(आलेख: राजेंद्र शर्मा)
हैरानी की बात नहीं है कि साल के आखिर तक आते-आते भाजपा पूरी तरह से, आगामी आम चुनाव के लिए चुनावी मोड में आ चुकी है. इस लिहाज से संसद के शीतकालीन सत्र के असमय अंत के तुरंत बाद हुई भाजपा के केंद्रीय तथा राज्य स्तरीय शीर्ष पदाधिकारियों की दो दिनी बैठक से दिए गए संकेतों में वैसे तो कुछ भी अप्रत्याशित नहीं है; फिर भी, ये संकेत से तीन-चार महीनों में ही होने जा रहे आम चुनाव के लिए, सत्ताधारी पार्टी की आने वाले दिनों की प्रमुख पहलों और कार्यनीतियों को तो उजागर करते ही हैं. यह दूसरी बात है कि इन कार्यनीतियों में, बढ़-चढक़र दावे करने और इसके सहारे, मीडिया पर अपने लगभग मुकम्मल नियंत्रण के जरिए, अपने अपराजेय होने की छवि को पुख्ता करने की कार्यनीतियां भी शामिल हैं.
इस बैठक से कम-से-कम दो ऐसे बढ़े-चढ़े दावे निकले हैं, जिनका आने वाले दिनों में काफी ढोल पीटा जाना तय है. इनमें पहला है, यह दावा कि भाजपा, 2024 के आम चुनाव में अपने वोट में 10 फीसद बढ़ोतरी करने और 50 फीसद से ज्यादा वोट हासिल करने के लिए काम करने जा रही है. बूथ-आधार को और पुख्ता करने तथा जातिगत समीकरणों को और मजबूती से साधने को व लाभार्थियों को पूरी तरह अपने पाले में करने को, इसका मुख्य उपाय बताया गया है. दूसरा दावा यह है कि भाजपा इस बार लोकसभा की उन 160 सीटों पर भी जोरदार प्रदर्शन करने की तैयारी करने जा रही है, जिन पर 2019 के आम चुनाव में उसका प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा था.
संभवत: इन दोनों ही दावों तथा खासतौर पर बाद वाले दावे का विस्तार, संघ-भाजपा के बीच से उछाले जाने शुरू हो गए, ‘‘अब की बार, चार सौ पार’’ के नारे में देखा जा सकता है. बाकायदा यह नारा उछाले जाने की शुरुआत, पर्यावरण संबंधी विश्व सम्मेलन, कोप-28 के सिलसिले में प्रधानमंत्री मोदी की यूएई की यात्रा के दौरान हुई थी, जब उनके स्वागत के लिए जुटे अनिवासी भारतीयों के मुंह से संभवत: पहली बार, यह नारा बाकायदा सुनने को मिला था. उसके बाद से, खुद प्रधानमंत्री मोदी भी इस तरह के नारों को इशारों में आगे बढ़ाते रहे हैं.
संसद के हाल ही के सत्र के दौरान, सरकार का विरोध करने वाली पार्टियों के सांसदों के थोक के हिसाब से अभूतपूर्व निलंबनों के बीच, सत्ताधारी भाजपा के संसदीय दल की बैठक में प्रधानमंत्री ने, अगली बार बैठक के हाल की खाली सीटें भी भर जाने की बात कहकर, इसी तरह के नारों की ओर इशारा किया था. हैरानी की बात नहीं है कि प्रधानमंत्री मोदी उक्त दावा करते हुए, यह कहकर विपक्षी सांसदों के निलंबनों को सही ठहराने की ही कोशिश कर रहे थे कि आने वाले चुनाव में जनता, विपक्ष की सीटेें और कम कर के और भाजपा की सीटें और बढ़ाकर, विपक्ष को सजा देगी.
कहने की जरूरत नहीं है कि इस तरह के बढ़े-चढ़े दावे करने के जरिए, अपनी अजेयता की छवि बनाने की कोशिश करने के लिए, जान-बूझकर बहुत बढ़ा-चढ़ाकर अपनी संभावनाओं को दिखाने में संघ-भाजपा को कोई हिचक नहीं होती है. मिसाल के तौर पर यह मानना मुश्किल है कि हाल के ही विधानसभाई चुनावों में तेलंगाना में, जहां भाजपा के हिस्से में कुल आठ सीटें आयी हैं, भाजपा जब अपनी सरकार बनाने के दावे कर रही थी और राज्य को पहली बार अन्य पिछड़ा वर्ग का मुख्यमंत्री देने के दावे कर रही थी, तब संघ-भाजपा को इसका अंदाजा ही नहीं था कि वे मुख्य चुनावी मुकाबले से बाहर, काफी पीछे तीसरे स्थान पर रहेंगे. अमित शाह समेत भाजपा के शीर्ष नेतागण, निस्संकोच इस तरह के बेतुके दावे करने पर, यह कहकर सफाई देते रहे हैं कि चुनाव में तो हर कोई यही कहता है कि हम जीत रहे हैं.
