(व्यंग्य: राजेंद्र शर्मा)
साक्षी मलिक की ये बात तो बिल्कुल गलत है. अब उसका बृजभूषण शरण सिंह से खुंदक खाना तो फिर भी समझ में आता था. आखिर, देश के कुश्ती के बॉस थे और नीचे वालों में कुछ पर बॉस की कृपा बरसती है, तो कुछ से खटपट हो ही जाती है. पर बेचारे करण भूषण ने उनका क्या बिगाड़ा है? उसको कैसरगंज से अपनी पार्टी का टिकट देने पर मोदी जी के पीछे क्यों पड़ गयीं?
कहती हैं कि बृजभूषण जीत गया, भारत की बेटियां हार गयीं! कैसे भाई कैसे? बृजभूषण का तो टिकट कट गया, वह भी भारत की बेटियों के ही चक्कर में? उसे सिर्फ इसलिए जीता बताया जा रहा है कि करण भूषण, बृजभूषण का बेटा है? बाप का टिकट मोदी जी बेटे को नहीं देंगे, तो क्या बाप के दुश्मनों को देंगे? मोदी जी परिवारवाद के खिलाफ जरूर हैं और पक्के खिलाफ हैं, लेकिन अपना नफा-नुकसान देखकर.
वैसे भी मोदी जी परिवारवाद के जितने बड़े विरोधी हैं, उससे बड़े विरोधी विरासत कर के हैं. बाकायदा एलान कर के कह दिया है कि जब तक मोदी जिंदा है, विरासत कर के नाम पर इंडी एलाइंस वालों को पचास परसेंट नहीं छीनने देंगे. आधी जमीन नहीं छीनने देंगे. घर में चार कमरे हों, तो दो कमरे नहीं छीनने देंगे. दो भैंसें भी हुईं, तो एक भैंस नहीं छीनने देंगे. वैसे कांग्रेसी तो पचास परसेंट पर भी कहां रुकने वाले हैं, वो तो पूरा का पूरा छीन लेंगे.
चाहे मंगलसूत्र हो, औरतों का गहना-जेवर हो या बाजरे में दबी नकदी हो. और नौकरी भी. बाकी छोड़ो, अब तो ये कुर्सी का टिकट भी छीनने पर आ गए हैं. कहते हैं बाप का टिकट, बेटे को ही क्यों मिलेगा; हम इसे अपने तुष्टीकरण वाले वोट बैंक को देंगे! पर जब तक मोदी जिंदा है, ऐसा कानून नहीं बनने देगा. बाप का टिकट बेटे को ही मिलेगा, जिंदगी के बाद भी और मजबूरी ही हो जाए, तो बाप की जिंदगी के साथ भी.
साक्षी को तो मोदी जी को थैंक यू कहना चाहिए कि उनकी बात मानकर ब्रजभूषण जी का टिकट काट दिया. वर्ना प्रज्वल रेवन्ना की तरह मोदी जी टिकट भी दिला देते और उनके लिए प्रचार करने चले जाते, तो भी वो क्या कर लेतीं? एक ओलंपिक पुरस्कार जीत आने का मतलब यह थोड़े ही है कि मोदी जी उनकी हर बात मान लेंगे.
(व्यंग्यकार वरिष्ठ पत्रकार और 'लोकलहर' के संपादक हैं.)
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