(आलेख: राजेंद्र शर्मा)
जैसा कि आसानी से अनुमान लगाया जा सकता था, अपने लोकसभा सदस्य, अनंत कुमार हेगड़े के बयान से भाजपा ने किनारा कर लिया है. कर्नाटक से भाजपा के वरिष्ठ सांसद, हेगड़े ने एक सार्वजनिक सभा में 2024 के आम चुनाव के भाजपा के नारे, ''अब की बार चार सौ पार'' का खुलासा करते हुए बताया था कि इसका मकसद 'संविधान में तब्दीली' का रास्ता बनाना है. अपने सांप्रदायिक बयानों से बहुुत बार विवाद खड़े करने वाले भाजपा सांसद ने यह तो नहीं बताया कि इसके पीछे संविधान में ठीक-ठीक क्या बदलाव करने का लक्ष्य है.
फिर भी खबरों के अनुसार उन्होंने इसका इशारा जरूर दे दिया कि ये बदलाव हिंदुत्ववादी सांप्रदायिकता के तकाजों को पूरा करने वाले होंगे और यह भी कि निशाने पर संविधान की उद्देश्यिका होगी. उनका कहना था कि अतीत में कांग्रेस की सरकार ने संविधान में ऐसे 'अनावश्यक' प्रावधान जोड़े थे, जो 'हिंदू समुदाय को दबाने वाले' प्रावधान हैं. इन्हें ही हटाने के लिए भाजपा को ''चार सौ पार'' चाहिए! यह समझना मुश्किल नहीं है कि भाजपा सांसद का निशाना संविधान की उद्देश्यिका में जोड़े गए 'धर्मनिरपेक्षता' के सिद्धांत पर था.
बेशक, भाजपा ने हेगड़े के बयान को 'उनके निजी विचार' कहकर, अपना पल्ला झाड़ लिया है. इतना ही नहीं, चुनाव के मौसम में, ''संविधान बदलने'' की नीयत और इरादों पर उठ सकने वाले विवाद से बचने की कोशिश में, भाजपा ने अपने सांसद से उसके बयान पर 'स्पष्टीकरण' भी मांग लिया है, हालांकि इस स्वांग को शायद ही कोई गंभीरता से लेगा. ऐसे मामलों में भाजपा द्वारा मांगे गए 'स्पष्टीकरणों' का हश्र किसी से छुपा हुआ नहीं है. स्वाभाविक रूप से हेगड़े के बयान पर, विपक्ष की तीखी प्रतिक्रियाएं आयी हैं.
हैरानी की बात नहीं होगी कि भाजपा के पल्ला झाड़ने के स्वांग के बावजूद, मोदी की तीसरी पारी के इन मंसूबों की गूंज आने वाले दिनों में चुनाव प्रचार में सुनाई दे. बहरहाल, हेगड़े के बयान के भाजपा का आधिकारिक रुख होने, न होने से अलग, और यहां तक कि मोदी को तीसरा कार्यकाल मिल जाता है, तो उसके वास्तव में ठीक-ठीक ऐसा ही करने से भी अलग, हेगड़े का यह बयान निर्विवाद रूप से यह तो दिखाता ही है कि भाजपा, लोगों के बीच क्या और कैसी अपेक्षाएं तथा उम्मीदें जगाने के जरिए, अपने चुनावी समर्थन को पुख्ता करने की कोशिश कर रही है. ''धर्मनिरपेक्षता'' के सिद्घांत का संविधान-निकाला (और जाहिर है कि देश-निकाला भी) इन अपेक्षाओं में शीर्ष पर है.
भाजपा की ये असली प्रचार प्राथमिकताएं, जिन्हें हेगड़े ने नासमझी में या असावधानी वश उजागर कर दिया है, कम-से-कम इतना तो साफ कर ही देती हैं कि प्रधानमंत्री मोदी की ''विकसित भारत'' बनाने की घोषणाएं तो उनका राजनीतिक-चुनावी मुखौटा भर हैं. उनका और उनकी पार्टी तथा उसके संघ परिवार का असली मुख तो, उसका हिंदुत्ववादी सांप्रदायिकता का चेहरा ही है, जो संविधान से औपचारिक रूप से धर्मनिरपेक्षता के विचार को ही बाहर करने के लिए उतावला है. मोदी राज के दो कार्यकालों में जिस प्रकार, शासन की धर्मनिरपेक्षता के विचार को भीतर से खोखला कर, व्यवहार में हिंदू-श्रेष्ठता का राज कायम किया गया है.
