(व्यंग्य: राजेंद्र शर्मा)
अब तो मोदी जी के विरोधियों को भी झख मारकर मानना ही पड़ेगा; मोदी जी अपने भारत को वाकई डेमोक्रेसी की मम्मी बना दिए हैं. अब तो वी-डेम इंस्टीट्यूट वालों ने भी इसकी तस्दीक कर दी है. जी हां, स्वीडन के वी-डेम इंस्टीट्यूट वालों ने. उसी वी-डेम इंस्टीट्यूट वालों ने, जो दुनिया भर में डैमोक्रेसी की ही नाप-जोख करते फिरते हैं और सूत-सूत नाप कर बताते रहते हैं कि किस की डैमोक्रेसी की गाड़ी, किस से पीछे रह गयी, किस से आगे निकली और कहां तक पहुंच गयी. और यह भी कि किसकी डैमोक्रेसी में कितनी डैमोक्रेसी बची और कितनी तानाशाही घुस आयी, वगैरह. याद रहे कि यह नाप-जोख भी गुजरे वक्त का नहीं है, आज का है, एकदम रीयल टाइम.
यानी मोदी जी ने अपने भारत को पुराने जमाने के लिए तो डेमोक्रेसी की मम्मी बनवाया था और सारी दुनिया से मनवाया था, सो तो सब जानते हैं. पर दर्ज करने वाली बात यह है कि एकदम आज भी, रीयल टाइम में सारी दुनिया मोदी जी के भारत को डैमोक्रेसी की मम्मी मान रही है, बल्कि बाकायदा डैमोक्रेसी की मम्मी जी कहकर पुकारने भी लगी है. सुना है कि कुछ देसी-विदेशी विद्वानों ने तो मोदी जी से इसका वचन भी मांगा है कि तीसरे कार्यकाल में आएंगे, तो संविधान के साथ-साथ देश को एक नया नाम भी दिला दें -- भारत, दैट इज मदर ऑफ डैमोक्रेसी! अंगरेजी नाम को आगे रखने वाले नाम से भी आजादी; पूरी से भी पूरी आजादी!
और ये वी-डेम इंस्टीट्यूट वालों ने कहा क्या है? वी-डेम वालों की ताजातरीन यानी 2024 की रिपोर्ट बताती है कि मोदी जी का भारत, 2023 के आखिर तक भी बदस्तूर इलैक्टोरल ऑटोक्रेसी यानी चुनावी तानाशाही बना हुआ था. यानी सिर्फ तानाशाही ही नहीं, चुनाव भी. अब चुनाव का तो एक ही मतलब है -- डेमोक्रेसी. चुनाव से ज्यादा डैमोक्रेसी की निशानी क्या होगी? यानी डेमोक्रेसी भी और तानाशाही भी. तानाशाही, मगर डेमोक्रेसी के अंदाज में.
डेमोक्रेसी, मगर तानाशाही की सेवा में. लेकिन, इसमें खास बात क्या है, यह तो वी-डेम इंस्टीट्यूट ने पिछले साल भी कहा था; भारत में चुनावी तानाशाही है. उससे पहले वाले साल में भी. तो इसमें नया क्या है? नया यही है कि वी-डेम वाले लगातार पांच साल से भारत का नाप चुनावी तानाशाही का बता रहे हैं. एक साल भी नहीं, दो साल भी नहीं, तीन भी नहीं, पूरे पांच साल. पांच साल में तो कच्ची से कच्ची नौकरी भी पक्की हो जाती है, फिर यह तो डेमोक्रेसी का माप है.
यानी पक्का है कि भारत में चुनावी तानाशाही है. भारत में चुनावी तानाशाही ही है. भारत में चुनावी तानाशाही ही है और कुछ नहीं. यानी तानाशाही है, पर चुनाव भी है. अब सोचने की बात है कि जब तानाशाही पांच साल में चुनाव का कुछ नहीं बिगाड़ पायी, तो अगले पांच साल में भी डैमोक्रेसी का क्या उखाड़ लेगी. मोदी जी के भारत में चुनाव वाली डेमोक्रेसी और तानाशाही, दोनों थे, हैं और रहेंगे; युग-युग तक. जुगल जोड़ी सदा बनी रहेगी!
