(आलेख: बादल सरोज)
कहावतें सभ्यता के लम्बे अनुभव से जन्मती और आकार लेती हैं. कुछ प्राचीन सभ्यताओं की कहावतें अलग-अलग भाषाओं में ऐसे रच बस जाती हैं, जैसे वहीं की हों. वहीं कुछ कहावतें एक जैसे अर्थों के साथ अलग कालखण्ड में अलग-अलग भाषाओं में बनती हैं. इसी किस्म की एक कहावत है कि सफलता के अनेक माँ-बाप होते हैं, किन्तु विफलताएं अनाथ होती हैं. हाल के हुए विधानसभा चुनावों के प्रसंग में यह कहावत याद आ रही है. मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में भाजपा अपनी सफलता के परमपिता के बारे में भले एकमत है, किंतु उसके स्थानीय मां-बाप - यहां जैविक मां-बाप की बजाय लोकल गार्जियन कहना ज्यादा सटीक होगा - तलाशने में सप्ताह भर से ज्यादा लग गया. आठवें दिन जाकर छत्तीसगढ़ में एक कन्दरा से उन्हें ढूंढ निकाला गया है, जिन्हें खुद इसका अंदाजा तक नहीं था.
मध्यप्रदेश में नौ दिन लगे; लाड़ली बहिनों के भैया और लाड़ली लक्ष्मियों के स्वयंभू मामा तो गए सो गए, दिल्ली से पठाए गए, विधानसभा चुनाव लड़ाए गए, जैसे-तैसे जिताए गए केन्द्रीय मंत्रियों के कुरते भी सिले-सिलाए रह गए. अचानक एक ऐसे श्रीमान मुख्यमंत्री बना दिए गए, जिनके बारे में बाकियों की तो दूर रही, उनके निकटतम शुभाकांक्षी ने भी कभी सोचा तक नहीं था. राजस्थान में खूब छुपम छुपाई, रूठम मनाई हुई , बुआजी फूफा बनी घूमती रहीं, बारात दरवाजे पर तैयार खड़ी रही, मगर वे बिना सीएम की कुर्सी नेग में लिए पंडाल में आने को ही तैयार नहीं हुईं. बहरहाल हुआ वही, जो बाकी दो राज्यों में हुआ; यानि "हुइए वही जो मो शा कर राक्खा !! संघ प्रधान लोकतंत्र कर राखा !!" के सूत्र पर अमल और पहली बार के विधायक जी मुख्यमंत्री घोषित कर दिए गए.
मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में एकदम निर्णायक और राजस्थान में स्पष्ट जनादेश के बाद भी खुद जीतने वालों में व्याप्त सन्नाटे पर पिछली बार चर्चा की जा चुकी है -- इतनी भारी जीत के बाद भी नए विधायक दल का नेता चुनने में इतना विलम्ब क्यों ? जिस तरह से इन "नेताओं" को चुना गया है, उसके लिए इतना आडम्बर और दिखावा काहे के लिए? कि पहले सात दिन तक दिल्ली में मंत्रणाएं होने का प्रहसन हो रहा है, फिर पर्यवेक्षकों की नियुक्ति का ढोंग और विधायक दलों की बैठकों का स्वांग रचा जा रहा है और उसके बाद अचानक ऐसे नाम सामने आ रहे हैं, जिनकी क्षमताओं का कोई अतीत या वर्तमान तो कम से कम नहीं ही है - भविष्य की भविष्य जाने!! फिलहाल इतना सब मानते हैं कि जो हुआ है, वह वह विधायकों की पसंद से तो नहीं ही हुआ है.
यह तय किये गए नामों से भी साफ़ हो जाता है, बनाए गए मध्यप्रदेश - राजस्थान जैसे फार्मूले से भी उजागर होता है. इस होने के लिए जो समय लिया गया है, वह अस्वीकार्य को स्वीकार्य बनाने के मकसद से की गयी प्रक्रिया के सिवाय कुछ नहीं है. इनके लिए की गयी पूरी कवायद संसदीय लोकतंत्र का तो मखौल है ही, भारत के राजनीतिक दलों के आंतरिक लोकतंत्र के हिसाब से भी कुछ ज्यादा ही नया है. यह 2014 के बाद से नयी हुयी भाजपा का भी और ही ज्यादा नया म्यूटेटेड - रूपांतरित - संस्करण है ; उस भाजपा का जो कांग्रेस को इसी तरह के कामों के लिए कोसा करती थी, जिसके तब के सबसे बड़े नेता अटल बिहारी वाजपेयी "कांग्रेस आई कांग्रेस यू - कांग्रेस मैं, कांग्रेस तू" के चुस्त संवादों के साथ तालियाँ बटोरा करते थे.
