(आलेख: राजेंद्र शर्मा)
विपक्ष शासित कर्नाटक में संघ-भाजपा ने बदहवासी में, जद (एस) का दरवाजा जा खटखटाया है. लोकसभा चुनाव में पलड़ा अपने खिलाफ झुकने की आशंका से भाजपा इतनी ज्यादा भरी हुई है कि उसने आनन-फानन में गठबंधन के हिस्से के तौर पर जद (एस) के लिए इस राज्य में लोकसभा की चार सीटें छोड़ने का ऐलान कर दिया, जबकि 2019 के चुनाव में भाजपा ने इस राज्य की कुल 28 में से 25 सीटों पर जीत हासिल की थी.
झारखंड में आखिरकार, चम्पाई सोरेन की सरकार ने विश्वास मत हासिल कर लिया. वास्तव में इसमें अगर किसी को संदेह रहा भी होगा, तो रांची हाई कोर्ट के हेमंत सोरेन को विश्वास मत के लिए विधानसभा में उपस्थित रहने और मतदान में हिस्सा लेने की इजाजत देने के बाद, दूर हो गया होगा. हेमंत सोरेन की एक पुराने भूमि संबंधी मामले में ईडी द्वारा गिरफ्तारी के बाद, राज्य में अगर ज्यादा बड़ी राजनीतिक उठा-पटक टल गयी है और झारखंड मुक्ति मोर्चा के नेतृत्व में एक प्रकार से इंडिया गठबंधन की सरकार बनी रह सकी है, तो ऐसा कम-से-कम इसलिए हर्गिज नहीं हुआ है कि देश में सत्ता में बैठी भाजपा ने ईडी द्वारा एक पदासीन मुख्यमंत्री की गिरफ्तारी जैसी असाधारण कार्रवाई का राजनीतिक फायदा उठाने की कोशिश नहीं की थी.
बेशक, यह मानने के लिए बहुत ही ज्यादा भोला होना जरूरी होगा कि ईडी ने सत्ता के शीर्ष पर बैठे भाजपा नेताओं के इशारे के बिना ऐसी असाधारण कार्रवाई की होगी और वह भी किन्हीं अकाट्य साक्ष्यों के बिना ही. बहरहाल, यहां हम ईडी की इस कार्रवाई की वैधता के सवाल में न जाकर, इसी का ध्यान दिलाने तक खुद को सीमित रखेंगे कि भाजपा नेता अर्जुन मुंंडा के दावे के विपरीत, ईडी के इस कदम के स्वाभाविक परिणाम के तौर पर, झारखंड सरकार के स्तर पर आने वाली राजनीतिक अस्थिरता का फायदा उठाने की भाजपा ने हरेक संभव कोशिश की थी.
बेशक, यह कोई संयोग ही नहीं है कि हेमंत सोरेन के ईडी की इस कार्रवाई का सामना करने के लिए अपनी ओर से तैयारी के हिस्से के तौर पर, झारखखंड मुक्ति मोर्चा, कांग्रेस, राजद तथा सीपीआई(एम-एल) विधायक मंडल के नये नेता के रूप में चंपाई सोरेन का चुनाव करने के बाद, औपचारिक गिरफ्तारी से ठीक पहले मुख्यमंत्री पद से इस्तीफे के साथ ही, बहुमत के समर्थन के साथ नयी सरकार के गठन का दावा पेश किए जाने के बावजूद, मोदी राज द्वारा नियुक्त राज्यपाल ने नई सरकार बनाने के लिए आमंत्रण देने में 36 घंटे से ज्यादा लगा दिए.
यह इसके बावजूद था कि इससे चंद रोज पहले ही, बगल में बिहार में नीतीश कुमार के पल्टी मारकर दोबारा भाजपा की गोद में जा बैठने की सूरत में, महागठबंधन सरकार के मुख्यमंत्री के रूप में उनके इस्तीफे और एनडीए सरकार के गठन के लिए आमंत्रण के बीच, चंद घंटे भी नहीं लगे थे. इस तरह, जाहिर है कि भाजपा को अपने स्पष्ट अल्पमत को बहुमत में तब्दील करने की जोड़-तोड़ के लिए समय देने के लिए ही, राज्यपाल ने झारखंड को पूरे दो दिन, वैध निर्वाचित सरकार के बिना ही गुजारने पर मजबूर कर दिया.
हैरानी की बात नहीं है कि इस सब के सामने, अपने स्पष्ट बहुमत को अल्पमत में तब्दील कर, अवैध हथकंडों से अपनी सरकार ही चुराए जानेे से बचाव के राज्य में सत्ताधारी गठबंधन को, अपने 39 विधायकों को हैदराबाद पहुंचाना पड़ा था, ताकि अवैध चोरी से अपने विधायकों की हिफाजत कर सके.