उसे औपचारिक रूप से एक हिंदू राज के रूप में कायम किए जाने का काम अब भी बाकी है. मोदी के दूसरे कार्यकाल में, सीएए कानून के जरिए नागरिकता की परिभाषा में धार्मिक समुदाय आधारित विभाजन के रोपे जाने से लेकर, संविधान की धारा-370 के अंत तथा जम्मू-कश्मीर के विभाजन तथा उसका दर्जा गिराए जाने के जरिए, देश के इकलौते मुस्लिम बहुल राज्य को उसके मुस्लिम बहुल होने की सजा दिए जाने और मणिपुर में बहुसंख्यकवादी राज कायम करने के लिए गृहयुद्घ जैसे हालात पैदा किए जाने आदि के जरिए, व्यवहार में धर्मनिरपेक्षता का गला घोंटने के लिए बहुत तेजी से कदम उठाए गए हैं. अब उसे औपचारिक रूप देेने की, संविधान में रोपने की मंशा है; बशर्ते देश और जनता ने उसे ऐसा करने दिया!
बहरहाल, ''चार सौ पार'' का नारा देना और प्रायोजित भीड़ों से, जिनमें सरकारी खर्चे पर, इंटरनैट क्रिएटर्स का सम्मान करने के नाम पर जुटायी गयीं, बिकाऊ सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर्स की भीड़ें भी शामिल हैं, यह नारा लगवाना तो आसान है और देसी-विदेशी कारपोरेटों की ओर से आ रही पैसे की बाढ़ के बल पर, ''चार सौ पार'' भांति-भांति के घोषित-अघोषित विज्ञापनों के जरिए आम लोगों की जुबान पर चढ़ा देना भी बहुत मुश्किल नहीं है, लेकिन इसे सच कर पाना, लगभग असंभव होने की हद तक मुश्किल है.
ऐसा लगता है कि खुद मोदी एंड कंपनी को, इस सच्चाई का बखूबी अंदाजा है. इसीलिए, चुनाव के नगाड़ों की आवाज जैसे-जैसे निकट आती जा रही है, वैसे-वैसे सत्ताधारी पार्टी के चुनावी प्रबंधक, जिनमें उसके 'शीर्ष दो' भी शामिल हैं, दूसरी पार्टियों में दल-बदल कराने तथा नेताओं की खरीद के खुदरा काम से आगे, जिसमें ईडी तथा सीबीआई जैसी केंद्रीय एजेंसियां बढ़-चढ़कर मदद कर रही हैं, पूरी की पूरी राजनीतिक पार्टियों को खरीदकर, अपने खेमे में लाने में भी जुट गए हैं.
बिहार में नितीश कुमार की ''घर वापसी'' की सफलता को भी काफी नहीं समझा गया, तो उसके बाद दक्षिण में दोनों तेलुगू-भाषी राज्यों के लिए विशेष ऑपरेशन लान्च किया गया. इसके हिस्से के तौर पर आंध्र प्रदेश में भाजपा, अंतत: तेलुगू देशम् की अपने मोर्चे में घर वापसी कराने में कामयाब हो गयी है और बोनस के तौर पर पवन कल्याण की जन सेना भी साथ आ गयी है. दिलचस्प यह है कि इस गठबंधन के जरिए भाजपा, केंद्रीय पार्टी और क्षेत्रीय पार्टियों के बीच रिश्ते के उसी फार्मूले को एक बार फिर पुनर्जीवित करने की कोशिश कर रही है, जिसे सत्तर-अस्सी के दशकों में केंद्र में कांग्रेस साधा करती थी.
संक्षेप में इस फार्मूले का सूत्र होता था—केंद्र हमारा, राज्य तुम्हारा. अब तक आयी खबरों के अनुसार, आंध्र प्रदेश में वही हो रहा है. इस राज्य में, जहां विधानसभा के चुनाव भी, लोकसभा के साथ ही होने हैं, भाजपा गठजोड़ में लोकसभा की छ: सीटें हासिल करने की कोशिश कर रही है, जबकि वह विधानसभा की सिर्फ इतनी ही सीटों पर समझौता करने के लिए तैयार है. कांग्रेस से लड़ते-लड़ते भाजपा, अब कांग्रेस के एक और फार्मूले को अपनाती नजर आती है. याद रहे कि इस राज्य में, 2019 में लोकसभा और विधानसभा, दोनों में भाजपा अकेले लड़कर शून्य पर रही थी और उसे मुश्किल से एक फीसद वोट मिला था.
बगल में दूसरे तेलुगू-भाषी राज्य तेलंगाना में, जहां चंद महीने पहले विधानसभाई चुनाव में कांग्रेस को प्रभावशाली जीत हासिल हुई थी और क्षेत्रीय पार्टी, टीआरएस दो कार्यकाल के बाद सत्ता से बाहर हो गयी थी ; दोनों मुख्य प्रतिद्वंद्वियों से काफी पीछे रह गयी भाजपा, बीआरएस के साथ गुप-चुप समझौता करने के फेर में बतायी जाती है.