हमें पता है कि वी-डेम वाले नहीं समझेंगे और न कहेंगे और शायद मानेंगे भी नहीं, आखिर पश्चिम वाले हैं, हमारे बड़प्पन को स्वीकार करने से डरते हैं; पर यही तो मोदी जी के भारत के डैमोक्रेसी की मम्मी होने का सबसे बड़ा सबूत है. डैमोक्रेसी और तानाशाही, दोनों साथ-साथ. और साथ-साथ भी कोई टेंपरेरी तरीके से, किसी मुसीबत की वजह से साथ-साथ नहीं, जैसे सांप और बंदर और बिल्ली और भालू, बाढ़ में सब जानवर एक पेड़ पर साथ-साथ मिल जाते हैं.
पांच साल से ज्यादा से साथ-साथ हैं, मगर मजाल है कि डेमोक्रेसी की उफ तक सुनायी दी हो. यानी साथ पक्का है. चोली-दामन के साथ से भी पक्का. भरतीय शादी जैसा पक्का. चाहे कुछ भी टूटे, पर एक बार जो पकड़ लिया और पकड़ा दिया, फिर हाथ न छूटे. पवित्र गठबंधन का मामला जो है. और ऐसे गठबंधन को साधना, हर किसी के बस की बात नहीं है. हर किसी की छोड़िए, दूसरे किसी के भी बस की बात नहीं है. हमारी संस्कृति में, हमारे धर्म में, हमारी परंपरा में ही वह बात है, जो हम ऐसा संग साध सकते हैं, केर-बेर का संग भी.
और यहीं वी-डेम वाले गलती करते हैं. वे सोचते हैं कि 2014 से डेमोक्रेसी के तंबू में तानाशाही का ऊंट घुस रहा है. पांच साल से तो वे खुद दर्ज कर रहे हैं कि तानाशाही का ऊंट घुसता जा रहा है, घुसता ही जा रहा है. पांच साल बहुत होते हैं, तानाशाही के ऊंट को तंबू में घुसने के लिए. यहां तक तो फिर भी ठीक है. पर पश्चिम वाले हैं, सब कुछ काले-सफेद में देखते हैं.
उन्हें लगता है कि तानाशाही का ऊंट पूरा अंदर, तो डैमोक्रेसी तंबू से पूरी बाहर. यानी भारत में तानाशाही है, सिर्फ इतना भी कह सकते हैं. पर यह या तो इधर या उधर, पश्चिम वालों की फितरत में होगा, हमारी प्रकृति में नहीं. नया भी और पुराना भी, डैमोक्रेसी भी, तानाशाही भी, हम सब को सहेज कर रखना जानते हैं. इसीलिए, तो अपुन मदर ऑफ डैमोक्रेसी हैं, जिससे दुनिया नये किस्म की डेमोक्रेसी सीख सकती है. मम्मी वाली डैमोक्रेसी, जो चुनाव के मजे भी दिलाएगी और तानाशाही के मजे भी.
लेकिन, इससे कोई यह भी नहीं समझे कि अपुन की ये मदर वाली डैमोक्रेसी, खुद-ब-खुद सध जाती है. इस मदर वाली डैमोक्रेसी की गारंटी करने लिए, नरेंद्र मोदी होना भी जरूरी है. मोदी हैं, तभी तो मुमकिन है -- तानाशाही और चुनाव का ऐसा टिकाऊ साथ. मोदी जी हैं, तो तानाशाही यह पक्का कर रही है कि उसका विरोध करने वाला कोई न हो. हो भी, तो जेल में हो. जेल से बाहर हो, तो उसकी आवाज पब्लिक तक नहीं पहुंच सके. विरोध करने वाला हो, तो उसके साथ चलने के लिए कोई पार्टी नहीं हो. पार्टी हो, तो उसके पास पैसा नहीं हो. चुनाव लड़ भी लें, तो हार पक्की हो. यानी चुनाव तो हो, पर फैसला चुनाव से स्वतंत्र हो. आए तो मोदी ही. पब्लिक के डबल मजे, डेमोक्रेसी भी, तानाशाही भी.
(व्यंग्यकार वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक 'लोकलहर' के संपादक हैं.)
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