चिट्ठीबाजी. काशी हिंदू विश्वविद्यालय वाराणसी, कुलपति जी दास्तां बहुत ख़ौफ़नाक है। दरअसल हुआ यूं कि, एक दिन निज़ाम बदला और नए-नए चरित्रवान लोग सरकार हो गए। उसी दौर में शिक्षा मंत्रालय में मौलाना अबुल कलाम आज़ाद की कुर्सी पर एक सभ्य, सुशिक्षित, सुशील, अनुभवी महिला को बैठने का मौक़ा मिला। एक कुलपति महोदय जो यकीनन पुराने ख़्याल के थे। वज़ीर-ए-तालीम को एक ख़त लिखा, अंग्रेज़ी में।
चूंकि मंत्री महोदया फ़िल्मों के अनुभव से गुजरी थी। अंग्रेज़ी को बखूबी समझती थी और यह जानती थी कि डीयर के मायने क्या होते हैं। लिहाज़ा वे ख़त लिखने वाले कुलपति पर न केवल ग़ुस्सा हुई, बल्कि उसे फाड़ दिया। कुलपति को कुलपति पद से ही रुख्सत कर दिया गया। डीयर का ख़ौफ़ तब से अब तक बना हुआ है।
बहरहाल, आप बोर न हों कुलपति जी, प्रकारांतर से हमने आपको उस महकमे के बारे में इशारा कर दिया क़ि इस महकमे के सबसे ऊपरी पायदान पर कैसे-कैसे लोग बैठे हैं। हम उसके विस्तार में नहीं जाना चाहेंगे, क्यों क़ि इसी विश्विद्यालय से जुड़े दो तीन छात्रों से हमारी जो बात हुई, उसके आधार पर हम आपको ख़त लिख रहे हैं। विकास सिंह का आग्रह था क़ि हम ख़त लिखे। इसलिए यह ख़त आपको लिख रहा हूं।
विश्वविद्यालय तबाह हो चुका है। आप इस तबाही से वाक़िफ़ हैं। हम जानते हैं। (आपका कुलपति के पद पर चयन बहुत पहले हो चुका था। लेकिन आपकी आनाकानी और अनमनापन बताता है क़ि आप इस उजड़े दयार से वाक़िफ़ हो चुके थे।) आप की तालीम का एक हिस्सा “ डिज़ास्टर मनेजमेंट “ से जुड़ा है। “ डैमेज कंट्रोल “ करना आप जानते है।
आप इस बात के भी ज़बरदस्त हामी हैं क़ि विश्विद्यालय या कोई भी शिक्षण संस्थान की प्रथम और मूल्यवान इकाई छात्र होता है।( दूरदर्शन को दिए गए आपके साक्षात्कार से यह खुले तौर पर ध्वनित होता है।) कि आप दाहिने बाजू के दबाव से भले ही उलझे हों, लेकिन आपकी कैलिफ़ोर्निया का अनुभव गर रंच मात्र भी उभरा तो एक बार फिर काशी विश्वविद्यालय का शैक्षणिक माप ऊपर उठ जायगा। इसके लिए ज़ाहिर है कि विश्वविद्यालय छात्रों के प्रवेश में लोकल ताल तिकड़म, भाई भतीजाबाद, लेन-देन का लाटरी धंधा हटा कर "नेशनल टैलेंट" की प्रक्रिया अपनायी जाए। यह तो एक तात्कालिक सवाल है, उसे आप हल करेंगे यह उम्मीद है।
काशी विश्वविद्यालय का चरित्र जान और समझ लेंगे तो आपको निहायत ही अतिरिक्त सुविधा मिल जाएगी। वह है छात्र और विश्वविद्यालय प्रशासन के बीच खुला संवाद, जो कि अब लगभग बंद है। इसके लिए छात्र संघ की बहाली निहायत ही ज़रूरी है।
कुलपति जी! एक बात से आप अवगत होकर कदम उठाएंगे तो आसानी होगी। इस विश्वविद्यालय की नीव में ही सत्ता विरोध ठूंस-ठूस कर भरा है। देश के भले प्रधानमंत्री से लेकर अब तक कोई भी मंत्री सही सलामत माला पहनकर इस विश्वविद्यालय से बाहर नहीं गया है। छात्रों ने सवाल उठाए हैं। उनका जवाब सरकारों को देना पड़ा है। ग्लोब के अन्य अनगिनत मुल्कों में जितनी कदर छात्र, शिक्षक या शिक्षण संस्थाओं की है। भारत उस मुक़ाबले में बहुत पीछे छूट गया है । हम यहां केवल साक्षर होने नहीं आते। हमें ज्ञान चाहिए और ज्ञान की जगह क्या-क्या परोसा जा रहा है, कुलपति जी आप वाक़िफ़ हैं। आप आवहार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी , जयंत नार्लिकर, राजा रमन्ना, वासुदेव शरण अग्रवाल, ओंकार नाथ ठाकुर, श्रीमती यम राजन, डॉक्टर शिव प्रसाद सिंह, डॉक्टर काशी नाथ सिंह, प्रो. मुकुट बिहारी लाल जैसे अनगिनत अंतराष्ट्रीय नाम यूं ही नहीं आए हैं। आज विभागों में क्या हो रहा है? कौन लोग पैदा हो रहे हैं? देश चारों ओर से खोखला हो रहा है।