विधानसभा के चुनाव हाल ही में हुए हैं, इसलिए खुला समझौता न तो संभव है और न उपयोगी होगा, लेकिन चूंकि टीआरएस किसी भी कीमत पर कांग्रेस से अपनी हार का बदला लेना चाहेगी, भाजपा के लिए अंडरहैन्ड लेन-देन की गुंजाइश बन जाती है. आंध्र प्रदेश के विपरीत, तेलंगाना में भाजपा 2019 में लप्पे में चार लोकसभा सीटें जीतने में कामयाब हो गयी थी, लेकिन पिछले विधानसभाई चुनाव में उसका मत फीसद वहां से ठीक-ठाक नीचे आ गया था. बदले हुए राजनीतिक हालात में भाजपा को, पिछले बार की सीटें बचाने के लिए भी इन तिकड़मों की बहुत जरूरत है.
उधर, ओडिशा में मोदी और नवीन पटनायक की पार्टियों ने, अपने अनाम रिश्ते को अब और अनाम न रखकर, 'गठबंधन' का नाम देने का फैसला कर लिया बताते हैं. पुन: ऐसा समझा जाता है कि यहां भी उसी कांग्रेसी फार्मूले का सहारा लिया जा सकता है — संसद की सीटों का बड़ा हिस्सा हमारा, विधानसभा तुम्हारी. ओडिशा में भी विधानसभा के चुनाव संसद के चुनावों के साथ ही होने हैं. पिछले चुनाव में राज्य से लोकसभा की भी सीटों का बहुमत बीजू जनता दल के पास था, भाजपा इस बार इस अनुपात को पलटवाने की उम्मीद करेगी.
बदले में वह इन राज्यों में अपनी महत्वाकांक्षा कुर्बान कर रही होगी. इस सब के साथ हिमाचल के कुछ भिन्न मामले को भी जोड़ सकते हैं, जहां भाजपा की प्रत्यक्ष कृपा से अस्थिरता अब भी बनी हुई है, हालांकि कांग्रेसी सरकार को भाजपा हड़प करने की स्थिति में अब भी नजर नहीं आती है. इस सब में भाजपा को राज्य सरकार न सही, लोकसभा की चार सीटों में से कुछ न कुछ अतिरिक्त फायदा तो दिखाई दे ही रहा है. पिछली बार भाजपा चारों सीटें जीत गयी थी.
इन तमाम और ऐसी ही और भी अनेक जोड़-जुगाड़ की कोशिशों को, ''चार सौ पार'' के भरोसे का लक्षण मानने के लिए तो, बहुत ज्यादा ही भोला होने की जरूरत होगी. वास्तव में भाजपा, अपनी मोदी प्रचार की सारी आंधी के बावजूद, साधारण बहुमत से सत्ता में वापसी को लेकर भी आश्वस्त नहीं लगती है और इसीलिए, एक-एक सीट के लिए जुगाड़ बैठाए जा रहे हैं. लेकिन, इसमें हैरानी की कोई बात भी नहीं है. यह नहीं भूलना चाहिए कि 2019 के चुनाव तक, तीन आम चुनावों में लोकसभा की 199 सीटें ऐसी थीं, जिन पर भाजपा एक बार भी नहीं जीती थी.
इनमें से 107 सीटे 2019 के चुनाव में उसने अपनी सहयोगी पार्टियों के लिए छोड़ी थीं. इस बार, सहयोगी दलों के लिए छोड़ी जाने वाली सीटों का आंकड़ा इससे बढ़ने ही जा रहा है. इन सीटों को ही निकाल दें तो, चार सौ पार का और भाजपा के तीन सौ सत्तर पार का नारा धड़ाम हो जाता है. इसके साथ अगर हम आम मेहनतकशों की मौजूदा भाजपा शासन से नाराजगी और दूसरी ओर विपक्ष की एकता के बढ़ते मीटर को भी जोड़ दें तो, सत्ताधारी गठजोड़ के लिए साधारण बहुमत का आंकड़ा भी बहुत दूर नजर आने लगेगा.
यह नहीं भूलना चाहिए कि देश भर में कुल 167 सीटें ऐसी हैं, जो 2009 से 2019 तक के तीन आम चुनावों में, भाजपा ने दो बार जीती थीं यानी जिन पर जीत का भाजपा के भरोसा करने का वाकई आधार है. इससे आगे विरोध की खड़ी चट्टान है.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक पत्रिका 'लोकलहर' के संपादक हैं.)
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