कहने की जरूरत नहीं है कि 2024 में 50 फीसद से ज्यादा वोट लेकर, 2019 के सीटों के अपने 303 के आंकड़े में उल्लेखनीय बढ़ोतरी करने के भाजपा के दावों को, बहुत गंभीरता से शायद ही कोई ले सकता है. याद रहे कि 2019 में अपनी झाडूमार जीत के बावजूद, भाजपा कुल 37.4 फीसद वोट ही हासिल कर पायी थी. अपने सहयोगी दलों को मिलाकर भी उसके नेतृत्व वाले एनडीए को, कुल 45 फीसद वोट ही मिल पाए थे. इसके बावजूद, सत्ताधारी पार्टी और उसके गठजोड़ की चुनावी कामयाबी, उसकी अपनी बढ़त से ज्यादा, विपक्ष के वोटों के बिखराव का ही नतीजा थी.
बेशक, पुलवामा की घटना और बालाकोट की कार्रवाई की पृष्ठभूमि में, प्रछन्न रूप से युद्घ जैसा वातावरण बनाने और उसके सहारे राष्ट्रवादी भावनाओं को भुनाने के जरिए, भाजपा और उसके सहयोगी, 2019 में न सिर्फ चुनाव जीतने में, बल्कि अपना वोट बढ़ाने में भी कामयाब रहे थे. फिर भी, इस राष्ट्रवादी हवा की सबसे बड़ी लाभार्थी बनी भाजपा का वोट, 2014 के 31.1 फीसद से उल्लेखनीय रूप से बढ़ा जरूर था, लेकिन 37.4 फीसद तक ही पहुंच पाया था. वैसी हवा के बिना अकेले भाजपा को तो छोड़ ही दें, उसके गठजोड़ का भी 50 फीसद वोट का आंकड़ा छूना दिवा स्वप्न ही लगता है.
इसकी मुख्य वजहें दो हैं. पहली तो यही कि भाजपा से जनता के बढ़ते मोहभंग और उसके खिलाफ बढ़ते पैमाने पर सामने आते असंतोष, विशेष रूप से बेरोजगारी तथा महंगाई के मुद्दों पर युवाओं के तथा आम लोगों के असंतोष के चलते, भाजपा के लिए पिछले आम चुनाव का 37.4 फीसद का आंकड़ा बनाए रखना भी बहुत मुश्किल होने जा रहा है, फिर इसमें किसी उल्लेखनीय बढ़ोतरी का तो सवाल ही कहां उठता है. दूसरे, 2019 और 2024 के चुनावों के बीच, भाजपा के नेतृत्ववाले गठजोड़ की शक्ल पूरी तरह से बदल चुकी है.
बिहार, पंजाब, महाराष्ट्र और तमिलनाडु-- चार ऐसे बड़े राज्य हैं, जहां अपने गठजोड़ के समीकरणों में अपने भारी प्रतिकूल उलट-फेर के चलते, भाजपा को 2019 के मुकाबले, सीटों और वोट दोनों में ही उल्लेखनीय घाटे का सामना करना पड़ सकता है. भाजपा इन सचाइयों को बखूबी पहचानती है. लेकिन, इसलिए भी वह 50 फीसद से ज्यादा वोट हासिल करने जैसे अतिरंजित दावों के जरिए, और भी जोर-शोर से अपने जीत के प्रति आश्वस्त होने की झूठी धारणा बनाने कोशिश कर रही है.
