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इतना अहंकार, घमंड और गुरूर कहां से आता है?

 Newsbaji  |  Oct 22, 2023 12:43 PM  | 
Last Updated : Oct 22, 2023 12:43 PM
भीड़ से
भीड़ से "मुझे सीएम बनना चाहिए कि नहीं" का गुरूर दिखाते हुए मजमेबाजी कर ही रहे हैं.

(आलेख: बादल सरोज)
अभी सिर्फ तारीखें घोषित हुई हैं; अभी नामांकन फ़ार्म भरे जाने हैं, फिर पूरी प्रक्रिया होगी, उसके बाद वोट डलेंगे,  3 दिसंबर को गिनती होगी, तब जाकर पता चलेगा कि इंदौर की 1 नम्बर सीट से कौन जीता!! मगर इस सीट से प्रत्याशी बनाए गए भाजपा के बड़बोले नेता कैलाश विजयवर्गीय ने अभी से खुद को विधायक कहना शुरू कर दिया है. खबरों की मानें, तो वे अफसरों को धमकाते हुए कहते हैं कि विधायक मैं ही हूं. वे यहीं तक नहीं रुकते, "सिर्फ विधायक बनने नहीं आया हूं, मुझे बड़ी जिम्मेदारी मिलने वाली है" कहकर इशारों-इशारों में  प्रदेश की सबसे ऊपर की कुर्सी की तरफ इशारा भी कर देते हैं. ये वही कैलाश जी हैं, जिन्होंने सूची में नाम आने पर तकरीबन मुंह बिसूरते हुए अपनी नाखुशी जाहिर की थी.

कहा था कि "मैं अंदर से खुश नहीं हूं. मेरी चुनाव लड़ने की कोई इच्छा नहीं थी, एक प्रतिशत भी नहीं. मैं अब वरिष्ठ नेता हूं, क्या अब हाथ जोड़कर वोट मांगूंगा?" इस संवाद में उनका "हाथ जोड़कर वोट मांगने" के साथ नत्थी हिकारत भाव दिलचस्प है. अब अचानक वे विधायक और भावी सीएम बने घूम रहे हैं. यह घमंड उनके अकेले का नहीं है- शिवराज, जिनकी टिकिट चौथी सूची में जाकर घोषित हुयी है, वे भी अंदर-अंदर भले कुछ भी महसूस करते हों, कैबिनेट की मीटिंग में अलविदा बोलते हों, मगर भीड़ से "मुझे सीएम बनना चाहिए कि नहीं" का गुरूर दिखाते हुए मजमेबाजी कर ही रहे हैं.

संसदीय लोकतंत्र में चुनाव ही ऐसा मौक़ा होता है, जब ऊंट सचमुच में पहाड़ के नीचे आता है. नेता-नेतानियो को गरीब गुरबों यानि आम मतदाताओं के पास जाना होता है. यही महीना, पंद्रह दिन होते हैं, जब भेड़िये भी मिमियाने लगते हैं, अभद्र से अभद्रतम भी शिष्ट से शिष्टतर हो जाते हैं. फूले नथुने पिचक जाते हैं. शब्दों में मुलायमियत, वाणी में शहद और बर्ताव में हद दर्जे की लोचनीयता आ जाती है.

मगर भाजपा अलग तरह की पार्टी है ; उसमें घमंड, गुरूर, अहंकार  24 घंटा सातों दिन बरकरार रहता है. यह सिर्फ बीच के नेताओं या नीचे की कतारों तक सीमित खासियत नहीं हैं -- इनके सर्वोच्च नेता, जिनके नाम पर विधानसभा के भी चुनाव लड़े जाने की घोषणा की गयी है, वे इनसे भी आगे वाले हैं ; बाकी तो सिर्फ मैं, मैं, मैं करते हैं, वे तो सीधे खुद अपने ही श्रीमुख से मोदी, मोदी, मोदी करते हैं. इतना अहंकार कहाँ से लाते हैं ये लोग? इस घमंड का उदगम कहाँ है? इसका पोषण कहाँ से होता है?

इसके एक नहीं कई स्रोत हैं.
एक तो वह अकूत पैसा है, जो पिछले 20 वर्षों में मप्र और 9 वर्षों में केंद्र में सत्ता में रहकर, भ्रष्टाचार के कीर्तिमान कायम कर खुद कमाया है और अपने यार कार्पोरेट्स को कमवाया है. उन्हें अगाध विश्वास है कि इसकी दम पर वे चुनाव के दौरान जनता के वोट खरीद लेंगे. और अगर खुदा न खास्ता मतदाता नहीं बिके, तो चुनाव के बाद उनके मतों से चुने विधायकों को ही खरीद लेंगे.
 