लेकिन, आखिरकार भाजपा का कोई पैंतरा काम नहीं आया और मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ग्रहण करने के दो दिन में ही चंपई सोरेन ने विधानसभा में 47 सदस्यों का समर्थन साबित कर दिया, जबकि बहुमत के लिए उन्हें सिर्फ 41 वोट की जरूरत थी. इस तरह, मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को जेल भिजवाने के बावजूद, भाजपा झारखंड में किसी तरह से सरकार हथियाने में ही नाकाम नहीं रही है, झारखंड की 14 लोकसभा सीटों में से अधिकतम को कब्जाने का उसका एक बड़ा दांव भी विफल हो गया है. याद रहे कि झारखंड की कुल 14 संसदीय सीटों में से 2019 में भाजपा खुद 11 सीटों पर कब्जा करने में कामयाब रही थी.
जबकि एक सीट उसकी सहयोगी एजेएसयू के हिस्से में आयी थी. दूसरी ओर, वर्तमान इंडिया गठबंधन का प्रतिनिधित्व कर रही झामुमो और कांग्रेस के हिस्से में दो सीटें ही आयी थीं. लोकसभा चुनाव के कुछ ही महीने बाद हुए विधानसभाई चुनाव में, भाजपा बुरी तरह हार गयी थी और हेमंत सोरेन के नेतृत्व में विपक्षी गठबंधन की सरकार बनी थी. कहने की जरूरत नहीं है कि राज्य से लोकसभा सीटों में उल्लेखनीय कमी की आशंकाओं को कम करने की कोशिश में ही, झारखंड की विपक्षी सरकार को अस्थिर करने का पूरा खेला रचाया गया था.
सभी जानते हैं कि कुछ भिन्न रूप में ऐसा ही खेला इससे ठीक पहले, बगल बिहार में सफलता के साथ रचाया गया था. इस खेल में भाजपा ने, नीतीश कुमार की पल्टी के जरिए, एक प्रकार से उस गठजोड़ को ही दोबारा हासिल करने की कोशिश की है, जिसके सहारे 2019 के चुनाव में उसका गठजोड़ राज्य की 40 में से कुल 39 सीटों पर काबिज हो गया था, हालांकि खुद भाजपा के हिस्से में 17 सीटें ही आयी थीं.
महागठबंधन की सरकार बनने के साथ, बिहार का लोकसभा चुनाव भी भाजपा को अपने हाथ से पूरी तरह से निकल गया नजर आ रहा था और ठीक इसीलिए, नीतीश कुमार के लिए 'बाइ बैक' की पेशकश के जरिए, भाजपा ने महागठबंधन तथा उसकी सरकार को साम-दाम-दंड-भेद के सभी हथकंडों को आजमा कर तुड़वाया है.
बेशक, संघ-भाजपा का यह पैंतरा भी बहुत कामयाब शायद ही हो, क्योंकि 2019 के बाद से बिहार में गंगा में बहुत पानी बह चुका है और पिछले विधानसभाई चुनाव में नीतीश-भाजपा गठजोड़ को ही, राजद के नेतृत्व में महागठबंधन ने करीब-करीब हरा ही दिया था. बहरहाल, बिहार में संघ-भाजपा के इस पैंतरे का उन्हें खास फायदा भले ही हो या नहीं हो, इस पैंतरे का आजमाया जाना, लोकसभा चुनाव को लेकर इस जोड़ी की आशंकाओं को तो दिखाता ही है. बिहार से पहले, कुछ भिन्न रूप में यही खेल महाराष्ट्र में खेला गया था.
उधर विपक्ष शासित कर्नाटक में संघ-भाजपा ने बदहवासी में, जद (एस) का दरवाजा जा खटखटाया है. लोकसभा चुनाव में पलड़ा अपने खिलाफ झुकने की आशंका से भाजपा इतनी ज्यादा भरी हुई है कि उसने आनन-फानन में गठबंधन के हिस्से के तौर पर जद (एस) के लिए इस राज्य में लोकसभा की चार सीटें छोड़ने का ऐलान कर दिया, जबकि 2019 के चुनाव में भाजपा ने इस राज्य की कुल 28 में से 25 सीटों पर जीत हासिल की थी.
अनुमान तो इसके भी लगाए जा रहे हैं कि तेलंगाना में भी, जहां पिछले ही दिनों हुए विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने शानदार जीत दर्ज कराई है और बीआरएस को सत्ता से बाहर कर दिया है, पर्दे के पीछे से भाजपा उसके साथ सौदा करने की तैयारी में है, जिससे राज्य की कुल 17 लोकसभा सीटों मेें से कांग्रेस की सीटों को कम-से-कम संख्या पर सीमित कर सके. 2019 में बहुकोणीय मुकाबले में भाजपा तुक्के से चार सीटें जीत गयी थी.