भाजपा को इस झूठी धारणा की जरूरत इसलिए और भी ज्यादा है, क्योंकि उसे बखूबी पता है कि 2024 का चुनाव, 2019 के चुनाव से काफी भिन्न होगा. उसके प्रति रुख के लिहाज से, 2024 के चुनाव का मतदाता तो 2019 के चुनाव के मतदाता से काफी भिन्न होगा ही, इसके अलावा चुनाव में उसका मुकाबला जिस विपक्ष से होने जा रहा है, वह भी 2019 के उसके विपक्ष के मुकाबले बहुत भिन्न होगा. यहीं इंडिया गठबंधन का गठन और उसका मैदान में उतरना बहुत ही महत्वपूर्ण हो जाता है. यह गठबंधन बेशक, भाजपा के गठजोड़ के मुकाबले विपक्ष के वोटों की ज्यादा से ज्यादा एकजुटता के जरिए, एक बड़ा गणित खड़ा करने जा रहा है.
यह गणित किसी-न-किसी हद तक इस सीधी-सी सचाई को ही प्रतिबिंबित कर रहा होगा कि 2019 के चुनाव में भी, 55 फीसद वोट भाजपा और उसके सहयोगियों के खिलाफ, उन्हें ठुकराते हुए ही पड़ा था. इस गणितीय सचाई से आगे, इंडिया गठबंधन आगे-आगे विपक्ष की एकता के रसायन को भी सामने लाएगा, जो वर्तमान मोदी राज से गरीब-मेहनतकशों के बढ़ते असंतोष को, विकल्प की दिशा देगा. बेशक, इस रूप में विकल्प अभी सिर्फ एक संभावना है, जिसके लिए अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है, लेकिन यह एक बहुत ही वास्तविक संभावना है.
विकल्प की इस संभावना के सामने इस माने में एक भारी चुनौती है कि संघ-भाजपा ने, मोदी राज के दस साल में हिंदुत्ववादी सांप्रदायिकता पर टिके अपने मूलाधार को बहुत मजबूत कर लिया है. इस मूलाधार के गिर्द तरह-तरह की लाभार्थी योजनाओं, आश्वासनों, उम्मीदों तथा भ्रमों के सहारे, जो समर्थन संघ-भाजपा जुटाने में अब तक कामयाब रहे थे, उसका बड़ा हिस्सा अगर उनसे दूर छिटक भी जाए, तब भी उनका यह समर्थक मूलाधार अपनी जगह रहेगा.
और इसका आकार भी अब काफी बढ़ चुका है. अपने इस हिंदुत्ववादी सांप्रदायिक आधार को लगातार पुख्ता करने तथा उसका विस्तार करने की कोशिश में संघ-भाजपा, लगातार जिस तरह सांप्रदायिक मंतव्यों को भुनाने में सक्रिय रहते हैं, वैसे ही एक बहुत ही महत्वपूर्ण मुद्दे के तौर पर भाजपा के शीर्ष नेताओं की हाल की बैठक ने, अयोध्या में 22 जनवरी को होने जा रहे राम मंदिर के प्राण प्रतिष्ठा आयोजन की पहचान की है.
यह कहना शायद गलत नहीं होगा कि संघ-भाजपा, इस प्रकरण से उठने वाली हिंदुत्ववादी लहर को ही, 2024 का पुलवामा-बालाकोट बनाने की उम्मीद लगाए हैं. मंदिर प्राण प्रतिष्ठा समारोह के केंद्र में नरेंद्र मोदी को बैठाने के जरिए, न सिर्फ ‘‘जो राम को लाए हैं, हम उनको लाएंगे’’ के नारों को चलाने की कोशिश की जा रही है, बल्कि इस आयोजन के सिलसिले में 10 करोड़ लोगों तक पहुंचने की बाकायदा योजना भी तैयार की गयी है. खुद प्रधानमंत्री मोदी, इसी महीने के आखिर में, 30 दिसंबर को अयोध्या में रैली कर, विधिवत इस अभियान की शुरूआत करना भी तय कर चुके हैं.
ऐसे में, इंडिया गठबंधन के सामने इसकी गंभीर चुनौती होगी कि संघ-भाजपा को, राम मंदिर को एक और पुलवामा-बालाकोट बनाकर भुनाने से रोके. वह इसे गरीबों-मेहनतकशों के रोजी-रोटी के वास्तविक मुद्दों को बहस के केंद्र में बनाए रखकर ही रोक सकता है. सिर्फ 2024 के चुनाव का ही नहीं, बल्कि धर्मनिरपेक्ष, जनतांत्रिक भारत का भविष्य भी, इसी मुकाबले में तय होना है.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक 'लोकलहर ' के संपादक हैं.)
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