यह वह नई भाजपा है, जो इंदिरा कांग्रेस से भी हजार जूते आगे है. उस कांग्रेस में इस तरह के फैसले लेने के लिए कम से कम हाईकमान के नाम पर कुछ तो होता था. न हुआ तो कोई समूह या जिसे राजनीतिक भाषा में किचन कैबिनेट कहा जाता है, वह तो होती थी. यहाँ - इस म्यूटेटेड भाजपा में दिखावे के लिए भी ऐसा कुछ नहीं है. यहाँ तो गिनती एक से शुरू होकर लोग जिसे दो मानते हैं, उस पर ही खत्म हो जाती है. अब जिन्हें दूसरे स्थान पर माना जा रहा है, वे दो हैं या वे भी एक में ही एकमेव हैं, यह भी एक सवाल है. मगर जिस पर अब कोई सवाल नहीं उठाता, वह यह सत्य है कि अब तक खुद को निराकार बताने वाली भाजपा अब साकार होते हुए मोदी के एकत्व में एकमेक और एकाकार हो चुकी है.
जो किया जा रहा है, वह दबा-छुपाकर नहीं किया जा रहा है. पूरा जम जमाकर और दिखाकर किया जा रहा है. अलग-अलग तारीखों में किया जा रहा है, ताकि कोई भरम न रहे कि किसके कहने पर, किसकी इच्छा से यह सब किया जा रहा है. अच्छे-अच्छों को निबटाने और सिर्फ एक की ही मर्जी चलाने का यह सन्देश सिर्फ नाम के वास्ते बची स्मृतिशेष भाजपा और उसके नेताओं के लिए ही नहीं है, यह पूरे देश और उसके संसदीय लोकतंत्र के लिए भी है.
यही वजह है कि इसे सिर्फ किसी एक पार्टी का अंदरूनी मामला मानकर नहीं छोड़ा जा सकता, इसे पूरी तरह पढ़ना होगा और इसके निहितार्थों के साथ समझना होगा. यही वह मोदी की गारंटी है, जिसका वादा खुद मोदी ने इन राज्यों के चुनाव अभियान में किया था. यह घर-घर मोदी के उस नारे का - हर राज्य का मुख्यमंत्री मोदी - के रूप में विस्तार है, जो 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद से लगातार गुंजायमान है. दुर्बल से निर्बलतर नेताओं को अपनी पार्टी द्वारा शासित प्रदेशों के शीर्ष पदों पर बिठाने के मकसद किसी से छुपे हुए नहीं है.
इसके लिए अपनाया गया तरीका और उसे अंजाम देने का अंदाज़ पूरी तरह मोदी छाप था : मुख्यमंत्रियों के नाम पर्ची खोलकर निकाले और सुनाये गए. पर्ची में किसका नाम है, यह जिन्होंने उसे खोलकर पढ़ा उन्हें पहले से नहीं पता था, जो इस पर्ची को लेकर आये थे उन खट्टर और राजनाथ सिंह को भी शायद ही पता रहा हो. जिनके नाम उन पर्चियों में निकले, उन्हें तो पक्के से नहीं पता था. मध्य प्रदेश में जिन्हें मुख्यमंत्री बनाया गया, वे दो घंटे पहले तक शिवराज सिंह के आगे झुके हुए फोटो की तस्वीर के साथ उनको जीत की बधाई देते हुए नए मंत्रिमंडल में अपनी जगह सुरक्षित करने में लगे थे.
विधायक दल की बैठक शुरू होने के पहले खींची गयी ग्रुप फोटो में तीसरी कतार में मुंडी उठाये हुए खड़े थे. राजस्थान वाले तो एकदम आख़िरी कतार में आख़िरी में खड़े हुए थे ; बड़ी मुश्किल और झंझट के बाद मिली टिकिट के बाद हासिल जीत पर ही संतुष्ट भाव के साथ. पर्ची का यह खेल गाँव के हाट-बाजार और मेलों में लगाई जाने वाली दुकानों की तरह था, जहां "हर माल मिलेगा पांच रूपये - पर्ची निकालो, जो सामान निकले, वह ले जाओ" का बोर्ड लटका होता है और पर्ची के हिसाब से केश विहीन के लिए कंघी और दंतविहीन के लिए टूथब्रश निकलने के चमत्कार होते रहते हैं.