दूसरा भरोसा उन्हें उन्मादी ध्रुवीकरण पर है, उन्हें भरोसा है कि पहले धर्म के नाम पर,  उसके बाद क्षेत्र के मिजाज के अनुसार  जाति, वर्ण और गोत्र के नाम पर कर लेंगे.  यह सब करने के लिए जो तिकड़म करनी होगी, कर लेंगे ; पाखंड रचना हो, तो रच लेंगे ;  झूठ जपना होगा, जप लेंगे. अब तक की गलेबाजी को देखकर तो लगता है कि इस बार का चुनाव तो इजरायल और फिलिस्तीन के नाम पर सीधे गाजा पट्टी से ही लड़ कर मानेंगे!! कई शहरों में तो जिसे इजरायल की जनता तक हटाने के लिए आतुर है, उस बेंजामिन नेतन्याहू के साथ गलबहियां करते हुए बड़े-बड़े होर्डिंग्स तक लगा दिए गए थे.

तीसरी वजह है पालतू और भरोसेमंद नौकरशाही -- वे अफसर, जिन्हें सत्ता में रहते हुए हमराज और हमप्याला बनाया, उनके साथ बांटकर लूट का हर निवाला खाया है.  इसी की एक और कड़ी है, भ्रष्टाचार का विकेंद्रीकरण करके गाँव, बस्ती, मोहल्लों और वार्ड तक बिछाई गयी छुटके भ्रष्टाचारियों की श्रृंखला : इन्हें भरोसा है कि उपकृत किये गए ये भ्रष्ट खुद को बचाने और आगे कमाने के लिए इनकी जीत के लिए काम करेंगे ही करेंगे.  

चौथा वह मीडिया है, जिसे गोदी मीडिया कहना, गोद का अपमान करना है -- अच्छी बात यह है कि अब इसके बारे में ज्यादा शब्द खर्चने की जरूरत नहीं, लोग समझ चुके हैं, इस चीखा मीडिया की अविश्वसनीयता इतनी बढ़ी है कि खुद उनके ब्रह्मा को भी यूट्यूबर बनने को विवश  होना पडा है.

असल स्रोत तो इनकी उस विचारधारा में है, जो सहिष्णुता, सभ्यता और शिष्टता को कमजोरी का प्रतीक मानती है. लोकतंत्र, संविधान और समानता को त्याज्य समझती है. सज्जनता को दुर्बलता और बर्बरता को महानता समझती है.

ये तेवर तब हैं, जब इस बार कुनबे में ही रार मची हुई है.  जो अनार मिलने की संभावना तक नहीं दिख रही, उसके लिए सौ-सौ बीमार मार कुरते, पाजामे और सफारी सूट सिलवाये घूम रहे हैं. शिवराज हैं ही, कैलाश विजयवर्गीय ने बोल ही दिया, नरेन्द्र तोमर दिल्ली से दिमनी आये ही इस उम्मीद से हैं, प्रहलाद पटेल को लगता है कि उमा भारती को मंझधार में छोड़ने का कर्ज पार्टी इस बार तो चुका ही देगी. और तो और, फग्गन सिंह कुलस्ते को भी लगता है कि उन्हें भी द्रौपदी मुर्मू जैसा अवसर मिल सकता है. मुगालते पालने पर यूं भी कोई जीएसटी तो लगनी नहीं है, सो छोटू सिंधिया, नरोत्तम मिश्रा, वी डी शर्मा आदि-इत्यादि भी श्यामला हिल्स के बगीचे में टहलने के सपने देख रहे हैं.

पंचतंत्र की लोकप्रिय कथा के दिन में सपने देखने वाले पुजारी की प्रजाति के मुंगेरीलालों, शेखचिल्लियों  के साथ एक शाश्वत समस्या है और वह यह कि उनके पाँव धरा पर नहीं होते. इसलिए वे उस भूचाल को महसूस ही नहीं कर पाते, जो जमीन को थरथराये हुए है. इन्हें नहीं पता कि ज्यादातर इनके किये धरे के नतीजों और कुछ 2018 के जनादेश की दिनदहाड़े की गयी डकैती के चलते मध्य प्रदेश की जनता बड़ी बेसब्री से 17 नवम्बर का इन्तजार कर रही है. अहंकार, घमंड, गुरूर को सिराने के लिए तसला भर पानी धरे बैठी है.

बाजे बजना तय है. मगर यह अपने आप नहीं होगा ; 1998 की फिल्म चाइना गेट में जगीरा का जबर किरदार निबाहने वाले अभिनेता इसी मध्य प्रदेश के हैं और वे इस फिल्म के अपने संवाद में सावधान कर गए हैं कि मुकाबला करते में ताकत, साहस और कौशल के अलावा सामने वाले की धूर्तता (हालांकि जगीरा भाई साहब ने कोई और ही ज्यादा चुस्त शब्द इस्तेमाल किया है) को भी हिसाब में लेना होता है.

(लेखक लोकजतन के सम्पादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं.)

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