कई राजनीतिक प्रेक्षकों के अनुसार, कुछ और भिन्न रूप में ऐसा ही खेल संघ-भाजपा द्वारा बंगाल में भी खेला जा रहा है, जहां भाजपा त्रिकोणीय मुकाबले में 2019 में राज्य की कुल 42 सीटों में से 18 पर काबिज हो गयी थी, जबकि तृणमूल कांग्रेस को 22 और कांग्रेस को 2 सीटें मिली थीं. तृणमूल कांग्रेस की रीति-नीति के चलते, इस राज्य में भाजपा के मुकाबले विपक्ष का एक ही उम्मीदवार रहने की संभावना तो खैर कभी भी नहीं थी. तृणमूल और वाम मोर्चा, एक साथ आ ही नहीं सकते थे.
बहरहाल, ऐसा माना जा रहा है कि ईडी, सीबीआई आदि केंद्रीय एजेंसियों का सहारा लेकर, भाजपा ने तृणमूल कांग्रेस को इंडिया की शेष पार्टियों के खिलाफ, सक्रिय रूप से युद्घ ही छेड़ने के लिए तैयार कर लिया है. और तो और, ममता बैनर्जी ने यह तक कह दिया है कि चुनाव के बाद उनकी पार्टी क्या रुख लेगी, यह चुनाव के बाद ही तय होगा! जाहिर है कि भाजपा को इसमें दो तरह से लाभ की उम्मीद होगी — तीखा त्रिकोणीय मुकाबला और उसके खिलाफ तृणमूल के हमले की धार में कमी.
दो अन्य विपक्ष शासित राज्यों- तमिलनाडु और पंजाब- में भाजपा ने अपने बिछुड़े हुए सहयोगियों को संधि पत्र भेजने शुरू कर दिए बताते हैं. पंजाब में अकाली दल और तमिलनाडु में अन्नाद्रमुक से फिर से नजदीकियां बढ़ाने की कोशिशें की जा रही हैं. मकसद यह है कि अगर औपचारिक रूप से फिर से गठजोड़ न भी हो सके, तब भी इन पार्टियों के साथ नजदीकियां तो बढ़ा ही ली जाएं, जिससे चुनाव से पहले दबे-छुपे किसी-न-किसी तरह की नजदीकी कायम हो सके और चुनाव के बाद समर्थन के लिए दरवाजा खुल सके. ओडिशा में यही खेल, बीजद सरकार तथा नवीन पटनायक के प्रति 'मित्र भाव' के प्रदर्शन के जरिए खेला जा रहा है, जिसका सहारा हाल ही की अपनी ओडिशा यात्रा के दौरान खुद प्रधानमंत्री मोदी ने लिया है.
ऐसा लगता है कि रणनीति, बीजद से मुकाबले को प्रकटत: दोस्ताना मुकाबले तक सीमित रखने की है, जिससे अगर खुद लोकसभा में ज्यादा सीटें हासिल नहीं भी की जा सकें, तब भी चुनाव के बाद बीजद के समर्थन के लिए रास्ता बनाए रखा जा सके. हैरानी की बात नहीं होगी कि आंध्र प्रदेश में भी भाजपा, सत्ताधारी वाईएसआरसीपी और विपक्षी तेलुगू देशम -- दोनों से चुनाव में समान दूरी ही बनाए रखे और इस तरह चुनाव के बाद दोनों हाथों में रहने का रास्ता खोले रखे.
अगर बाकी सब कुछ को छोड़ भी दें, तब भी इन तमाम चुनावी तिकड़मों और यहां तक कि चुनाव के बाद, सत्ताधारी गठजोड़ को बाहर से समर्थन का रास्ता खोले रखने की कोशिशों से, कम-से-कम इतना तो साफ है कि 'अब की बार चार सौ पार' संघ-भाजपा का चुनावी जुमला भर है, जिसकी ओट में वास्तव में वे अपनी चिंता को छुपाने की ही कोशिश कर रहे हैं.
जाहिर है कि यह चिंता, इंडिया ब्लाक से आ रही गंभीर चुनौती की वजह से है, जो विपक्ष या गैर-भाजपा शासित राज्यों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि भाजपा का गढ़ माने जाने वाली हिंदी पट्टी में भी उठकर खड़ी हो रही है. तभी तो पर्दे के पीछे बचाव की सारी तिकड़में हैं और पर्दे के आगे वाकओवर का स्वांग है और इसका प्रचार है कि इंडिया तो बनने से पहले ही बिखर गया!
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक पत्रिका 'लोकलहर' के संपादक हैं.)
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