यह तिलिस्म का मोदी ब्रांड है - वे जब तब इसे दिखाकर खुद ही प्रमुदित और आल्हादित होते रहते हैं. इसकी शुरुआत उन्होंने नोटबंदी से की थी, जिसके होने की जानकारी उनके अपने ख़ास वित्तमंत्री अरुण जेटली और रिज़र्व बैंक के तब के गवर्नर को भी उनके टीवी प्रसारण से मिली थी. यही संसद के विशेष सत्र के साथ हुआ था - जिसमे किस विषय पर क्या होने वाला है, इसकी जानकारी लोकसभा अध्यक्ष और संसदीय कार्यमंत्री को भी नहीं थी. यूं पता तो आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी को भी नहीं रहा होगा कि वे संगठन में देवत्व को प्राप्त होने जा रहे हैं. "आसमां पै है खुदा और जमीं पै हम" मार्का यह अदा, ऐसा करने वाले की हीन ग्रंथि को गुदगुदा कर उसे श्रेष्ठता के आत्ममुग्ध अहसास में डुबो देती है. युद्ध शास्त्र में इसे ब्लिट्जक्रिग कहते हैं - जिसे दुश्मन को चौंकाने और हतप्रभ करने के लिए काम में लाया जाता है. यहाँ इसे अपनों पर आजमाया जा रहा है. सनद रहे कि राजनीति में यह अदा कुछ ख़ास बादशाहों और तानाशाहों के नाम से जानी जाती है.
इनका पहला मकसद है सत्ता के सारे संस्थानों और सूत्रों पर संघ - आरएसएस - की जकड़ और अडानी और उन जैसों की मजबूत पकड़ सुनिश्चित करना. गुजरात से भी पहले मध्यप्रदेश इस तरह के प्रयोगों की आजमाईश का केंद्र रह चुका है. इतनी ऐतिहासिक जीत के बाद भी दूध से मक्खी की तरह निकाल फेंके गए खुद शिवराज सिंह, जो हटाये जाने के बाद शहीद होने की धजा बनाए हुए हैं, वे इसी तरह प्रयोग के उत्पाद थे. वर्ष 2003 की जीत की नायिका उमा भारती को हटाने का बहाना ढूंढकर, बाद में बाबूलाल गौर जैसे कई जनाधार वाले नेताओं को परे हटाकर प्रमोद महाजन और अरुण जेटली इन्हें तब मुख्यमंत्री बनाकर लाये थे, जब वे प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष के लिए गुप्त मतदान से हुआ चुनाव और विधानसभा के लिए हुए चुनाव में हार चुके थे, दिल्ली को अपना ठिकाना बना चुके थे.
प्रमोद महाजन काल के गाल में समा गए, अरुण जेटली को लांघने के लिए शिवराज ने संघ के साथ घनिष्ठ रिश्ते बना लिए. गुजरात में मोदी द्वारा हाशिये पर डाले और लगातार अनदेखा किये जा रहे संघ के लिए मध्य प्रदेश कारूं का खजाना था. उसके तत्कालीन सरसंघचालक के सी सुदर्शन ने पद पर रहते हुए और उसके बाद भी भोपाल को ही अपना ठिकाना बना लिया. शिवराज सिंह चौहान की चल निकली. इस चक्कर में उन्होंने खुद को कुछ ज्यादा ही आंक लिया, जिसके चलते उनका जाना 2014 में ही तब तय हो गया था, जब उन्होंने हिन्दुस्तानी कार्पोरेट्स द्वारा तैयार मोदी प्रोडक्ट के मुकाबले आडवाणी का खुलेआम साथ दिया.
यहां तक दावा कर दिया कि मुख्यमंत्री रहने का उनका अनुभव नरेंद्र मोदी से ज्यादा है. भले वे उसके बाद कुछ समय तक बने रहे, लेकिन उन्हें भी पता था कि आज नहीं तो कल गाज तो गिरेगी ही. दलबदल कराके बनी सरकार के वक्त मो शा ने मजबूरी में उन्हें मान लिया, मगर उसके बाद पहली फुर्सत में छुट्टी भी कर दी. यही धौलपुर की रानी साहिबा के साथ भी हुआ. नयी भाजपा को कद्दावर और खुद की पहचान और जनाधार वाले नेता नहीं चाहिए, उन्हें शीर्ष से लेकर हर स्तर पर कठपुतलियाँ चाहिए और उनकी डोर सीधे अपने हाथों में चाहिए, ताकि अडानी के हित साधने के वक़्त कहीं से भी कोई चूं-चां की आवाज न आये.