विश्वविद्यालय चुप है? किस विषय पर शोध हो रहे हैं? उनकी समाज में क्या ज़रूरत है? राजनीति में केवल यह “पढ़ाया भर” जायगा क़ि जनतंत्र, राज शक्ति और जन शक्ति के तनाव पर ही ज़िंदा रहती है। राज शक्ति मज़बूत होगी तो तानाशाही का ख़तरा बढ़ेगा और जब जन शक्ति मज़बूत होगी तो मुल्क अराजकता में चला जायगा।
कुलपति जी! क्या यह निर्गुण ज्ञान ही यह विश्वविद्यालय देगा या इसका सगुण रूप स्वीकार कर सड़क पर भी उतरेगा? भाषा को कर्म से जोड़ना ही अगर ज्ञान है तो यह विश्विविद्यालय ज्ञान से क्यों भाग रहा है?अर्थशास्त्र में माल्थस कब तक प्रश्नपत्र में आते रहेंगे? अमर्त्य सेन को नोबल पुरस्कार मिला। दुनिया ने स्वीकारा- पूंजी न सोना है, न करेंसी, मूलधन ज़मीन है और पशु हैं। विश्विद्यालय ने यह सवाल क्यों नही उठाया?
विश्विद्यालय कलेंडर छापने का छापाखाना भर है या समाज के प्रति कोई दायित्व भी? मेटलरजी विभाग है, शोध हो रहे हैं। जस्ता और स्टेनलेस स्टील की धातु कितनी ख़राब है। केवल शोध तक महदूद रहेगा या बाहर समाज को भी जागरूक करेगा? रिफ़ाइन आयल ज़हर है। शोध ने साबित कर दिया है। टूथपेस्ट ज़हर है, इसी विश्वविद्यालय का शोध है। जनता को क्यों नही बताया जा रहा है।
कुलपति जी जानते हैं। आज विश्विद्यालय कहां फिसल कर गिरा पड़ा है? धर्म, जाति और गोत्र के घेरे में। संस्कृत कोई मुसलमान नहीं पढ़ा सकता? क्यों? मोदी चालीसा और मनुस्मृति की धूम है। सेंट्रल लाइब्रेरी के सदर दरवाज़े पर एक संगमरमर की किताब रखी थी। उस पर लिखा था -
साक़ी के मोहब्बत में दिल साफ़ हुआ इतना,
सर को झुकाता हूं तो शीशा नज़र आता है।
नीचे गांधी जी का लिखा हुआ है, He who is smitten with the arrow's love, knows its power. वह किताब हटा दी गई, क्यों? अर्थ नहीं समझ में आ रहा।
किताबों के ढेर में मक्सिम गोर्की बैठे मुस्कुरा रहे हैं …. “ तुम्हारे पैदा होने के पांच मिनट बाद, उन्होंने तुम्हें एक नाम दे दिया, एक जाति दे दी, एक धर्म दे दिया, एक राष्ट्रीयता बता दी, इस बेवक़ूफ़ी के लिए तुम ता उम्र लड़ते रहो, जिसका चुनाव तुम्हारा अपना नही है!"
अनगिनत नाम हैं, कुलपति जी! ये पुस्तकों में ही क़ैद रहेंगे या विश्वविद्यालय की सड़कों किनारे लिखे जायंगे? आख़िर में, कुलपति जी! अकेले निकल ज़ाया करिए पैदल मधुवन के मैदान में। बच्चों से बात करिए। ये न ज़िद्दी हैं, न ही हिंसक है। इनसे मिलकर आपको आक्सीजन मिलेगा ।
विश्वासी चंचल
विश्वविद्यालय परिवार
विकास सिंह एवं धंनजय सुग्गू
(Disclaimer: लेखक जाने-माने पत्रकार व साहित्कार हैं. वे सोशल मीडिया पर बेबाकी से खुले खत व लेख लिखने के लिए भी जानें जाते हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह हैं। इसके लिए Newsbaji किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है।)
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