूली ठहराया जा सकता है, औरतों, दलितों आदि के खिलाफ अपराधों को भी!
इंडिया टुडे के उसी कॉन्क्लेव के एक और सत्र में, वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने ईडी-सीबीआई की कार्रवाइयों से धमकाकर, चुनावी बांड के जरिए चौथ वसूली के आरोपों से, अपनी पार्टी और सरकार को बचाने की कोशिश की. इसके बावजूद कि बांड के जरिए राजनीतिक चंदा देने वाले पांच सबसे बड़े दानदाताओं में से तीन ने, केंद्रीय जांच एजेंसियों की कार्रवाई के निशाने पर रहते हुए चंदे दिए थे, वित्त मंत्री ने केंद्रीय एजेंसियों की कार्रवाई और बांड खरीदे तथा दिए जाने के संबंध को नकारने की सभी संभव कोशिशें कीं.
वह यह कहने तक चली गयीं कि कोई जरूरी नहीं है कि छापे के बाद, सत्ताधारी पार्टी को ही चंदा दिया गया हो! और यह भी कि यह भी तो देखना चाहिए कि बांड देने के बाद भी, कुछ मामलों में केंद्रीय एजेंसियों की कार्रवाई चलती रही यानी बांड दिया भी गया, तो भी उसका सरकार की कार्रवाई पर असर नहीं हुआ!
बेशक, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी अपने परिवार का बचाव करने से पीछे नहीं रहा है. आरएसएस के नये-नये पुनर्निर्वाचित सरकार्यवाह, दत्तात्रेय होसबाले ने कहा कि बांड व्यवस्था 'एक प्रयोग' थी और 'वक्त आने पर पता चलेगा कि यह व्यवस्था कितनी फायदेमंद और प्रभावी रही'! उन्होंने यह भी कहा कि जब कोई नयी व्यवस्था आती है, तो उसका विरोध होता ही है, जैसे ईवीएम का भी विरोध हुआ. इसे प्रयोग के लिए ही छोड़ देना चाहिए. यानी संविधान पीठ के चुनावी बांड व्यवस्था को असंवैधानिक करार देकर खारिज कर देने और इसमें घूसखोरी के तमाम साक्ष्य सामने आने के बाद भी, उन्हें इसके फायदे दिखाई देना बंद नहीं हुए हैं.
यह सब इसके बावजूद है कि हर गुजरने वाले दिन के साथ इसके साक्ष्य पर साक्ष्य सामने आ रहे हैं कि किस तरह केंद्रीय एजेंसियों की कार्रवाई के बाद, कंपनियों ने बांड खरीदे थे; कैसे 1000 करोड़ रुपए के बांड खरीदने वाली बड़ी दवा कंपनियों में 7 ऐसी कंपनियां भी शामिल थीं, जिनकी दवाएं मानकों पर परीक्षा में खरी नहीं उतरी थीं; कैसे ठेके मिलने के फौरन बाद बांड खरीदे गए थे; कैसे बांड खरीदने के बाद, छापे पड़े और फिर और ज्यादा बांड खरीदे गए, आदि, आदि.
भाजपा राज्यसभा सदस्य, सीएम रमेश की कंपनी आरपीपीएल के 45 करोड़ रुपए के बांड खरीदने का प्रकरण, बांड के खेल को पूरी तरह से बेनकाब कर देता है. रमेश की कंपनी को, 14 जनवरी 2023 को हिमाचल प्रदेश में सुन्नी हाइड्रो पावर प्रोजैक्ट का 1098 करोड़ रुपए का इंजीनियरिंग, प्रोक्योरमेंट तथा निर्माण का ठेका मिला और उसके दो हफ्ते से भी कम में उसने 5 करोड़ रुपए का बांड खरीदा.
अप्रैल के महीने में, कर्नाटक के चुनाव के समय इस कंपनी ने 40 करोड़ रुपए के बांड और खरीदे. इस कंपनी को ठेका इसके बावजूद दिया गया था कि इससे चंद रोज पहले ही, जोशी मठ के भूधंसाव का प्रकरण सामने आया था, जिसके लिए इसी कंपनी से जुड़ी विष्णुगाड़ परियोजना को जिम्मेदार माना गया था. दरअसल, रमेश के भाजपा तक पहुंचने की कहानी भी कम दिलचस्प नहीं है. 2014 और 2018 में रमेश को दो बार, तेलुगू देशम पार्टी ने राज्यसभा में भेजा था.
लेकिन, 2019 में वह भाजपा में आ गए, जिसका सीधा संबंध 2018 में ईडी और आयकर विभाग द्वारा उनके खिलाफ मारे गए छापों से माना जाता है. तेलुगू देशम् के संरक्षण में रमेश, चंद करोड़ के सरकारी उप-ठेकेदार से, हजारों करोड़ के कारोबारी बन गए, जिसके संबंध में वाईआरसीपी के नेताओं ने अदालत में शिकायत भी की थी. तेलुगू देशम् के भाजपा से अलग होने के बाद, ईडी-आयकर के सहारे भाजपा ने उसका अपहरण कर लिया और उसके बाद से धंधा लो और चंदा दो का रिश्ता आगे बढ़ाया जा रहा है.
ऐसे तमाम घपलों-घोटालों के उजागर होने के बावजूद, अगर मोदी के परिवार को इसका भरोसा है कि इससे उनका कुछ नहीं बिगड़ेगा, तो इसलिए नहीं कि उन्हें लगता है कि ये मुद्दे छोटे हैं, बल्कि उन्हें भरोसा है कि कारपोरेट-सांप्रदायिक गठजोड़ की ताकत, हर तूफान में से उनकी नैया पार करा देगी. कारपोरेटों का सहारा, बांड के घपले के उजागर होने के बावजूद अडिग बना हुआ है, जैसा कि शीर्ष कंपनियों के सीईओ कह रहे हैं. और सांप्रदायिक तुरुप के तौर पर, राम मंदिर के बाद अब, नियम बनाए जाने के बहाने सीएए को, चुनाव से ठीक पहले आगे किया जा चुका है. लेकिन, जब 2004 में 'इंडिया शाइनिंग' का 'भरोसा' काम नहीं आया, तो उसके बीस साल बाद, 2024 का यह खुल्लमखुल्ला सनक भरा 'भरोसा' कैसे काम कर जाएगा!
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक पत्रिका 'लोकलहर' के संपादक हैं.)
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