इसके पीछे सम्पूर्ण और एकछत्र नेतृत्व की कामना के साथ-साथ अगले साल होने वाले लोकसभा के चुनाव भी हैं. झांकी इसी हिसाब से सजाई जा रही है. मध्यप्रदेश में यूपी और बिहार को भी ध्यान में रखते हुए यादव को मुख्यमंत्री बनाने तक ही नहीं रुका गया ; ब्राह्मण और दलित को उपमुख्यमंत्री और ठाकुर को विधानसभा अध्यक्ष भी बनाया गया. राजस्थान में योजना एक वैश्य को बनाने की थी, मगर दबाव को देखकर फिलहाल ब्राह्मण मुख्यमंत्री, राजपूत और दलित उपमुख्यमंत्री और सिन्धी समुदाय से आये विधायक को विधानसभा अध्यक्ष बना दिया गया. यह सारी कारीगरी उनकी अगुआई में हुई, जो इस जीत के पहले कह रहे थे कि जातियां सिर्फ चार होती हैं - गरीब, युवा, महिला और किसान!! इस चयन से उन्होंने अपने कहे की असली सच्चाई उजागर कर दी. वर्णाश्रम के प्रति इतना आकुल आदरभाव लोकसभा चुनाव के लिए सबको लुभाने का एक दांव है, अब यह कितना कारगर होगा, यह अगले कुछ महीने बताएँगे.
मौजूदा सत्ता शीर्ष की खासियत उसका अद्वैत है ; इस अद्वैत में एक तरफ मोदी की भाजपा है, तो दूसरी तरफ कार्पोरेट्स हैं - जिनके अगुआ अडानी हैं. सत्ता के सारे अंगों का एकत्वीकरण देश की संपदा के अडानीकरण के लिए अनिवार्य और अपरिहार्य दोनों है. यह दोनों काम अलग-अलग नहीं, एक साथ किये जाने हैं. इसलिए जिस सप्ताह में तीन प्रदेशों में जनादेश का यह मखौल किया जा रहा था, मोदी नाम केवलम का जाप करने वालों के सिरों पर उनके नाप से बड़ा ताज पहनाया जा रहा था ; उसी सप्ताह में भारत की संसद में यही काम अडानी नाम केवलम से सहमत न होने वाले, बल्कि उसका विरोध करने वालों को ठिकाने लगा के किया जा रहा था. अडानी के बारे में सवाल उठाने वालों को खामोश करने की कड़ी में लोकसभा सांसद महुआ मोइत्रा को बिना सुनवाई का मौक़ा दिये हुए ही संसद की सदस्यता से बर्खास्त कर दिया गया. वे पहला शिकार नहीं है.
राहुल गांधी की सदस्यता समाप्त किये जाने के पीछे भी कांग्रेस संस्कृति से अलग जाकर किया जाने वाला उनका अडानी विरोध था. एक अन्य सांसद संजय सिंह भी इसी का शिकार हुए. कहने वालों का तो यह भी कहना और मानना है कि बसपा के सांसद दानिश अली के खिलाफ उनकी पार्टी बसपा से कराई गई कार्यवाही की वजह भी उनका अडानी के बारे में बोलना है. मोदी की असली गारंटी अनामों का राजतिलक और अडानी का अभयदान है. यह पारस्परिक पूरकता है ; आखिर चुनाव की जीत पक्की करने के लिए हजारों करोड़ की जरूरत यहीं से तो पूरी होती है ; देश की राजनीतिक स्क्रीन पर दिखाई जाने वाली छवि के प्रोजेक्टर तो अडानी ही हैं.
पूरी समग्रता में देखें, तो तीन राज्यों में नवजात मुख्यमंत्रियों के चेहरों पर अचानक आई चमक असल में तानाशाही के वर्चस्व की भी धमक है. संसद सत्र में लाये जाने वाले क़ानून और जम्मू कश्मीर पर आये न्यायालयीन "फैसले" जोड़कर देखने से खतरे और साफ़ साफ़ दिखते हैं. ऐसा नहीं कि यह चिरस्थायी है, ऐसा भी नहीं है कि इसका प्रतिरोध नहीं है. है, सामाजिक और आर्थिक मोर्चे के साथ राजनीतिक मोर्चे पर भी है. महुआ मोइत्रा की सांसदी खत्म किये जाने के खिलाफ पूरे विपक्ष का एक साथ खड़े होना और अपने आप को "भारत दैट इज इंडिया" के रूप में एक्जुट करने की कोशिशों को नयी गति देना इसी की अभिव्यक्ति है. 2024 का रास्ता इसी राह से होकर गुजरता है.
(लेखक लोकजतन के सम्पादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं.)
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